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बॉलीवुड में झंडा गाड़ने वाले इन 2 महारथियों का जानें दिल्ली कनेक्शन, बिहार से भी है रिश्ता

एक्टर मनोज वाजेपयी कहते हैं कि यूपीएससी तो बहाना था एनएसडी ही आना था। अब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में दाखिला भी इतना आसान काम नहीं था। मैं एक-दो बार नहीं 3 बार रिजेक्ट है।

By JP YadavEdited By: Published: Fri, 18 Oct 2019 06:48 PM (IST)Updated: Sat, 19 Oct 2019 11:17 AM (IST)
बॉलीवुड में झंडा गाड़ने वाले इन 2 महारथियों का जानें दिल्ली कनेक्शन, बिहार से भी है रिश्ता
बॉलीवुड में झंडा गाड़ने वाले इन 2 महारथियों का जानें दिल्ली कनेक्शन, बिहार से भी है रिश्ता

नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। महोत्सव तो कथाओं का था...बड़े-बड़े कलाकार यादों की पोटली बटोर कर लाए थे। मंच पर आसीन थे...दर्शक की वाहवाही लूट रहे थे। इन कथाओं में इतिहास था, कला...संस्कृति..रीति... परंपरा...और  शहर सब था। कोई बंदिश नहीं थी चूंकि कलाकार राष्ट्र के ही नहीं विदेश से भी यहां पहुंचे थे...। दिल्ली के लिए कुछ और भी था जो खास था वो था मनोज वाजपेयी और इम्तियाज अली जैसे सिने कलाकारों से एक अनोखी दिलकश दिल्ली की कथा को सुनना। उनके दिल की परतों में सिमटे इस शहर को उन्हीं की बोली किस्से कहानियों में सुनना...सबरंग के इस अंक में इन्हीं दोनों कलाकारों की दिल्ली से रूबरू करा रहे हैं संजीव कुमार मिश्र :

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...एक झूठ ले आया दिल्ली

सपनों की कोई उम्र नहीं होती न तो देखने की और न ही पूरा करने की। इनके पांव भी नहीं दिखते लेकिन अपनी ही धुन में चलकर पता नहीं कहां-कहां पहुंच जाते हैं। मनोज बाजपेयी के साथ भी हुआ रह भले बिहार के चंपारण में रहे थे लेकिन वहीं बैठे 13 साल की उम्र में ही दिल्ली को दिल बैठे थे। यहां आने की प्लानिंग तक बना बैठे थे। लेकिन इसे अपने सीने में दबाकर रखा था। कहते हैं कि अगर मैं सच बोलकर दिल्ली आता तो घर के सभी सदस्यों का दिल टूट जाता। मैं बड़ा बेटा था। मेरी कोशिश थी कि किसी तरह बस घर से निकल लूं। क्योंकि बताने की हिम्मत नहीं थी, सामाजिक, आर्थिक दबाव थे। पिता चाहते थे कि मैं डॉक्टर बनूं। उस दौर में बड़ा बेटा वही करता था जो पिता चाहते थे। यदि करियर में कुछ नहीं करना था तो घर की जमीन संभालो। ताकि बाकि भाइयों एवं बहनों का करियर उज्ज्वल हो सके। बड़े बेटे की जिम्मेदारी होती थी कि वो बाप का रोल निभाए। मैं यह रोल निभाने को तैयार नहीं था। अब परिवार वालों को कौन समझाता कि मुझे तो फिल्मी रोल निभाने थे। लिहाजा, मैंने पिता से बोला कि डॉक्टर नहीं बन पाउंगा लेकिन कलक्टर बन जाऊंगा। सो, यूपीएससी की तैयारी के बहाने दिल्ली आ गया।

जब एनएसडी में तीन बार रिजेक्ट हुआ

अब दिल्ली तो आ गया। यूपीएससी तो बहाना था एनएसडी ही तो आना था। अब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में दाखिला भी इतना आसान काम नहीं था। मैं एक-दो बार नहीं तीन बार रिजेक्ट हुआ लेकिन अपनी जिद और सपने के आगे क्या करता। जैसे-जैसे रिजेक्शन बढ़ा वैसे-वैसे मेरी मेहनत बढ़ी। वर्कशॉप में हिस्सा लेता। नाटक करता। दाखिले के चक्कर में तीन साल तक बाहर ही ट्रेनिंग हो गई। जब चौथे साल एनएसडी में दाखिले के लिए पहुंचा तो कहा गया कि आप दाखिला क्यों ले रहे हैं आप तो पढ़ाने आइए। पैनल में जो लोग थे वे सभी नाटक आदि में साथ ही काम करते थे। संघर्ष के दिनों में दिल्ली की गलियां खूब भाईं। दरअसल इन गलियों में मैं खुद की तलाश करता था। दिल्ली को जानने समझने का मेरे लिए यह स्वर्णिम दौर रहा था। इस संघर्ष और हार के बीच सबसे कुछ खास था तो ये दो पंक्तियां भी थीं ...याचना नहीं अब रण होगा, संग्राम बड़ा भीषण होगा...ये मुझे कहीं झुकने नहीं देती थीं। प्रेरित करती थीं। दिल्ली आने के साथ एक बात जो मुझे समझ में आई कि सफल होने के लिए अंग्रेजी आनी जरूरी है। फिर मैंने बढिय़ा से अंग्रेजी भी सीखी। लेकिन इसे सिर्फ एक स्किल के तौर पर सीखा। मुझे हिंदी से अटूट लगाव है। मैं चाहता हूं कि मेरी बेटी भी हिंदी बोले। वो अभी सिर्फ अंग्रेजी में बात करती है।

...चांदनी चौक में रिश्तों की चांदनी

अब भले पुरानी दिल्ली की चारदीवारी की ईंटे नहीं दिखतीं। इसकी वजह भी है दरअसल, हमें इतिहास की कद्र नहीं रही। हमें पुश्तैनी मकान की कद्र भी एक खास समय तक ही रही...वो भी तभी तक जब तक हमे मेरा हिस्से...मेरी जमीन जैसे भाव का भान नहीं था। जब हुआ तो, भाई-भाई और बहन-भाई के बीच ही दीवार खड़ी हो गई। चांदनी चौक की बात दूसरी है। यहां मैंने दो तीन फिल्मों की शूटिंग की। इस दौरान किसी के घर में नाश्ता करने जाता तो किसी के यहां खाना खाने। पता चला कि एक ही घर के अंदर ही अंदर कई टुकड़े हो चुके हैं। अंदर कई परिवार एक दूसरे से जुड़े हुए रहते हैं। एक समय सबके पूर्वज एक ही थे। परिवार बढ़ता तो गया लेकिन अंदर से घर बंटता चला गया। किसी परिवार के पास वेस्टर्न टॉयलेट है किसी के पास इंडियन। किसी के पास 25 साल पुराना फ्रिज है तो किसी के पास नया वाला आ चुका है। यहां एक छत के नीचे अलग अलग संस्कृति, रीति और परंपरा है। पूरी एक सभ्यता है चांदनी चौक में। जो बढ़ते परिवार के साथ खत्म होती जा रही है। दीवारें ढह चुकी हैं, लेकिन लोग फिर भी इसे पकड़ हुए हैं। रह रहें हैं। इसे देखना अच्छा भी लगता है और दुखदायी

भी।

लाल किले से बात करते होंगे दरवाजे

मनोज वाजपेयी कहते हैं कि दिल्ली घर है। यहां चीजें बहुत आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं। ये कमाल का शहर है। हर इलाका अपने आप में छोटा सा गांव है। सिर्फ दिल्ली-दिल्ली की बात करें। दरियागंज की तरफ जाएं तो दरवाजा मिलता है। दिल्ली गेट। इस गेट से होकर लोग गुजरते हैं। लेकिन कोई पूछता नहीं कि आखिर यह गेट क्यों है। क्या है? दरवाजे ठीक अपनी जगह पर सालों से खड़े हैं। इन्होंने पूरी सभ्यता को बदलते देखा है। दरवाजों को किसी ने तोड़ा नहीं, शायद यह सोचकर कि पुरानी यादों को बचा लिया जाए। इतिहास बचा रहे। उन दरवाजों के आसपास सलाखें लगा दी गईं। जिनके बाहर चीजें बदलती चली गईं। अब तो आलम यह है कि दरवाजा बच जाए, यही बहुत बड़ी बात है। क्योंकि ट्रैफिक के लिए व्यवधान बन रहे हैं। मुझे डर है कि कहीं इन्हें तोड़ ना दिया जाए। कभी कभी सोचता हूं कि इन्हें लेेकर जो डर मुझे सता रहा है वो उन्हें भी तो सताता होगा। डरे सहमे दरवाजे एक दूसरे से बात करते होंगे। मुझे यकीन है। क्योंकि एक पत्थर का दरवाजा, दूसरे पत्थर के दरवाजे की खामोशी और उसकी बातचीत को सुन सकता है। वो कहता होगा।

मेरी दिल्ली का टशन कभी न होगा कम

वहीं, इम्तियाज अली को यह शहर शानदार लगता है और ट्रैफिक पहले से बेहतर हो गया है। लोग भले थोड़े रूड हुए हैं, लेकिन ऐसा होना भी चाहिए। कहते हैं दिल्ली का भी तो अपना टशन है। मैं दिल्ली वाला हूं। अक्सर शूटिंग के सिलसिले में जब दिल्ली आता हूं तो शूटिंग क्रू रास्ता समझाते हैं। वो कई बार कहते हैं कि हुमायूं का मकबरा, निजामुद्दीन...और ऐसे...ऐसे आना। इस पर मैं कहता हूं कि मुझे ना बताएं। मैं सभी रास्ते जानता हूं। लेकिन जैसे ही घर से बाहर निकलता हूं। चार फ्लाईओवर नए मिल जाते हैं। जिस पुरानी बिल्डिंग के दम पर मैं रास्ता पहचानता था। वो कहीं गुम हो चुकी है। मेरा इगो बहुत हर्ट होता है लेकिन अंत में मुझे जीपीएएस चालू करना ही पड़ता है।

पुरानी और नई का मिश्रण

दिल्ली में  शूटिंग करते हुए मजा आता है। अब जैसे सुंदर नर्सरी का ही ले लीजिए। यहां एक ही फ्रेम में निजामुद्दीन, ओबराय होटल, फ्लाईओवर से लेकर हुमायूं का मकबरा तक आ जाते हैं। यही तो इसकी खासियत है। यहां पूरा भारत दिखता व बसता है। इस शहर को तस्वीरों में...प्रस्तुत किया जा सकता है जिन्हें फिर कुछ बोलने कहने की जरूरत नहीं होती उन्हें देख लेने भर से सब जीवंत हो जाता है। ऐसी खासियत बहुत कम शहरों की होती है।

ऑटो से सफर पसंद

दिल्ली में ऑटो से सफर करना पसंद है। ऑटो वाले बहुत दमदार कहानियां सुनाते हैं। मैं उन्हें अपनी फिल्में की कहानी अपनी कहानी बताकर या फिर किसी दोस्त की कहानी बताकर सुनाता हूं। मसलन मैंने रॉकस्टार की कहानी सुनाई... कहा एक लड़का है जिसे लगता है कि जब तक दिल ना टूटे सफल नहीं हो सकता। ऑटो वाला बोला बड़ा बेवकूफ था लड़का। हम लोगों का रिएक्शन समझ अपनी कहानी को और धार दे सकते हैं।

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