वीरता को नमन, मां से कहा- मातृभूमि की रक्षा के लिए जा रहा हूं, शहीद हो गया तो रोना नहीं
सुरेंद्र ने हौसला बढ़ाते हुए कहा, ‘मां घबराओ मत, अब मैं भारत मां की सेवा करने जा रहा हूं। जल्द ही वापस आऊंगा। अगर शहीद हो गया तो रोना नहीं।’
गाजियाबाद [दीपक कुमार]। कारगिल युद्ध के दौरान सिपाही सुरेंद्र पाल यादव अपने साथी हवलदार रामेश्वर प्रसाद व चार अन्य जवानों के साथ द्रास सेक्टर में तोलोलिंग की पहाड़ी पर मोर्चा संभाले हुए थे। पहाड़ी के ऊपर से गोलियों की बौछार हो रही थी, जान की परवाह किए बिना इन जांबाजों के कदम आगे बढ़ते जा रहे थे। विषम परिस्थितियों में भी इन रणबांकुरों का जोश कम नहीं हुआ था। ऊंचाई पर होने के कारण पाकिस्तानी सैनिक उनकी हर गतिविधि पर नजर रखे हुए थे।
मां की आंखें नम थीं
अचानक दुश्मन की ओर से आए एक मोर्टार के फटने से सुरेंद्र व उनके दो अन्य साथी शहीद हो गए। शहीद सुरेंद्र पाल यादव का पार्थिव शरीर 3 जुलाई 1999 को तिरंगे में लिपटकर उनके पैतृक गांव पहुंचा, जहां राजकीय सम्मान के साथ उन्हें अंतिम सलामी दी गई। कारगिल युद्ध शुरू होने से पहले सुरेंद्र दो माह की छुट्टी लेकर अपने गांव आए थे। जब वह वापस जाने की तैयारी कर रहे थे तो उनकी नजर मां चंपा देवी के चेहरे पर पड़ी। मां की आंखें नम थीं।
शहीद हो गया तो रोना नहीं
सुरेंद्र ने उनका हौसला बढ़ाते हुए कहा, ‘मां घबराओ मत, अब मैं भारत मां की सेवा करने जा रहा हूं। जल्द ही वापस आऊंगा। अगर शहीद हो गया तो रोना नहीं।’ मां को अपने बेटे पर गर्व है। वह कहती हैं कि अपने दो लाल देश की सेवा के लिए भेजे थे। एक बेटा देश की सेवा करते हुए शहीद हो गया। उसे खोने का गम तो हुआ, लेकिन देश की सेवा के लिए बेटे की शहादत से बड़ा कोई गर्व नहीं हो सकता।
पहाड़ी पर संभाले हुए थे मोर्चा
सुरेंद्र का जन्म 3 मार्च 1977 को गांव सुराना में किसान टेकराम सिंह के यहां हुआ था। परिवार में मां चंपा देवी, बड़े भाई वीरेंद्र कुमार, छोटे भाई नरेंद्र व जितेंद्र कुमार हैं। नरेंद्र फरवरी 1997 में सेना में भर्ती हुए। छोटे भाई के सेना में जाने पर सुरेंद्र के मन में देशप्रेम की भावना और जागृत हुई। वह अगस्त 1997 में सेना का हिस्सा बने।मई 1999 में कारगिल युद्ध शुरू हो गया था। 1 जुलाई 1999 को हवलदार रामेश्वर प्रसाद, सिपाही सुरेंद्र व चार अन्य जवानों के साथ तोलोलिंग पहाड़ी पर मोर्चा संभाले हुए थे।
पाकिस्तान को दिया जा रहा था मुंहतोड़ जवाब
पाक सैनिकों को मुंहतोड़ जवाब दिया जा रहा था। अचानक पाकिस्तानी सेना द्वारा दागा गया एक मोर्टार वहां आकर गिरा और फट गया। इस हमले में सुरेंद्र व दो अन्य जवान शहीद हो गए। नरेंद्र ने बताया कि बड़े भाई के शहीद होने की सूचना उन्हें 15 दिन बाद पत्र के माध्यम से मिली। पत्र मिलने के तीन दिन बाद वह अपने घर पहुंचे। वह कहते हैं कि मेरे मन में हमेशा यह मलाल रहेगा कि मैं अपने भाई के अंतिम दर्शन नहीं कर सका।
अंतिम दर्शन को पहुंचे थे हजारों लोग
शहीद सुरेंद्र का पार्थिव शरीर तीसरे दिन 3 जुलाई 1999 को श्रीनगर से दिल्ली होते हुए पैतृक गांव सुराना पहुंचा। तिरंगे में लिपटकर आए देश के सपूत के अंतिम दर्शन के लिए कई गांवों के लोग पहुंचे। श्मशान घाट पर भी हजारों लोग मौजूद थे। हरनंदी नदी के किनारे शहीद को गार्ड ऑफ ऑनर देते हुए अंतिम विदाई दी गई।