दिल्ली मेरी यादेंः पांच पैसे देकर लकड़ी के बक्शे में सुनते थे गीत, सरदार हरभजन ने साझा की बचपन की यादें
मेरे बचपन की दिल्ली अब बहुत बदल चुकी है पर कुछ यादें हैं जो मुझे आज भी दिल्ली की उन गलियों में घुमा लाती हैं। हमारे समय में बड़ी बड़ी गाड़ियां नहीं थी तांगों का चलन था जो रेलवे स्टेशन गांधी नगर सीलमपुर गीता कालोनी में चलते थे।
नई दिल्ली [रितु राणा]। मेरे बचपन की दिल्ली अब बहुत बदल चुकी है, पर कुछ यादें हैं जो मुझे आज भी दिल्ली की उन गलियों में घुमा लाती हैं। हमारे समय में बड़ी बड़ी गाड़ियां नहीं थी तांगों का चलन था, जो रेलवे स्टेशन, गांधी नगर, सीलमपुर, गीता कालोनी में चलते थे। बाद में फोर सीटर, तिपहिया वाहन व डीटीसी बस आई। कंडक्टर बस को स्टाप पर रोकने के लिए एक रस्सी खींचता था। तब डबल डेकर बस चलती थी, जिसकी ऊपर की मंजिल पर सफर करने में खूब आनंद आता था। डीटीसी बस उन दिनों लाल रंग की हुआ करती थी, जो बाद में नीली व बीच में पीली पट्टी वाली हो गई थी।
रविवार व अन्य छुट्टी वाले दिन डीटीसी बस में 50 पैसे का आल रूट बस पास बनता था, जिससे हम पूरी दिल्ली का भ्रमण करते थे। लाल किला, कुतुबमीनार, बिरला मंदिर, चिड़िया घर, चिल्ड्रन पार्क घूमने जाया करते थे। चांदनी चौक में शीशगंज गुरुद्वारा व जामा मस्जिद तो जरूर घूमते थे।
बाल भवन में बनाते थे मिट्टी के खिलौने
स्कूल के दिनों में जैसे ही गर्मी की छुट्टियां लगती वाचनालय, पुस्तकालय व सिलाई सेंटरों में रौनक बढ़ जाती थी। आज बच्चे फोन और लैपटाप पर ज्यादा समय देते हैं। हम लाइब्रेरी में जाकर अखबार व किताबें पढ़ा करते थे। मैं दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी जाया करता था। दो महीने की छुट्टी में कनाट प्लेस स्थित बाल भवन में दाखिला ले लेता था। वहां बच्चों की बहुमुखी प्रतिभा का विकास करने के लिए कई तरह के पाठ्यक्रम चलाए जाते थे। हमसे मिट्टी के खिलौने बनवाए जाते थे। गीत, संगीत, चित्रकला जैसे रोचक व रचनात्मक गतिविधियां कराई जाती थी।
बंदर और भालू का खेल देख मन रोमांचित हो उठता था
उन दिनों राजधानी के हर गली मोहल्ले में फिल्म दिखाने के लिए एक मोबाइल वैन आती थी। जैसे ही लोगों को पता चलता कि फिल्म दिखाने वाली वैन आई है, गली में लोगों का हुजूम उमड़ पड़ता। बड़े से लकड़ी के बक्से में फिल्मी गीत सुनाने वाला भी आता था। उस यंत्र को हम माइक्रोस्कोप कहते थे। उसमें एक साथ पांच लोग गाने सुन सकते थे। दो से पांच पैसे देकर कोई भी गाना सुन सकता था।
गलियों में बंदर-बंदरिया का खेल, सांप नेवले की लड़ाई, भालू के खेल का हम सब आनंद लिया करते थे। मदारियों द्वारा चादर में बच्चे को छिपा देना फिर उसे गायब कर देना यह खेल मन को बड़ा रोमांचित करता था। अब तो यह सब खत्म ही हो गया है।
मुगल गार्डन खुलने का रहता था इंतजार
साल में एक बार मुगल गार्डन घूमने का हम सबको बेसब्री से इंतजार रहता था। पंजाब और उत्तर प्रदेश से हमारे रिश्तेदार आते थे। हमारे घर के पास से एक बस चलती थी जो मुगल गार्डन होते हुए मंदिर मार्ग जाती थी। हम घर से खाना बनाकर ले जाते थे और वहीं किसी पार्क में बैठ कर खा लेते थे। तब इतनी पाबंदियां नहीं होती थीं।
परिचय
1956 में दिल्ली के ढका गांव में जन्मे सरदार हरभजन सिंह दिओल ने दिल्ली विवि के एक्सटर्नल सेल से बीकाम करने के बाद डीयू से ही राजनीति, दर्शन शास्त्र एवं हिंदी में एमए किया। एयर इंडिया में 28 वर्ष नौकरी करने के बाद 2014 में एप्रन अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त हुए। वर्तमान में दिल्ली उच्च न्यायालय में वकालत कर रहें हैं।
(सरदार हरभजन सिंह दिओल की संवाददाता रितु राणा से बातचीत पर आधारित।)