Coronavirus Vaccination Drive: दिल्ली हाई कोर्ट की टिप्पणी पर पढ़ें- समाजशास्त्रियों और मनोविज्ञानियों की राय
दिल्ली हाई कोर्ट ने फंगस की दवा की कमी को देखते हुए बुजुर्गों के बजाय युवाओं को तरजीह देने की वकालत की है। अदालत की टिप्पणी पर अधिकांश समाजशास्त्रियों और मनोविज्ञानियों का कहना है कि भारतीय परंपराओं और मूल्यों को ध्यान में रखकर ही कोई फैसला किया जाना चाहिए।
नई दिल्ली [विनीत त्रिपाठी]। दिल्ली हाई कोर्ट ने फंगस की दवा की कमी को देखते हुए बुजुर्गों के बजाय युवाओं को तरजीह देने की वकालत की है। अदालत की टिप्पणी पर अधिकांश समाजशास्त्रियों और मनोविज्ञानियों का कहना है कि भारतीय परंपराओं और मूल्यों को ध्यान में रखकर ही कोई फैसला किया जाना चाहिए। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फार द स्टडी आफ सोशल सिस्टम के प्रोफेसर विवेक कुमार कहते हैं कि बिना संदर्भ जाने बहुत कुछ कहना मुमकिन नहीं है। हालांकि, यह बहुत साहसिक टिप्पणी है। जब तक तथ्यों के आधार पर आकलन नहीं किया जाए, तब तक मूल्यों के आधार पर बात नहीं की जा सकती। फिर भी हमारे सामाजिक मूल्यों और परंपराओं को देखते हुए इस तरह का फैसला करना मुमकिन नहीं होगा। हमारे यहां वृद्धावस्था समाज पर बोझ नहीं, बल्कि अनुभव का वह वट वृक्ष है जिसकी छांव में कई पीढि़यां खुद को महफूज पाती हैं। ऐसे में वृद्धों की तुलना में युवाओं को तरजीह देने की बात कहना ठीक वैसा ही है जैसे, तने या टहनियों को बचाने के लिए जड़ों को काट दिया जाए। पौराणिक कथाओं से लेकर हमारे आसपास के तमाम परिवार वृद्धों को पूरा सम्मान देते हुए दिखते हैं।
कम सोच विचार वाली टिप्पणी
सेंटर फार सोशल रिसर्च की निदेशिका डॉ. रंजना कुमारी अदालत की टिप्पणी को कम सोच विचार के बाद की गई बताते हुए कहती हैं कि यह बहुत तर्कसंगत भी नहीं है। देश में तमाम परिवार ऐसे हैं जिनमें आज भी परिवार का भरण पोषण वृद्ध ही कर रहे हैं। उम्र के आधार पर तो कल यह भी कहा जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि युवाओं के बजाय बच्चों तरजीह दें क्योंकि युवा अपनी क्षमता के शीर्ष पर पहुंच चुके हैं और उनकी तुलना में बच्चों में भविष्य की ज्यादा संभावनाएं हैं। आखिर यह किसी भी सूरत में तर्क नहीं हो सकता कि एक को जीने के लिए दूसरे मरने दिया जाए। यह भी संभव है कि किसी वृद्ध के बचने की संभावना ज्यादा हो, लेकिन अदालत के निर्देश के मुताबिक उसे दवा ही नहीं दी जाए तो उसकी मौत हो जाए।
विचार ही खौफनाक है
मनोविज्ञानी डॉ. मेघना बंसल कहती हैं कि दवा कि किल्लत के चलते वृद्धों को दवा नहीं देने की नीति का विचार ही खौफनाक है। भला किसी की उपयोगिता या उसके परिवार में उसकी महत्ता उसकी उम्र से कैसे तय हो सकती है? यह तो अलग-अलग परिवार और अलग-अलग मामले के आधार पर ही तय होगा कि कौन परिवार के लिए कितना जरूरी है। परिवार, अदालत या समाज किसी को भी किसी के जीने मरने का फैसल नहीं करना चाहिए। हमें यथासंभव सभी को बचाने के बारे में सोचना चाहिए और बाकी नियति पर छोड़ना चाहिए।
पश्चिम के उपयोगितावाद से भारतीय समाज का आकलन न हो
दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो.निरंजन कुमार कहते हैं कि पश्चिम के उपयोगितावाद के चश्मे से भारतीय समाज का आकलन नहीं किया जा सकता। हमारे समाज में बुजुर्ग नई पीढ़ी को गढ़ने और संवारने में जितनी अहम भूमिका निभाते हैं, उसकी कोई कीमत तय नहीं की जा सकती है। हम जिस दौर में जी रहे हैं वहां हमारे बच्चों को मां-बाप से ज्यादा दादा-दादी के साथ की जरूरत है। इस तरह के मामले में इतनी निर्दयी टिप्पणी भी झकझोर देने वाली है, हम उस स्थिति की तो कल्पना भी नहीं कर सकते कि सरकार अदालत के निर्देशों के मुताबिक इस संबंध में कोई नीति बनाए।
संवेदनशील होकर काम करने की जरूरत: शशांक देव
सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता शशांक देव कहते हैं कि न्याय प्रणाली को संवेदनशील होकर काम करने की जरूरत है, इस तरह की टिप्पणियां भारतीय संस्कृति को पुष्पित-पल्लवित करने वाली संवेदना पर प्रहार की तरह होती हैं जो पूरे संदर्भ के बिना समाज पर गलत असर डाल सकती हैं।