समाज का पक्षपातपूर्ण और भेदभावपूर्ण रवैया बढ़ा सकता है एंजायटी और डिप्रेशन का जोखिम!
डॉक्टर स्पंदन के अनुसार वास्तव में हम मनोविज्ञान को लेकर बहुत कम सजग हैं इसलिए हमारे लिए कैसा व्यवहार अच्छा है या हमें मानसिक सेहत के लिए क्या करना चाहिए ये बातें गैरजरूरी लगती हैं। पर अब हमारे जागने का समय है अन्यथा देर हो सकती है।
नई दिल्ली, सीमा झा। अवसाद तेजी से पांव पसार रहा है। कहते हैं कोरोना आपदा से आप अभी गुजर रहे हैं लेकिन अवसाद की आपदा पहले से ही मौजूद है जिससे दुनिया बीते सालों में बुरी तरह जूझ रही है। एक नये अध्ययन के मुताबिक, एंजायटी और मानसिक बीमारियों का एक बड़ा कारण आनुवंशिक होता है पर इसमें आपके जीवन की रोजमर्रा की वे बातें भी शामिल हैं जिन्हें आपने महज एक कड़वा अनुभव मानकर अपने भीतर कहीं दबा दिया है। ये अनुभव दरअसल आपके साथ होने वाला कोई भेदभाव या पक्षपातपूर्ण रवैये से उपजे हो सकते हैं। आप भले ही उन्हें एक सामान्य घटना मान लें पर संभव है वे भविष्य में आपकी मानसिक सेहत के लिए बड़ी चुनौती बन जाएं।
क्या कहता है अध्ययन : अमेरिका की नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज जनरल में प्रकाशित शोध के हवाले से मानें तो यदि तनाव के आनुवांशिक कारणों को नियंत्रित कर भी लिया जाए तो एंजायटी और डिप्रेशन को बढ़ाने में समाज का पक्षपातपूर्ण और भेदभावपूर्ण रवैया इस जोखिम को और बढ़ा सकता है। इस विशेष अध्ययन से जुड़े अध्ययनकर्ता और अमेरिका की टफट्स यूनिवर्सिटी के असिस्टेंट प्रोफेसर एडोल्फ जी क्वेवॉस के अनुसार, 'किसी इंसान के साथ यदि उसके जीवन में भेदभाव अधिक होता है तो यह अनुभव आगे चलकर उसकी मानसिक सेहत को बुरी तरह प्रभावित कर सकता है।
उक्त अध्ययन में 25 साल से लेकर 74 साल के लोग शामिल किए गए, जो अपने जीवन में किसी न किसी प्रकार के सामाजिक बहिष्कार, भेदभाव आदि के शिकार रहे हैं। अध्ययनकर्ताओं के अनुसार, अवसाद और मानसिक बीमारियों का भेदभावपूर्ण व्यवहार से सीधा रिश्ता है। पर साथ ही यह अच्छी बात है कि यदि इंसान अपनी इस आदत यानी भेदभावपूर्ण रवैये को नियंत्रित कर ले तो मानसिक सेहत को बेहतर करने की दिशा में ठोस पहल हो सकती है।
महामारी का प्रभाव सामाजिक ताने बाने पर : किसी वैश्विक महामारी का मनोवैज्ञानिक प्रभाव सामाजिक ताने-बाने पर भी पड़ता है। मिसाल के लिए समाजशास्त्री स्टैबनलै कोहेन के मुताबिक नैतिक घबराहट के दौर में, ‘कोई स्थिति, वाकया, व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह सामाजिक मूल्यों और रुचियों के लिए खतरे के तौर पर पेश कर दिया जाता है। जैसे कि 1980 के दशक में एचआइवी/एड्स महामारी को लेकर बढ़ रही जागरूकता के तहत कई देशों में समलैंगिक पुरुषों को निशाना बनाया गया और उन्हें गालियां दी गईं क्योंकि उन्हें इस वायरस के संक्रमण के लिए जिम्मेदार के तौर पर देखा गया।
दरअसल, कम या ज्यादा यह हर समाज में लोग सामाजिक भेदभाव के शिकार बनते रहते हैं। यह समाज की एक आम घटना है पर जब यह मानसिक सेहत के लिए चुनौती बनने लगे, तो हमें इस ओर सजग होना होगा। लैंगिक भेदभाव भी कारोना काल में घरेलू हिंसा के बढ़ते मामलों में खूब देखा गया है। आंकड़े डरावने हैं। इसी तरह, पिछले करीब एक साल में समाज के भेदभावपूर्ण रवैये का ताजा उदाहरण कोरोना संक्रमित मरीजों के साथ होने वाले बुरे बर्ताव के रूप में देखा जा रहा है। सवाल यह है कि क्या हम महामारी के इतने माह बाद भी इस बात पर आत्ममंथन करने को तैयार हैं कि हम किस तरह के समाज की ओर बढ़ रहे हैं! क्या ऐसा समाज हमारे हित में है?
कहीं खो न दें अपने लोग : इस बारे में अहमदाबाद के वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉक्टर स्पंदन ठाकुर कहते हैं, ‘हम अपनी असुरक्षाओं के कारण इस कदर कमजोर पड़ जाते हैं कि यह नहीं सोच पाते कि हमारा व्यवहार कैसा हो, क्या कहें, कैसे शब्दों का उपयोग करें। बस झट से अपनी कुंठा निकाल देते हैं।' डॉक्टर स्पंदन के अनुसार, यह थोड़ी देर के लिए राहत तो देता है, यह अपने तनाव से राहत पाने का एक तरह से ‘कोपिंग मैकेनिज्म’ हो सकता है पर सच तो यह है कि इससे सामाजिक जीवन या पारिवारिक जीवन में बड़ी दुर्घटना घट सकती है।’ स्पंदन ठाकुर यह भी बताते हैं कि कैसे कोरोना काल में लोगों ने अपने ही उन पड़ोसियों से दूरी बना ली, जिनके साथ कभी दिन रात उठना बैठना होता रहता था।
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