पढ़िए- दिल्ली में पहले कैसे मनाई जाती थी विजयदशमी, अब कितना बदल गया सबकुछ?
Delhi Ramlila 1956 में दिल्ली आए तो दिल्ली की भव्य रामलीलाएं देखकर लगा मानो किसी दूसरी दुनिया में आ गया। राजधानी में उस समय न तो इतनी मोटर थीं न स्कूटर और बाइक दिखती थीं। तांगों रिक्शों और साइकिल की आर-जार अवश्य थी लेकिन रास्ते जाम नहीं होते थे।
नई दिल्ली। दिल्ली और रामलीला के संबंध को समझना हो तो इतिहास की उन गलियों में झांकना होगा। तकरीबन पांच सौ वर्ष पूर्व भी रामलीला का उतना ही उत्साह था, जितना आज है। उस दौर में दिल्ली जरूर मुगलों के हाथ में थी लेकिन रामलीला के आयोजन को लेकर कभी कोई बड़ी बाधा नहीं आई। हां, औरंगजेब ने एक बार रामलीला रुकवा दी थी लेकिन उसकी मृत्यु के बाद दिल्ली में फिर से रामलला उतरने लगे और तब से निर्बाध रूप से जारी रही। शारदीय नवरात्र पर्व पर दिल्ली की रामलीला से रूबरू करा रही हैं प्रियंका दुबे मेहता।
देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा था, कभी मुगल तो कभी अंग्रेजों की हुकूमत में कैद लोगों के दिलों में धीरे-धीरे अपने सम्मान, अपनी संस्कृति और स्वाभिमान के अंकुर फूटने लगे थे। रामलीला का आयोजन भी स्वाभिमान की इसी लौ को प्रज्वलित करने वाला कहा जा सकता है। इतिहासकार मनीष के गुप्ता का कहना है कि कहीं न कहीं रामलीला आयोजन के लिए मुखर होना भी क्रांति के संचार की एक ताजा लहर थी। लोगों ने फिर से अपनी संस्कृति से जुड़कर अपने स्वाभिमान की रक्षा की जिम्मेदारी उठानी शुरू कर दी।
रामलीला में उर्दू का उपयोग
इतिहासकार मनीष के गुप्ता के अनुसार, जब मुगल बादशाहों ने देखा कि हिंदुओं में रामलीला को लेकर इतनी रुचि है तो उन्होंने श्रीराम के चरित्र को समझने के लिए रामलीला को उर्दू में लिखवाया। छत्तीसगढ़ के कोरबा स्थित पुरातत्व संग्रहालय में उर्दू में लिखी रामलीला की ऐतिहासिक किताब है। इतिहासकारों का कहना है कि इसे पढ़ कर यह भी पता चलता है कि नाट्यकला में भी इसका प्रयोग किया जाता था। यह दिल्ली में औरंगजेब के भाई दाराशिकोह के संरक्षण में रची गई होगी। उस दौर में दाराशिकोह ने और भी अलग-अलग भागों में रामायण पर आधारित कई नाटक लिखे थे। ‘दिल्ली जो एक शहर है’ पुस्तक में रामलीला का जिक्र करते हुए लेखक महेश्वर दयाल ने लिखा है कि गोस्वामी तुलसीदास की चौपाइयों के साथ-साथ रामायण उर्दू शेरों में भी प्रस्तुत की जाती थी। ढाई सौ साल पहले छपी पुस्तक ‘हफ्त तमाशा’ में हिंदुओं के और त्योहारों के साथ रामलीला का जिक्र भी है। ‘शाहजहांनाबाद- द लिविंग सिटी आफ ओल्ड दिल्ली’ में राणा सफवी लिखती हैं कि उर्दू के अलावा रामायण के छंदों को फारसी में बोला जाता था क्योंकि उस समय सभा की आम भाषा फारसी ही थी।
सवारी की शान
इतिहासकार राणा सफवी ने बताया कि चौरासी घंटे का मंदिर पर अभी भले ही विभिन्न तरह के जायके की खुशबू बिखरती है लेकिन उसकी पहचान रामलीला की सवारी की वजह से भी है। 1885 में मुंशी फैजुद्दीन द्वारा लिखी पुस्तक ‘बज्म-ए-आखिर’ का अंग्रेजी अनुवाद करने वाली इतिहासकार और लेखिका राणा सफवी ‘सिटी आफ माय हार्ट’ में लिखती हैं कि हौज काजी और सीताराम बाजार से रामलीला की सवारी निकलती थी। वे लिखती हैं कि जिन गलियों से रामलीला गुजरती थी, वहां पर मशक लेकर भिश्ती आते थे और मुस्लिम समुदाय की महिलाएं उन्हें कुछ पैसे देती थीं। पैसे लेकर भिश्ती उन राहों में पानी काम छिड़काव करते थे, जहां से सवारी गुजरा करती थी। राणा सफवी बताती हैं कि पहली रामलीला कमेटी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर ने बनाई थी और पहली सवारी शाहजहांनाबाद में ही चली थी। ऐसे में यह कार्य मुस्लिम समुदाय के लोग ही करते थे।
सीताराम ने ली थी रामलीला की अनुमति
रामलीला का आयोजन गौरव और उल्लास का आयोजन हुआ करता था, हर काल में रामलीला पूरे उत्साह के साथ मनाई जाती थी। औरंगजेब को यह आयोजन रास नहीं आया और उसने दिल्ली में रामलीला का आयोजन बंद करवा दिया था। 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद 1719 में जब मुहम्मद शाह रंगीला ने सल्तनत संभाली तो उस वक्त शाही कोष खाली हो गया था। ऐसे में बादशाह ने सेठ लाला सीताराम से सरकारी खजाने के लिए कर्ज मांगा। उसी वक्त मौका देखकर लाला सीताराम ने कर्ज देने के बदले अपनी हवेली (वर्तमान में सीताराम बाजार) में रामलीला के आयोजन की बात रखी। बादशाह ने उनकी मांग स्वीकार कर ली और तब से सीताराम बाजार में रामलीला की शुरुआत हुई।
अब नहीं होता शाह के तालाब पर केवट का दृश्य
रामलीला मैदान 1930 से पहले एक बड़ा तालाब था। इसे शाह का तालाब कहा जाता था। बाद में इसे भर दिया गया था। इस तालाब पर केवट का वह दृश्य जीवंत हो उठता था जिसमें केवट को राम, लक्ष्मण और सीता को नदी पार करवानी थी। दिल्ली जो एक शहर है पुस्तक में जिक्र मिलता है कि आजादी के बाद इस तालाब को पाटकर यहां पर पंजाब से आए शरणार्थियों के लिए एक बाजार बना दिया गया जो आज कमला मार्केट के नाम से प्रसिद्ध है।
लाल किले के पीछे होता था आयोजन
रामलीला को लाल किले के पीछे यमुना नदी के रेतीले मैदानों में होती थी, जहां हिंदू सैनिक थे। वहां स्थित एक मात्र पुल से लोग इस रामलीला का नजारा लेते थे। शाही परिवार के लोग लाल किले के झरोखों से रामलीला का मंचन देखा करते थे। मुगल सेना में शामिल हिंदुओं ने 1800 में रामलीला मंचन शुरू कर दिया, चूंकि सेना की मांग थी तो रामलीला बादशाह ने भी रामलीला मंचन पर कोई आपत्ति नहीं जताई। भौगोलिक दृष्टि से यह मैदान पुरानी और नई दिल्ली के बीच में पड़ता है।
हनुमान मंदिर में रामलीला
मुगल बादशाह अकबर के कार्यकाल में रामभक्त और कवि आचार्य तुलसीदास यमुना बाजार स्थित हनुमान मंदिर में दर्शन के लिए आए थे। द्रौपदी ट्रस्ट फाउंडेशन की संस्थापक एवं पौराणिक इतिहासकार नीरा मिश्र बताती हैं कि मान्यता यह है कि जब तुलसीदास पांडवकालीन हनुमान मंदिर में दर्शन के लिए आए तब उन्होंने मंदिर प्रबंधकों से आग्रह किया कि नवरात्र के दौरान प्रांगण में रामलीला का मंचन करवाएं। उनके आग्रह पर वहां रामलीला का मंचन होने लगा। बाद में बहादुरशाह जफर को रामलीला बेहद पसंद आई।
उन्होंने हनुमान मंदिर के प्रबंधकों से कहा कि वे इस रामलीला का मंचन तुर्कमान गेट स्थित खाली मैदान में करवाएं ताकि बड़ी संख्या में लोग इसे देख सकें। तब से यह लीला वहीं होने लगी और वह मैदान रामलीला मैदान के रूप में विख्यात हो गया। हां, क्रांति के वर्ष 1857 और विभाजन के वर्ष 1947 में रामलीला का मंचन नहीं हो सका था, इसके अलावा कोई वर्ष ऐसा नहीं गया जब रामलीला मैदान में मंचन न हुआ हो। हालांकि महेश्वर दयाल की पुस्तक दिल्ली जो एक शहर है में लिखा है कि यह मंदिर प्राचीन नहीं है बल्कि यहां प्रतिष्ठित हनुमान जी की मूर्ति पांडवकालीन है। कहा जाता है कि पांडवों ने भी इसकी पूजा की थी और यह धरती से अपने आप निकली है। राजा मानसिंह ने मंदिर बनवाकर मूर्ति की प्रतिष्ठा करवाई थी।
औरंगजेब की करतूत : गंगा जमुनी तहजीब को जड़ से मिटाने की कोशिश
इतिहास गवाह है कि औरंगजेब ने हिंदुओं और उनकी संस्कृति को जड़ से मिटाना चाहा था। ऐसे में हिंदुओं के मंदिरों को तोड़ना, उजाड़ना और तीर्थ पर कर लगाने जैसे कार्य किए। उसे रास नहीं आया कि हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के लोग रामलीला में एकजुट हों। ऐसे में उसने अपने शासनकाल में रामलीला के आयोजन बंद करवा दिए और लंबे समय तक वह गद्दी पर रहा तो उस दौरान रामलीला नहीं हुई। बाद में सत्ता बदलने के बाद फिर से आयोजन शुरू हुआ तो बदस्तूर जारी रहा। औरंगजेब काल के अलावा अब तक रामलीला का आयोजन केवल 1857 की क्रांति और 1947 बंटवारे के दंश के दौरान ही रुका था या फिर कोरोना की वजह से अब दो वर्षो से रामलीला मंचन बाधित हुआ है।
सांस्कृतिक व वैचारिक क्रांति
इतिहासकार नीरा मिश्रा ने बताया कि घर से लेकर गुरुकुल तक रामलीला या राम कथा का ज्ञान दिया जाता था। हजार साल पहले जब आक्रांता आने लगे, मंदिर और गुरुकुल टूटने लगे और संस्कृति से दूर कर दिया, ग्रंथों से हमारी नाल काट दी गई। तब धीरे-धीरे स्वाभिमान की चिंगारी फूटनी शुरू हुई, लोगों को समझ में आने लगा कि अपनी संस्कृति से जुड़ने के लिए उन्हें ही प्रयास करने होंगे। भक्ति आंदोलन के दौर में यह प्रयास काफी तेज हुए।
मानो यहीं तो विराजे थे रामलला
लेखक एवं पत्रकार फारूक अर्गली के अनुसार, भारत वर्ष में असत्य पर सत्य की विजय का पर्व विजयदशमी अथवा दशहरा सदियों से नहीं, युगों से मनाया जा रहा है। हम जब बच्चे थे, अपने गांव के निकट ऐतिहासिक नगर खजुहा (जनपथ, उप्र) में लगने वाले वार्षिक दशहरा मेले की साल भर प्रतीक्षा करते थे। बड़े-बड़े भीमकाय रावण, कुंभकरण और मेघनाथ को देखते। सुंदर-सुंदर धोतियां पहने मुकुट लगाए श्री राम-लक्षण को धनुषबाण चलाते देखते। बड़ी-बड़ी पूंछ वाली वानरसेना को देखकर आनंद तो बहुत आता था परंतु उस समय समझ में केवल इतना ही आता था कि मेले का उद्देश्य बांस की बनी रंगीन कागजों से मढ़ी सुंदर सी कमान और सरकंडों के रंगे हुए तीर खरीदने हैं। लईया, गट्टा और पेड़ा खाना है, फिर रावण वध के बाद मेला समाप्त होता और हम अपने बड़ों और साथियों के साथ गांव लौट जाते।
1956 में दिल्ली आए, तो दिल्ली की भव्य रामलीलाएं देखकर लगा मानो किसी दूसरी दुनिया में आ गया। राजधानी में उस समय न तो इतनी मोटर थीं न स्कूटर और बाइक दिखती थीं। तांगों, रिक्शों और साइकिल की आर-जार अवश्य थी, लेकिन रास्ते जाम नहीं होते थे। नवरात्र में हर दिन लाल किले के सामने स्थित दाऊजी के मंदिर से शानदार सवारियों का जुलूस निकलता जो चांदनी चौक, नई सड़क और हौज काजी होता हुआ अजमेरी गेट से निकलकर रामलीला मैदान पहुंचता।
सड़कों के दोनों ओर भरी भीड़ सवारी देखने को खड़ी होती। स्त्री, पुरुष, बच्चे, बूढ़े सब बिरादरी के लोग गंगा जमुनी की तहजीब इस उत्सव में झलकती थी। चेहरे पर उल्लास और आनंद लिए बहुतेरे रामलीला मैदान की ओर चल देते जहां विशाल मंच सजा होता। रामायण के प्रसंगों का ऐसा सजीव मंचन होता कि मन आनंदविभोर हो जाता। कलाकारों की साल भर की मेहनत देखने वाली होती थी। आयोजकों द्वारा कलाकारों का चयन और अभिनय के अभ्यास का क्रम कई मास पहले से आरंभ हो जाता था। मंच की बनावट और साज-सज्जा ऐसी होती थी जैसे वह मंच नहीं सचमुच वही स्थान है जहां राम विराजते थे।
दिल्ली की रामलीला देखकर पढ़ने का शौक हुआ। तुलसीकृत ‘रामचरित्र मानस’, छम्मी लाल की लोकप्रिय पुस्तक ‘रामलीला’ और राधेश्याम की ‘संगीत रामायण’ पढ़ डाली। ‘रामचरित्र मानस’ इसलिए मुझे अच्छी लगती है कि अवधी मेरी मातृभाषा है। इन्हीं पुस्तकों पर आधारित रामलीला के सजीव दृश्य नाटक के माध्यम से पूरे देश में प्रदर्शित किए जाते हैं। उन दिनों में पूरी राजधानी राममय होती प्रतीत होती थी। रामलीला मैदान में दशहरा की संध्या को देश के प्रधानमंत्री तथा अन्य प्रमुख नेतागण उपस्थित होते।
प्रधानमंत्री अथवा मुख्य अतिथि भगवान राम की ओर से रावण, मेघनाथ तथा कुंभकरण के विशालकाय पुतलों पर बाण चलाते। देश के मशहूर मुसलमान आतिशबाजों द्वारा बनाए गए उन पुतलों के जलने और भयंकर आवाज वाले पटाखों के धमाकों से सारा शहर गूंज उठता। जलता हुआ रावण जब राम के चरणों की ओर गिरता तो दर्शकों की तालियों से समां बंध जाता। देश के राष्ट्रपति अथवा प्रधानमंत्री राम-सीता के चरण स्पर्श करते जो सचमुच इतने सुंदर होते थे कि राम और सीता की जोड़ी ही जान पड़ती थी। लोग कहते कि यह उन दोनों कलाकारों का चयन करते समय आयोजक और अभिभावक यह सुनिश्चत कर लेते थे कि रामलीला के मंचन के पश्चात वे दोनों विवाह सूत्र में बंध जाएंगे। इन पंक्तियों के लेखक ने दिल्ली की लगभग सभी रामलीलाएं देखी हैं, विशेष रूप से राम भारतीय कला केंद्र की रंगमंचीय रामलीला, जिसमें पूरी रामायण तीन घंटों में देखने का आनंद प्राप्त हो जाता है।
गुलजार देहलवी करते थे स्वयंसेवक सेना का नेतृत्व
मशहूर उर्दू याइर पंडित आनंद मोहन जुत्शी गुलजार देहलवी 30-40 वर्षों तक रामलीला मैदान की सुरक्षा के लिए हिंदू-मुस्लिम युवाओं पर आधारित स्वयंसेवकों की सेना का नेतृत्व करते रहे। यह सेना हजरत निजामुद्दीन औलिया के वार्षिक उर्स के अवसर पर भी सुरक्षा सेवा में लगी रहती थी। दिल्ली की रामलीला आज भी पहले से कहीं अधिक भव्यता के साथ मनाई जाती है, किंतु लाखों की भीड़ में अब वह वर्ग दिखाई नहीं देता जो अपने कपड़ों से पहचाना जाता है।
दिल्ली का विकास आज आकाश को छू रहा है, लेकिन समय की विडंबना ने इस प्राचीन नगर की विशेष सांस्कृतिक पहचान पर गहरा आघात अवश्य किया है। पाठकों को नवरात्र और विजयदशमी की हार्दिक शुभकामनाएं।