दिल्ली मेरी यादेंः गुलेल से आम तोड़कर खाने का अलग ही मजा था
समोसा तो अब भी खूब मिलता है लेकिन जो मजा और सुस्वाद 10-15 पैसे वाले समोसे में होता था वो अब नहीं। चार दशक पहली बात कर रहा हूं महरौली में ही गली के नुक्कड़ पर एक दूध की दुकान हुआ करती थी। वह दूध में छुहारा डालकर देता था।
नई दिल्ली [मनोज त्यागी]। मुझे आज भी याद है बचपन के वो दिन जब हम कुतुबमीनार पर चढ़कर दिल्ली को निहारा करते थे। तब दूर-दूर तक दिल्ली दिखाई देती थी, लेकिन अब तो सब कुछ बदल गया है। अब तो कुतुबमीनार पर चढ़ने की भी मनाही हो गई है। वह दौर कुछ और ही था। उस समय दिल्ली में दो मंजिला मकान ही हुआ करते थे। अब तो ऊंची-ऊंची इमारतें बन गईं हैं। लोगों में मेल-जोल ज्यादा होता था। आज जैसा सभय का अभाव नहीं रहता था।
पहले दूसरे शहर से लोग मजदूरी, पढ़ाई या फिर किसी अन्य काम से दिल्ली आते थे तो उनके ठहरने के लिए सिर्फ गांव ही हुआ करते थे। वहां वे सस्ते में रह कर गुजारा कर लेते थे। हां, दक्षिणी दिल्ली में ठहरना उस समय भी बहुत महंगा था। तब एक मकान का किराया 50 हजार तक होता था। आज की दिल्ली को बसाने में दिल्ली विकास प्राधिकरण की अहम भूमिका है।
कक्षा एक से पांच तक की पढ़ाई मैंने महरौली में एक टेंट वाले स्कूल से की थी। 12वीं भी महरौली के ही एक स्कूल से हुई। लेकिन बीएससी करने के लिए जब देशबंधु कालेज में दाखिला लिया तो वहां का माहौल मेरे लिए एकदम अलग और नया था। हम लोग गांव से निकलकर आए थे। वहां सारे छात्र अंग्रेजी मीडियम वाले उनका अंदाज बातचीत का ढंग बिल्कुल अलग था। काफी दिनों तक तो समझ ही नहीं आया कि यहां कैसे पढ़ाई करेंगे। लेकिन धीरे-धीरे सब सामान्य होता गया। उस समय कालेज जाने के लिए डीटीसी की डीयू स्पेशल बस चलती थी। 12 रुपये पचास पैसे में महीने भर का पास बन जाता था। पचास पैसे डीटीसी बस का किराया होता था। लेकिन तब पचास पैसे भी बड़ी मुश्किल से मिल पाते थे।
कंचे और गुल्ली डंडा में मस्त रहते थे
मेरे ज्यादातर दोस्त अपने-अपने काम में लग गए। बस मैं और मेरा एक और साथी ही नौकरी में गए। जब कभी बचपन के दोस्तों से मुलाकात होती है तो पुरानी बातों को याद कर खूब हंसते हैं। हमारे बचपन के खेलों में गुल्ली डंडा, कंचे और पिट्ठू ही हुआ करते थे। तब न तो स्टेडियम होता था और न ही खेल के प्रति लोगों में इतनी जागरूकता ही थी। महरौली के पास एक हौज-ए-शम्सी तालाब हुआ करता था उसी के पास एक आम का बाग था।
हम वहीं खेलते और पढ़ाई भी करते थे, पर आम के मौसम में चोरी-छुपे गुलेल से आम तोड़कर साथियों के साथ खाने में बड़ा मजा आता था। कई बार बाग की रखवाली करने वाला व्यक्ति पीछे दौड़ पड़ता था। कालेज के दिनों की एक और बात बड़ी दिलचस्प है। हम घरवालों से छुपा कर खूब फिल्में देखने जाया करते थे। उस समय सिनेमा देखने के लिए पचास पैसे से डेढ़ रुपये तक की टिकट मिल जाती थी। राजेश खन्ना, राजकपूर की कोई फिल्म नहीं छोड़ते थे।
शादियों में छक कर खाते थे
चार दशक पहली बात कर रहा हूं, महरौली में ही गली के नुक्कड़ पर एक दूध की दुकान हुआ करती थी। वह दूध में छुहारा डालकर देता था। मैं अक्सर शाम में वहां दूध पीने जाया करता था। समोसा तो अब भी खूब मिलता है लेकिन जो मजा और सुस्वाद 10-15 पैसे वाले समोसे में होता था वो अब नहीं। उस समय की शादियां भी बड़ी निराली होती थी। मात्र पचास लोग ही उसमें शामिल होते थे। खाना खिलाने का भी अलग ही अंदाज होता था। पत्तल पर खाना परोसा जाता था। मिठाइयां भी कई तरह की होती थीं। तब लोग एक बार में 10-15 मिठाइयां खा लिया करते थे।
कौन हैं बलविंदर कुमार
सेवानिवृत आइएएस अधिकारी बलविंदर कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय के देशबंधु कालेज से स्नातकोत्तर करने के बाद 1981 में उत्तर प्रदेश कैडर से आइएएस बने। 1999 से 2001 तक उर्वरक विभाग में निदेशक और 2004 तक रसायन एवं उर्वरक मंत्रलय में संयुक्त सचिव रहे। 2015 में नई दिल्ली खनन मंत्रलय में सचिव के पद पर रहे। 2017 में सेवानिवृत होने के बाद 2018 से रियल एस्टेट रेगुलेटरी एक्ट (रेरा) में सदस्य हैं।