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यादों में बसा है... बस, बेर और ढका गांव

मशहूर कवियित्री गगन गिल ने दैनिक जागरण से बातचीत में अपनी पुरानी यादें साझा की। उन्होंने बताया दिल्ली में उनका जीवन कैसे बीता और साहित्य के क्षेत्र में कैसे प्रवेश किया।

By Mangal YadavEdited By: Published: Thu, 24 Jan 2019 02:38 PM (IST)Updated: Thu, 24 Jan 2019 02:38 PM (IST)
यादों में बसा है... बस, बेर और ढका गांव
यादों में बसा है... बस, बेर और ढका गांव

नई दिल्ली। मेरा बचपन दिल्ली के ढका गांव के आसपास बीता है। पहले मेरा परिवार ढका के पास के एनडीएमसी कॉलोनी में रहता था। हम लोग वहां से थोड़ी दूर राजपुर रोड स्थित प्रसाद जयपुरिया स्कूल में पढ़ते थे। बाद में इसका नाम बदलकर रुक्मणि देवी स्कूल कर दिया गया। इस स्कूल की इमारत बहुत आकर्षक थी, कोलोनियल डिजायन से बना था। मैं बस से स्कूल आया-जाया करती थी। जब हम स्कूल में थे तो बस में सीट घेरने के लिए काफी भागदौड़ करते थे और फिर बस में बैठकर बेर खाते हुए घर वापस लौटते थे।

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मेरे बचपन की याद में तो ढका गांव की कॉलोनी और मॉरिस नगर ही बसा है। तब वो इलाका इतना बसा नहीं था, बाद में मुखर्जी नगर, हडसन लाइन आदि कॉलोनियां विकसित हुईं तो मेरे माता-पिता ने मुखर्जी नगर में अपना मकान बनवाया। बतरा सिनेमा हॉल मेरे सामने बना। बचपन में मम्मी हमें डीटीसी की बस नंबर 9बी में बैठाकर मंडी हाउस ले जाती थी। वहां सप्रू हाउस में चिल्ड्रन फिल्म सोसायटी होती थी जहां हम फिल्म देखते थे। 1977 में दिल्ली में बाढ़ आई थी और मेरा घर उसमें डूब गया था।

मेरा घर तीन मंजिला था और भूतल में पूरा पानी भर गया था। हम कई दिन पानी में घिरे रहे लेकिन यह देखकर कोफ्त होती थी कि हमारे घर से 10 फीट दूर बिल्कुल पानी नहीं है। 1984 के सिख विरोधी दंगे भी हमने मुखर्जी नगर में ही देखे। 

जिंदगी के दिलचस्प किस्से:

साहित्य की तरफ मेरा रुझान बचपन से ही था, मैं कविता प्रतियोगिता में भाग लेती थी। घर में साहित्यिक माहौल था और बड़े बड़े साहित्यकार घर आते थे। आपको दो दिलचस्प किस्से बताती हूं। जब मैं सोलह साल की थी, तो मेरी मुलाकात कृष्णा सोबती से हुई थी। मां की दोस्त डॉ दुआ के घर पार्टी थी, जिसमें कृष्णा जी आई थीं, मुझे उनसे मिलवाया गया। उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया और काफी देर  तक सहलाती रहीं। मैं उनके काले चश्मे और मक्खन की तरह मुलायम गोरे हाथों में डूबी रही। वो उस वक्त शरारा पहनती थीं और हमलोग पाकीजा फिल्म के प्रभाव में थे।

आपको आज बता रही हूं कि मैंने कृष्णा जी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनपर एक कहानी भी लिखी। जासूसी टाइप जिसमें एक सीन था कि दरवाजा खुलता है तो सामने से एक खूब गोरी चिट्टी महिला काला चश्मा लगाकर निकलती है। वो कहानी अब मेरे पास है नहीं, कहीं छपी  भी नहीं। 17 साल की उम्र में मैं अमृता प्रीतम से मिली। जगजीत सिंह और चित्रा ने उनके गीतों पर कमानी ऑडिटोरियम में प्रस्तुति दी थी। उसके बाद मम्मी ने मुझे उनसे मिलवाया, मैं उनकी दीवानी थी। मैंने उनका ऑटोग्राफ लिया। उनके निमंत्रण पर हम उनके घर गए। 

आज साहित्य में मैं जो कुछ भी हूं अमृता जी की वजह से ही हूं। अमृता प्रीतम जी ने मुझे पंजाबी में लिखने के लिए प्रेरित किया था, वो कहती थीं कि युवा पीढ़ी को अपनी भाषा में लिखना चाहिए। मैं पंजाबी पढ़ सकती लेकिन लिख नहीं सकती थी। अमृता जी की प्रेरणा से पंजाबी लिखना सीखा भी लेकिन मेरी गति हिंदी में ही है, मैं हिंदी में ही सहज हूं।

साहित्य से जुड़ा एक और किस्सा मुझे याद है। हिंदी के मशहूर कवि अजित कुमार का घर बहुत आना-जाना था। हम उनके साथ खूब मजे करते थे। मेरा छोटा भाई रब्बी उनके बालों में रबड़ बैंड लगाया करता था। एक दिन जब अजित जी मेरे घर से अपने घर पहुंचे तो उनकी पत्नी सीढ़ियों पर बैठी थीं उन्होंने अजित जी का चेहरा देखा और पूछा कि कहां से आ रहे हो। अजित समझे नहीं लेकिन फिर उनकी पत्नी ने बालों की ओर इशारा किया जिसमें रबड़ बैंड लगा था। आप कल्पना करिए क्या हुआ होगा। लेकिन बाद में अजित जी ने मजे लेकर वो किस्सा हमें सुनाया था।

(यह लेख कवियित्री गगन गिल की अनंत विजय से बातचीत पर आधारित) 

कौन हैं कवियित्री गगन गिल ?

गगन गिल हिंदी की प्रतिष्ठित कवयित्री हैं। उनके कई कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और उन्होंने विपुल अनुवाद भी किया है। अंग्रेजी साहित्य में एमए करने के बाद गगन गिल ने पत्रकारिता में अपना करियर शुरू किया लेकिन पत्रकारिता को छोड़कर वो पूर्णकालिक लेखक हो गईं। उनकी कई कविताएं अमेरिका, इंग्लैंड और जर्मनी के विश्वविद्यालयों में भी पढ़ाई जाती हैं। 


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