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पढ़िए- दिल्ली का इतिहास बदलने वाली उस लड़की के बारे में जो बनना चाहती थी नर्स

दिल्ली की सबसे लोकप्रिय मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने भले ही दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया है लेकिन उनके अंदाज और काम को कभी नहीं भुलाया जा सकेगा।

By JP YadavEdited By: Published: Sat, 27 Jul 2019 11:06 AM (IST)Updated: Sat, 27 Jul 2019 11:57 AM (IST)
पढ़िए- दिल्ली का इतिहास बदलने वाली उस लड़की के बारे में जो बनना चाहती थी नर्स
पढ़िए- दिल्ली का इतिहास बदलने वाली उस लड़की के बारे में जो बनना चाहती थी नर्स

नई दिल्ली [संजीव कुमार मिश्र]। शीला दीक्षित (Sheila Dikshit) भले ही पंचतत्व विलीन हो गईं पर दिल्ली के जेहन में उनकी ढेरों यादें हमेशा सहेजी रहेंगी। उनकी किताबों में उनकी बचपन की यादें...उनकी नजरों से देखी जानी समझी दिल्ली के अद्भुत नजारे हैं। उनकी किताब ‘सिटिजन दिल्ली : माइ टाइम, माइ लाइफ’ में लिखा है-'मेरे पिताजी का परिवार पुरानी दिल्ली में था। मेरे दादा नंदकिशोर कपूर इंपीरियल बैंक में काम करते थे, जो अब स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के नाम से जाना जाता है। जब मेरे पिता ने नौकरी शुरू की तो वो नई दिल्ली में आकर रहने लगे। उस समय मेरी उम्र करीब दस साल की रही होगी। जिस उम्र में लड़कियां यहां वहां नहीं जाती थीं, लेकिन हम साइकिल चलाते थे। हम चाणक्यपुरी के रिमोट एरिया में भी जाते थे जो अब डिप्लोमेट एरिया बन चुका है। यहां सेवन टाइल्स, पिट्टू, गिट्टे और हॉप्सस्कॉच खेला करते थे। जामुन के पेड़ों पर चढ़कर खेला करते थे। मैं, 12 साल की थी जब साइकिल चलाकर स्कूल जाना शुरू किया। हम डुप्लेक्स लेन अब कामराज लेन से ग्रेट पैलेस जो अब विजय चौक के नाम से जाना जाता है तक साइकिल से जाया करते थे। यह सिलसिला उस समय भी नहीं रुका जब बंटवारे के दिनों में दिल्ली में सांप्रदायिक माहौल था। उन्होंने अपनी किताब में लिखा है कि बंटवारे के दौरान मेरे बहुत से पारिवारिक रिश्तेदार, जानकार लाहौर, रावलपिंडी से आए थे। यह कमोबेश दिल्ली के लगभग सभी परिवारों के साथ हुआ था। इस दौरान सांप्रदायिक तनाव बहुत था। घर वाले अक्सर टोकते, हमें सचेत करते लेकिन मैं और बहनें रोज की तरह अपने उसी नियम से चलते।'

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नाक में फंसा चमेली का फूल
शीला दीक्षित इसी किताब में लिखती हैं- 'पिता 1953 में रिटायर्ड हुए। हम समयांतराल पर आवास बदलते रहते। राउज एवेन्यू, सर्कुलर रोड, डुप्लेक्स लेन, क्वीन मेरी एवेन्यू में रहे। इन सभी घरों से जुड़ी यादें बहुत हैं। सर्कुलर रोड पर स्थित आवास में रहने के दौरान की एक घटना नहीं भूल पाई थी। घटना कुछ यूं थी। एक दिन चमेली के फूल की सुंगध लेनी चाही। इस दौरान नाक से इतनी तेजी से खींचा कि फूल नाक में फंस गया। पिता तुरंत रमा के प्रॉम में बैठाए और लेडी हार्डिंग अस्पताल भागे। वहां डॉक्टर ने चिमटी से किसी तरह फूल बाहर निकाला। यह घटना तब की है जब शीला दीक्षित करीब आठ साल की थीं।'

जो मन चाहे वो करो
शीला दीक्षित के पिता ने उन्हें बचपन से ही आत्मनिर्भर और निडर बनने के लिए प्रेरित किया। वो अक्सर अपने साथ शीला दीक्षित को विभिन्न कार्यक्रमों में ले जाते थे। लेकिन लौटते समय वो उन्हें घर बस से जाने को कहते थे। वो चाहते थे कि शीला, निडर बनें। यही नहीं वो कहते कि तुम जो करना चाहती हो करोे। जाओ बाहर निकलो और खुद की तलाश करा। यह निडरता का ही परिणाम था कि एक बार वो बचपन में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से मिलने तीन मूर्ति स्थित उनके आवास ही पहुंच गईं। इसका जिक्र उन्होंने अपनी किताब में भी किया है। लिखा है कि, गेट पर सुरक्षाकर्मी ने पूछा कि किससे मिलना है। मैंने कहा-पीएम से। सुरक्षाकर्मी ने कहा कि इंतजार करिए, वो अभी निकलेंगे। जब जवाहर लाल नेहरू यहां से गुजर रहे थे तो उन्होंने हाथ हिलाकर अभिवादन किया।

एक सप्ताह, छह किताबें
शीला दीक्षित की मां कि बाहर का खाना न खाने के लिए हमेशा ही सख्त हिदायत रहती थी। हालांकि फिर भी वो आवास के पास मुख्य मार्ग पर बंद मक्खन की दुकान पर जाकर खाती थीं। शीला दीक्षित को किताबें पढ़ना बहुत पसंद था। उन्होंने लिखा है कि एक सप्ताह में छह किताबें पढ़ने को मिलती थीं। जब ये पढ़कर वापस करते तो अगले हफ्ते के लिए फिर छह किताबें मिलती। अपनी किताब में उन्होंने छह यादगार किताबों का भी जिक्र किया है।

फ्राइडे नाइट यानी म्यूजिक नाइट
बचपन में शीला दीक्षित को शुक्रवार को इंतजार रहता था। क्यों, क्योंकि शुक्रवार की रात लोकप्रिय वेस्टर्न म्यूजिक प्रोग्राम के लिए जो रिजर्व होती थी। जिसका नाम था, ए डेट विद यू। इस प्रोग्रा में लेटेस्ट गाने बजते थे। कई बार तो फोन कर फरमाइशी गाने भी सुनती थीं। लिखती हैं कि सन् 1950 के मध्य में आर्उंटग के लिए मूवीज देखने जाना शुरू किया। उन जमाने में हमें ओडियन, रिवोली, प्लाजा और कनॉट प्लेस के रीगल सिनेमा में मैटिनी शो देखने जाने को मिला। कई बार पुरानी दिल्ली के मिनरवा सिनेमा भी जाते थे, लेकिन अक्सर हम रेस कोर्स रोड पर एयरफोर्स स्टेशन के थियेटर ही जाते थे। यहां आने के पीछे की बड़ी वजह इसका अपेक्षाकृत कम दाम का टिकट भी था। हमारा पूरा परिवार एक रुपया और चार आना में फिल्में देख लेता था। शीला दीक्षित ने पहली फिल्म  'ब्लैक एंड वाइट हेमलेट' देखी थी।

तांगे पर बैठ कुतुबमीनार जाना
शीला दीक्षित को बचपन में छुट्टियों का बेसब्री से इंतजार रहता था। छुट्टियां होती तो तांगे पर बैठकर कुतुबमीनार जाती थीं। यही नहीं ओखला बैराज भी जाती थीं। अपनी किताब में उन्होंने लिखा है कि गर्मी की छुट्टियों में हम शिमला चले जाते थे। जब बारिश का मौसम आ जाता तो दिल्ली आ जाते।

शादी के लिए धाराप्रवाह हिंदी जरूरी
विनोद ने आइएएस की परीक्षा पास कर ली, 9वीं रैंकिंग आई, लेकिन शीला की असल परीक्षा अभी बाकी थी। विनोद के पिता फ्रीडम फाइटर थे। पंडित जवाहर लाल नेहरू के बहुत नजदीकी। उन्नाव, यूपी के कान्यकुब्ज ब्राह्मण। विनोद ने इनसे जनपथ स्थित आल्पस रेस्तरां में मिलवाया। शीला लिखती हैं उनसे मिलने के दौरान जितनी नर्वस मैं थी, शायद ही कभी रहीं होंऊंगी। दद्दा ने मेरे परिवार के बारे में कई सवाल पूछे। कहा, हमारे यहां हिंदी बहुत बोलते हैं। आप लोग अंग्रेजी बोलते हो। उन्होंने कहा कि जब तक आप धाराप्रवाह हिंदी बोलना नहीं सीख लेतीं, मुझे नहीं लगता कि हमारे परिवार में एडजस्ट हो पाओगी। खैर, बाद में वो तोे शादी के लिए मान गए लेकिन विनोद की अम्मा को समझाने में दो साल लग गए। इस बीच शीला दीक्षित के परिवार में चर्चा होती। रिश्तेदार कहते शीला की शादी कब होगी। आए-हाए, शीला की शादी कब होगी? छोेटी भी तो बैठी हुई है। आखिरकार जुलाई 1962 में शादी की तारीख तय हुई। शादी के पहले पिता को हार्ट अटैक आया, इसलिए शादी बहुत साधारण तरीके से हुई।

जब पहली बार ससुराल गईं... 
अपनी किताब में लिखती हैं कि यह सब बहुत असामान्य था। दो दिन पहले दिल्ली में शादी हुई थी और अब बतौर दीक्षित परिवार की नई बहू अपने पति के लखनऊ स्थित परिवार में लंबा घूंघट ओढ़े थी। महिला रिश्तेदारों का पैर छूकर आशीर्वाद ले रही थीं। ऐसा करीब तीन दिन तक चला। पिता को पोस्टकार्ड लिखने के दौरान ऐसा लग रहा था कि जैसे दो तीन सदी पीछे चली आई हूं। तीन दिन बाद 86 वर्षीय रिश्तेदार आईं और कहा कि पढ़ी लिखी है, दिल्ली की लड़की है, एक मरांडा से आई है (मिरांडा हाउस कॉलेज कहना चाहती थीं)।

कम महात्वाकांक्षी लड़की का सफर
सन् 1998 में दिल्ली के लोगों ने कांग्रेस को चुना और शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री चुना गया। लिखती हैं कि, यह अद्भुत अनुभव था। एक कम महात्वाकांक्षी लड़की का यह सफर था। जो जीजस एंड मेरी, मिरांडा में पढ़ी और अब दिल्ली का प्रशासनिक हेड बन चुकी थीं। सर्दियों के दिन थे जब शपथ ग्रहण समारोह हुआ था। इसके बाद तो फ्लाईओवर का जाल बिछाया, बेहतरीन सड़कें, सीएनजी बसें, ऑटो सब दिया। बिजली जो कभी दिन में 6 घंटे चली जाती थी वो नियमित कराई। यही वजह है कि शीला को दिल्ली की जनता ने तीन बार मुख्यमंत्री बनाया।

दोस्तों के ग्रुप का नाम था गैंग
पिता के रिटायर्ड होने के बाद परिवार मां के भाई के यहां लोदी कॉलोनी में रहने लगा था। भाई, सरकारी नौकरी करते थे। जब पढ़ाई की बात आई तो शीला दीक्षित ने मिरांडा हाउस कॉलेज को चुना। सन् 1955 में इंग्लिश ऑनर्स में दाखिला लिया। इसके बाद बाद में पास कोर्स की तरफ रुख किया। यह कॉलेज अपेक्षाकृत नया था। इसकी स्थापना सन् 1948 में हुई थी। पढ़ाई के दौरान कई दोस्त बने, जिसमें विभिन्न जाति धर्म के भी थे। इन्होंने अपने दोस्तों के सर्किल को गैंग नाम दिया था। लिखती हैं, हमारा गैंग एक साथ मिलकर कोई काम करता। हम क्लास बंक कर यूनिवर्सिटी कॉफी हाउस में जाते थे। जहां दो आना और चार आना में बन, कॉफी, आइसक्रीम मिलता था। भारत का पहला फिजी ड्रिंक गोल्ड स्पॉट 1950 के मध्य में ही मार्केट में आया। बकौल शीला, हम कॉलेज में पिंग पांग (टेबल टेनिस) खेलते और कट्टर प्रतिद्वंद्वी कॉलेज और सेंट स्टीफंस कॉलेज के बीच क्रिकेट मैच देखा करते। सेंट स्टीफंस कॉलेज जो लड़कों का कॉलेज था में हम अक्सर थियेटर देखने जाते थे। क्योंकि इन नाटकों में शीला दीक्षित के गैंग की लड़कियां भी महिला पात्रों की भूमिका निभातीं। सर्दियों में घास पर बैठकर घंटों बातें करते थे।

नर्स बनना चाहती थीं

यह पढ़कर आप भी हैरान हो जाएंगे कि एक समय शीला दीक्षित नर्स बनना चाहती थीं। ये हाईस्कूल में पढ़ाई के दौरान की बात है। इसका जिक्र उन्होने अपनी किताब में भी किया है। उन्होंने लिखा है कि हाईस्कूल में पहली बार मैंने अपने पारिवारिक सर्किल के बाहर दोस्त बनाए। हम एक दूसरे से किताबों का आदान प्रदान करते। फिल्मों की कहानी पर चर्चा करते। उस समय एक दौर ऐसा भी था जब वो नर्स बनना चाहती थी। दरअसल, शीला दीक्षित फ्लोरेंस नाइंटेंगेल कहानी से प्रभावित थीं। उन्होंने लिखा है कि इसमें कोई शक नहीं कि जल्द ही मेरी यह इच्छा स्कूल टीचर बनने की ख्वाहिश में बदल गई थी।

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