Delhi congress: बिहार विधानसभा चुनाव में हार के बाद वरिष्ठ कांग्रेसी आपस में उलझे
दिल्ली के पूर्व कार्यकारी अध्यक्ष हारून यूसुफ ने पिछले दिनों अपने घर पर पत्रकार वार्ता में नेतृत्व के साथ खड़े होने की हिम्मत दिखाकर ठहरे हुए पानी में पत्थर फेंककर हलचल जरूर पैदा की है लेकिन इससे पार्टी की सियासत में गर्माहट कितनी आती है यह देखने की बात होगी।
नई दिल्ली [संजीव गुप्ता]। देश की सबसे पुरानी सियासी पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस में इन दिनों अजीब स्थिति है। सोनिया और राहुल गांधी जहां गोवा में छुट्टियां मना रहे हैं, वहीं बिहार में हार के बाद वरिष्ठ कांग्रेसी आपस में उलझे पड़े हैं। उधर, पार्टी की दिल्ली इकाई में बाहर ही नहीं, भीतर भी खामोशी छाई हुई है। न कोई खास गतिविधि हो रही है और न गुलाम नबी आजाद के बयान से उपजे विवाद पर ही कोई कुछ कह रहा है। हालांकि, अंदर से भरे सभी बैठे हैं, लेकिन सामने बोलने की कोई हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। दिल्ली के पूर्व कार्यकारी अध्यक्ष हारून यूसुफ ने हाल ही में अपने घर पर रखी पत्रकार वार्ता में नेतृत्व के साथ खड़े होने की हिम्मत दिखाकर ठहरे हुए पानी में पत्थर फेंककर एक हलचल जरूर पैदा की है, लेकिन इससे पार्टी की सियासत में गर्माहट कितनी आती है यह देखने की बात होगी।
छोटी परीक्षा की तैयारी
विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद प्रदेश कांग्रेस की कमान संभालने वाले अनिल चौधरी की परीक्षा भी नजदीक आ गई है। बड़ी परीक्षा यानी नगर निगम चुनाव में तो अभी समय है, लेकिन छोटी परीक्षा यानी कुछ सीटों के उप चुनाव जल्द हो सकते हैं। ऐसे में अध्यक्ष महोदय ने इस परीक्षा में पास होने के लिए तैयारी शुरू कर दी है। हाल ही में सभी प्रदेश उपाध्यक्षों के साथ बैठक कर उप चुनावों की रणनीति पर विस्तार से चर्चा की। हालांकि, प्रदेश प्रभारी शक्ति सिंह गोहिल के अस्वस्थ होने के कारण तय अभी कुछ नहीं किया जा सका, लेकिन माथे पर चिंता की लकीरें साफ नजर आ रही हैं। दिल्ली के मौजूदा सियासी हालात पर गौर करें तो कांग्रेस के लिए छोटी परीक्षा पास करना भी आसान नहीं लग रहा। आलम यह है कि कांग्रेसी ही उप चुनाव की हार जीत को लेकर शर्त लगा रहे हैं।
सूत न कपास और जुलाहों में लट्ठम-लट्ठा
दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) की महत्वाकांक्षी परियोजना लैंड पूलिंग पॉलिसी कई सालों से मझधार में लटकी है और मूर्त रूप नहीं ले पा रही है, जबकि दक्षिणी नगर निगम ने इसके राजस्व में 50 फीसद हिस्से की मांग की है। इसके पीछे निगम अधिकारियों की दलील है कि इस पॉलिसी के तहत जो सेक्टर विकसित किए जाएंगे, उनकी साफ-सफाई और नालियों की व्यवस्था का जिम्मा अंतत: नगर निगम को ही संभालना पड़ेगा। इसके लिए राजस्व की जरूरत होगी। दूसरी तरफ डीडीए अधिकारियों का कहना है कि अभी तो किसानों का समूह ही नहीं बन पा रहा है, ऐसे में पॉलिसी पर काम आगे बढ़ पाना संभव ही नहीं है। बिल्डर भी फिलहाल इस पॉलिसी में ज्यादा दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। ऐसे में जब हमें ही राजस्व नहीं मिल रहा तो निगम को क्या दें। अब यह तो वही कहावत हो गई कि सूत न कपास और जुलाहों में लट्ठम-लट्ठा।
दिल्ली-एनसीआर के प्रदूषण से जंग में केंद्र सरकार की जल्दबाजी हास्यास्पद हो रही है। दरअसल, आनन-फानन में पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियंत्रण प्राधिकरण (ईपीसीए) को खत्म कर वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग के गठन की अधिसूचना तो जारी कर दी गई, लेकिन उसके वजूद का आधार बनाया ही नहीं। कहने का मतलब यह है कि पहले तो उसके 18 सदस्य तय करने में एक हफ्ते का समय लगा। सदस्य तय हुए तो आयोग के कार्यालय की समस्या उठ खड़ी हुई। आयोग के पास न तो काम करने के लिए कोई कार्यालय है और न ही स्टाफ। आयोग के अध्यक्ष एम. एम. कुट्टी भी केंद्रीय पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के कांफ्रेंस रूम में बैठकर अपना काम चला रहे हैं। स्थिति यह हो गई है कि दिल्ली सरकार आयोग से प्रदूषण से जंग में सख्त रवैया अख्तियार करने की गुहार लगा रही है, जबकि हवा सुधारने वाले अपने लिए जमीन तलाशने में जुटे हैं।
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