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कला-संस्कृति को जन-जन तक पहुंचाने में जुटे डा. किरण सेठ

पद्मश्री डा. किरण सेठ कला-संस्कृति को जन-जन तक पहुंचाने के कार्य में जुटे हैं। डा. किरण सेठ बताते हैं कि 60 के दशक के अंत में आइआइटी खड़गपुर से मेकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान हममें से अधिक छात्र वेस्टर्न म्यूजिक सुनते थे।

By Pradeep ChauhanEdited By: Published: Tue, 25 Jan 2022 12:10 PM (IST)Updated: Tue, 25 Jan 2022 12:10 PM (IST)
कला-संस्कृति को जन-जन तक पहुंचाने में जुटे डा. किरण सेठ
स्टाफ के एक कर्मचारी हर साल भारतीय शास्त्रीय संगीत केंद्रित कार्यक्रम आयोजित करते थे।

नई दिल्ली, जागरण संवाददाता। पद्मश्री डा. किरण सेठ कला-संस्कृति को जन-जन तक पहुंचाने के कार्य में जुटे हैं। डा. किरण सेठ बताते हैं कि 60 के दशक के अंत में आइआइटी खड़गपुर से मेकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान हममें से अधिक छात्र वेस्टर्न म्यूजिक सुनते थे। वहां स्टाफ के एक कर्मचारी हर साल भारतीय शास्त्रीय संगीत केंद्रित कार्यक्रम आयोजित करते थे। बड़े पंडाल के नीचे शास्त्रीय संगीत की महफिल सजती थी।

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अन्य छात्रों के साथ मैं भी जाता था, लेकिन तब हम यह देखने जाते थे कि कौन-कौन आ रहा है। खैर, इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद पीएचडी के लिए कोलंबिया विश्वविद्यालय, न्यूयार्क गया। एक दिन विलेज वायस नाम के विज्ञापन ने ध्यान खींचा। यह विज्ञापन दरअसल, एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का था। इसमें ध्रुपद गायक उस्ताद नासिर अमीनुद्दीन और उस्ताद जिया फरीदुद्दीन प्रस्तुति देने वाले थे।

हममें से कई छात्रों ने कहा कि चलते हैं। हममें से किसी को ध्रुपद नहीं आता था, लेकिन कार्यक्रम का यह असर हुआ कि मेरे अंदर भारतीय शास्त्रीय संगीत का जो बीज आइआइटी में पढ़ाई के दौरान पनपा था, वह पेड़ बन गया। इसके बाद तो इस तरह के आयोजन से न केवल मैं जुड़ा, बल्कि कंसर्ट आयोजित करने लगा। कोलंबिया विवि के इंडिया क्लब के तत्वावधान में कई कंसर्ट आयोजित किए गए, जिसमें शास्त्रीय संगीत व नृत्य के दिग्गज कलाकारों ने प्रस्तुति दी।

पीएचडी पूरी करने के बाद भी कंसर्ट आयोजित करता रहा। 1976 में आइआइटी दिल्ली में मेकेनिकल इंजीनियरिंग पढ़ाना शुरू किया। एक दिन कक्षा में छात्रों से पूछा कि क्या प्रसिद्ध सितार वादक पंडित निखिल बनर्जी को कितने लोग जानते हैं। एक भी छात्र ने हाथ नहीं उठाया। निश्चय किया कि इस दिशा में कुछ करेंगे। छात्रों के सहयोग से एमईएफओेआरजी (मेकेनिकल इंजीनियरिंग फाइनल ईयर आपरेशंस रिसर्च ग्रुप) गठित किया। शास्त्रीय संगीत केंद्रित कार्यक्रम कन्वोकेशन सेंटर में आयोजित किया।

हमने छात्रों के बीच इसका काफी प्रचार किया। कन्वोकेशन सेंटर की क्षमता 1500 लोगों की थी। हमें उम्मीद थी कि कम से कम इसके आधे लोग तो आ ही जाएंगे, लेकिन कार्यक्रम से पहले सेंटर में पांच लोग थे। कार्यक्रम शुरू होने पर एक समय 10 और समाप्त होने पर सिर्फ पांच लोग वापस लौटे, लेकिन हमने हार नहीं मानी और कार्यक्रम करते रहे।

धीरे-धीरे अन्य कालेजों के छात्र भी जुड़ते चले गए। 1977 में स्पिक मैके की नींव पड़ी। 1977 में पहले कार्यक्रम के आयोजन से सफर शुरू हुआ था। अब तो देशभर के शैक्षणिक संस्थानों में साल भर में चार हजार से अधिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। अमेरिका, नीदरलैंड, यूके, हांगकांग, आस्ट्रेलिया, जापान, कोरिया और दुबई में 500 से अधिक कार्यक्रम साल भर में करते हैं।

डा. किरण सेठ कहते हैं कि यह आजादी का 75वां वर्ष है। हमें बाहर से आजादी से मिल गई है, लेकिन अंदर से नहीं। अभी भी हम पाश्चात्य देशों को अपनाते हैं, जबकि हमारी संस्कृति बहुत ही समृद्ध है। जब तक हम अपनी संस्कृति को आत्मसात नहीं करेंगे तब तक हम सही मायनों में आजाद नहीं होंगे।

अविस्मरणीय योगदान से संस्कृति को किया पल्लवितसुमित्रा चरत राम ने विकसित किया इस ऐतिहासिक पल का साक्षी बनने के लिए दिल्ली में प्रसिद्ध कथक नृत्यांगना सुमित्रा चरत राम ने संगीत कार्यक्रम आयोजित किया। आयोजन पूरी रात चला, जिसमें दिग्गज कलाकारों ने प्रस्तुति दी। इस तरह झंकार म्यूजिक सर्किल का गठन हुआ, जो 1952 में भारतीय कला केंद्र बना।

1976 में इसका नाम बदलकर श्रीराम भारतीय कला केंद्र कर दिया गया। संस्था सुमित्रा चरत राम के सपनों को साकार करने में जुटी हुई है। संगीत की विविध विधाएं यहां सीखी जा सकती हैं। केंद्र सरकार ने 1966 में इन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया था।पंडित बिरजू महाराज की कर्मभूमि बनी दिल्लीपद्म विभूषण, नृत्य शिरोमणि व संगीत नाटक अकादमी सरीखे अनगिनत सम्मानों से सम्मानित पंडित बिरजू महाराज ने 16 जनवरी को रात में आखिरी सांस ली। महाराज जी का दिल्ली से विशेष लगाव था।

पंडित बिरजू महाराज के पिता पंडित अच्छन महाराज ने दिल्ली में रहते हुए कइयों को शास्त्रीय नृत्य-संगीत सिखाए। उनके चाचा शंभू महाराज भी दिल्ली आए थे। आठ साल की उम्र में बिरजू महाराज अपने पिता के साथ दिल्ली आए थे। यहां संगीत भारती संस्थान में उन्होंने तबला बजाना सीखने के साथ नृत्य सीखा। आजादी से पहले पूरे देश में सांप्रदायिक दंगे होने लगे तो अच्छन महाराज परिवार के साथ दिल्ली से लखनऊ शिफ्ट हो गए। बिरजू महाराज जब नौ साल के थे, तब उनके पिता का निधन हो गया। 13 साल की उम्र में पंडित बिरजू महाराज को संगीत भारती ने कथक सिखाने के लिए आमंत्रित किया। इसके बाद बिरजू महाराज दिल्ली आ गए और यहां कथक सिखाने लगे। इसके बाद कथक केंद्र से जुड़ गए।

वर्ष 1998 तक कथक केंद्र से जुड़े रहे। सेवानिवृत्त होने के बाद गुलमोहर पार्क में कलाश्रम की स्थापना कर युवाओं को भारतीय शास्त्रीय नृत्य-संगीत की दीक्षा देने लगे। दिल्ली की संस्कृति को पोषित करता घरानादिल्ली घराना की शुरुआत हजरत अमीर खुसरो से मानी जाती है। यह घराना दिल्ली की कला-संस्कृति को पल्लवित और पुष्पित कर रहा है। दिल्ली घराने के खलीफा उस्ताद इकबाल अहमद खान आजीवन भारतीय शास्त्रीय संगीत को जन-जन तक पहुंचाने में जुटे रहे।

खान साहब को संगीत की शुरुआती तालीम अपने पिता उस्ताद चांद खां से मिली। इनकी प्रतिभा को उस्ताद हिलाल अहमद खां और उस्ताद नसीर अहमद खान ने तराशा। 2020 में खान साहब का निधन हो गया। खान साहब भारतीय शास्त्रीय संगीत की विभिन्न शैलियों ठुमरी व दादरा आदि के लिए जाने जाते थे। 2001 में इन्हें 'प्रियदर्शनी पुरस्कार' और 2003 में 'राजीव रतन सद्भावना पुरस्कार' समेत कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था।


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