Kisan Andolan: दिल्ली-एनसीआर में किसान आंदोलन को विशेषज्ञ ने क्यों कहा 'सस्ती राजनीति'
Kisan Andolan Kisan Andolan वोट बैंक की राजनीति का स्तर इतना गिर गया है कि विरोध खत्म करने के बजाए उसे और भड़काया जाता है। मसला चाहे शाहीन बाग का हो या किसान आंदोलन का यह मुद्दा किसी भी स्तर पर दिल्ली वासियों से जुड़ा नहीं है।
नई दिल्ली [उमेश सहगल]। बार बार बंधक बनती दिल्ली का दुर्भाग्य यह है कि सस्ती राजनीति देश की राजधानी दिल्ली पर भी हावी होती जा रही है। इसे लोकतंत्र का नकारात्मक पक्ष भी कहा जा सकता है। जब जिसका जहां मन करता है, विरोध करने बैठ जाता है। नाम दिया जाता है शांतिपूर्ण प्रदर्शन का और बंधक बना दिया जाता है लाखों लोगों को। वोट बैंक की राजनीति का स्तर इतना गिर गया है कि विरोध खत्म करने के बजाए उसे और भड़काया जाता है। इस समस्या से निजात न तो सहज है और न ही मुमकिन। मसला चाहे शाहीन बाग का हो या किसान आंदोलन का, यह मुद्दा किसी भी स्तर पर दिल्ली वासियों से जुड़ा नहीं है। लेकिन केंद्र सरकार चूंकि दिल्ली में ही बैठती है। इसलिए अपनी आवाज उस तक पहुंचाने के लिए विरोध करने वाले भी दिल्ली में डेरा डाल लेते हैं। यहां उस विरोध को मीडिया की सुर्खियां भी मिल जाती हैं और शासन-प्रशासन का ध्यान भी आकर्षित हो जाता है। लेकिन इस सबमें यह देखा ही नहीं जाता कि उनके विरोध की सफलता कितनों की परेशानी के दम पर सुनिश्चित हो रही है।
किया जा रहा है एक-दूसरे के अधिकारों का हनन
अब अगर मौजूदा कृषि कानून विरोधी आंदोलन की ही बात करें तो न दिल्ली और न यहां रहने वालों का ही खेतीबाड़ी या कृषि कानूनों से कोई लेना देना है। बावजूद इसके वे इस आंदोलन की आग में झुलस रहे हैं। बार्डर लगभग सील होने से दिल्ली वासी अन्य राज्यों से भी कट गए हैं। इस आंदोलन को शांतिपूर्ण भी कतई नहीं कहा जा सकता। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के शब्दों में जब हम दूसरे के अधिकारों का हनन करने लगते हैं तो वह भी एक तरह की हिंसा ही है। यहां भी ऐसा ही हो रहा है।
स्वस्थ राजनीतिक का दिख रहा अभाव
विडंबना यह है कि सत्तारूढ़ पार्टी को नीचा दिखाने के लिए विपक्षी पार्टियां भी ऐसे विरोध प्रदर्शनों में आग में घी डालने का काम करती रहती हैं।अब अगर हम इस पर विचार करें कि इस समस्या से निजात कैसे मिले? तो मेरा मानना है कि लिखित में नियम कायदे सब हैं, लेकिन उन पर अमल इतना सरल नहीं है। इसकी सबसे बड़ी वजह सस्ती राजनीति है। राजनीति में आज विरोध के लिए विरोध होता है। विपक्ष जानता और मानता भी होगा कि सत्ता पक्ष का निर्णय जनहित में है, तब भी वह उसके नकारात्मक पहलुओं को ही उजागर करेगा। स्वस्थ राजनीति का अभाव किसी विवाद को सुलझने ही नहीं देता। देखा जाए तो विरोध प्रदर्शनों के लिए जंतर मंतर और रामलीला मैदान निर्धारित हैं, लेकिन वहां प्रदर्शनकारी जाना नहीं चाहते। वह जानते हैं कि जब तक दूसरों के अधिकारों का हनन नहीं करेंगे, उनके जीवन को प्रभावित नहीं करेंगे, उन्हें भी उनके अधिकार नहीं मिलेंगे।
तुरंत हटाया जाए प्रदर्शनकारियों को
मेरे विचार में दिल्ली को बंधक बनने से बचाने के लिए केंद्र और दिल्ली सरकार को मिलकर काम करना होगा। पुलिस केंद्र के अधीन है जबकि प्रशासन दिल्ली सरकार के अधीन। दोनों सरकारों को संयुक्त रूप से यह तय करना होगा कि दिल्ली के किन स्थानों पर कभी भी कोई आंदोलन या प्रदर्शन नहीं हो। तय संख्या से ज्यादा लोग वहां एकत्रित ही न होने दिए जाएं। अगर कभी ऐसी नौबत आए भी तो कोई ढील न देते हुए प्रदर्शनकारियों को तुरंत वहां से खदेड़ दिया जाए।
मोहरों से नहीं बदलती राजनीति
सुप्रीम कोर्ट के भी यह स्पष्ट निर्देश हैं कि ऐसे किसी भी रास्ते को बाधित नहीं किया जा सकता, जिससे आम जन जीवन अस्त व्यस्त होता हो। दिल्ली सरकार को यहां सोचना होगा कि उसकी बड़ी जिम्मेदारी दिल्ली वासियों के प्रति भी बनती है। अन्य राज्यों के निवासियों को सहूलियत देने की कीमत पर वह दिल्ली के निवासियों को परेशानी में नहीं डाल सकती। अन्य राजनीतिक पार्टियों को भी यह ध्यान रखना होगा कि दिल्ली देश की राजधानी ही नहीे, करीब दो करोड़ लोगों का बसेरा भी है। राजनीति की बिसात पर कुछ हजार प्रदर्शन कारियों को मोहरा बनाकर उनके जीवन को शह-मात के खेल में नहीं बदला जा सकता। राजनीति का एक स्तर होना चाहिए और एक को उसका अधिकार दिलाने के नाम पर दूसरे के अधिकार का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता। पुलिस को भी कानून व्यवस्था बनाए रखनी चाहिए। राजनीतिक पार्टियों के प्रति नहीं बल्कि संविधान के प्रति जिम्मेदारी होनी चाहिए। सबसे बड़ी बात यह कि प्रदर्शनकारियों को भी आत्म अनुशासन और स्वयं की जिम्मेदारी का एहसास होना चाहिए।
(लेख संजीव गुप्ता से बातचीत पर आधारित है)