पूर्व में तोड़े गए हजारों मंदिरों के लिए कानूनी लड़ाई के दरवाजे बंद करने वाले कानून पर विमर्श चाहता है संघ
राम जन्म स्थान मंदिर व विवादस्पद ढांचा विवाद के बीच तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार द्वारा आनन-फानन में 11 जुलाई 1991 को लागू इस कानून ने अयोध्या के अलावा मुगलों व अंग्रेजों के शासनकाल में तोड़े गए हजारों मंदिरों के लिए कानूनी लड़ाई के सभी दरवाजे बंद कर दिए।
नई दिल्ली [नेमिष हेमंत]। सुप्रीम कोर्ट में पूजा स्थल (विशेष प्रविधान) कानून, 1991 की वैधानिकता पर सुनवाई पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की करीब निगाह रहेगी। वह देखेगा कि कोर्ट में यह मामला किस तरह से आगे बढ़ता है और इस सुनवाई में केंद्र सरकार का क्या रुख रहता है।
असल में यह कानून संघ के एजेंडे में शामिल मथुरा व काशी के रास्ते में बड़ा अवरोध है, जिसपर उच्चतम न्यायालय ने सुनवाई का मन बनाया है और केंद्र को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है। संघ चाहता है कि विदेशी आंक्राताओं द्वारा तोड़े गए मंदिरों को पुराने स्वरूप में लाने से रोकने वाले इस कानून पर सुप्रीम कोर्ट में केंद्र जो भी जवाब दाखिल करें वह जनभावनाओं को ध्यान में रखकर हो। साथ-साथ इस कानून की वैधानिकता पर राजनीतिक, धार्मिक व सामाजिक स्तर पर भी राष्ट्रीय विमर्श खड़ा हो, पर यह प्रयास उसकी ओर से नहीं होगा।
सुप्रीम कोर्ट में यह याचिका भी उसके द्वारा नहीं बल्कि वरिष्ठ अधिवक्ता अश्वनी उपाध्याय की ओर से दाखिल की गई है। फिलहाल संघ का पूरा ध्यान अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण कार्य को पूरा कराने पर है, जिसमें कम से कम तीन साल का वक्त लगेगा। उसके बाद इस विषय पर संघ अपना स्पष्ट रूख तय करेगा।
राम जन्म स्थान मंदिर व विवादस्पद ढांचा विवाद के बीच तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार द्वारा आनन-फानन में 11 जुलाई 1991 को लागू इस कानून ने अयोध्या के अलावा मुगलों व अंग्रेजों के शासनकाल में तोड़े गए हजारों मंदिरों के लिए कानूनी लड़ाई के सभी दरवाजे बंद कर दिए। यह हिंदू धर्मस्थलों के साथ ही सिख, बौद्ध और जैन धर्मस्थलों के मामलों में भी लागू है।
इसलिए देशभर में ऐसे हजारों धर्मस्थलों को न्याय नहीं मिल पा रहा है और उन्हें पुर्नस्थापित नहीं किया जा पा रहा है। हालांकि, मथुरा-काशी समेत अन्य धार्मिक स्थलों की मुक्ति की मांग को लेकर समय-समय पर स्थानीय अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक के दरवाजे जरूर खटखटाए जाते रहे हैं। संघ भी इस मामले को जोर-शोर से उठाता रहा है। विश्व हिंदू परिषद (विहिप) ने वर्ष 1984 में विज्ञान भवन में आयोजित धर्म संसद में अयोध्या, मथुरा और काशी के धर्मस्थलों को हिंदुओं को सौंपने का प्रस्ताव पारित किया था।
अब इस कानून की वैधानिकता का मामला सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर जाने से संघ उत्साहित जरूर है, पर वह इस पर सतर्कता के साथ आगे बढ़ेगा। संघ के एक वरिष्ठ पदाधिकारी के मुताबिक तब यह कानून बिना किसी विचार-विमर्श के जल्दबाजी में लाया गया था। भला यह किसे नहीं पता है कि मुगल आक्रांताओं द्वारा हजारों मंदिर तोड़े गए। पर यह कानून न्याय के लिए कानूनी लड़ाई के उनके हर रास्ते बंद करता है। यह अच्छी बात है कि सुप्रीम कोर्ट अब उक्त अधिनियम पर विचार करेगा।
एक अन्य संघ पदाधिकारी के मुताबिक जब आतंकी संगठन आइएसआइएस द्वारा तोड़े गए गिरिजाघरों को लेकर पोप इराक का दौरा कर सकते हैं तो भला हम क्यों नहीं गुलामी के प्रतीकों को हटाते हैं। आखिरकार कोई कानून औरंगजेब के मंदिरों के ध्वस्तीकरण को कैसे जायज ठहरा सकता है। यह संविधान की मूल भावना पर कुठाराघात है।
1947 से पहले क्या हुआ था, यह कौन नहीं जानता
अगस्त 1947 से पहले क्या हुआ था, यह कौन नहीं जानता है। विदेशी आक्रमणकारियों ने मंदिर तोड़े। तोड़कर उनकी जगह मस्जिदें बनाई। ये सभी गुलामी के प्रतीक हैं, उनको हटना ही चाहिए था। 15 अगस्त 1947 की यथा स्थिति अगर रखनी ही थी तो जम्मू- कश्मीर में सैकड़ों मंदिर तोड़ दिए गए जो हजारों साल पुराने थे। उस समय वहां कांग्रेस की सरकार थी। क्या इस कानून के आधार पर एक भी मंदिर के पुनर्द्धार का प्रयास किया? इसके विपरित उन मंदिरों के असली पहचान को भुलाने का प्रयास किया। अयोध्या हो चुकी है। पर मथुरा और काशी पर देश की भावी पीढ़ियां आवाज न उठा सकें। कोई आंदोलन नहीं हो, इसके लिए इस कानून की बेड़िया डाली गई है। हम इसे स्वीकार नहीं कर सकते हैं। हम उम्मीद करते हैं सही न्याय होगा।
सुरेंद्र जैन, संयुक्त महामंत्री, विहिप