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जानिए- दिल्ली से जुड़ी ये 10 खास बातें, नहीं मिलता लगभग 1500 वर्ष तक इतिहास

Delhi इस शहर की किस्मत में उजड़ना और फिर बसना बार-बार लगा रहा। आखिर परिवर्तन ही जीवन का मूल तत्व है।

By JP YadavEdited By: Published: Sat, 04 Jan 2020 12:04 PM (IST)Updated: Sat, 04 Jan 2020 12:24 PM (IST)
जानिए- दिल्ली से जुड़ी ये 10 खास बातें, नहीं मिलता लगभग 1500 वर्ष तक इतिहास
जानिए- दिल्ली से जुड़ी ये 10 खास बातें, नहीं मिलता लगभग 1500 वर्ष तक इतिहास

नई दिल्ली [नलिन चौहान]। Delhi: अंग्रेज इतिहासकार कर्नल गार्डन हेअर्न ने वर्ष 1908 में लिखी किताब ‘द सेवन सीटिज ऑफ डेल्ही’, जिसका दूसरा संस्करण 1928 में छपा था, में सात दिल्ली का विवरण है। जबकि ब्रज कृष्ण चांदीवाला की किताब ‘दिल्ली की खोज’ (वर्ष 1964) में 18 दिल्ली का उल्लेख है। अब आप कभी सात और कभी 18...दिल्ली इसकी ऐसी खोज से अंदाजा लगा सकते हैं कि इस शहर की किस्मत में उजड़ना और फिर बसना बार-बार लगा रहा। आखिर परिवर्तन ही जीवन का मूल तत्व है। एक और रोचक बात है कि यह नगर हर बार उजड़ने के साथ एक अलग स्थान पर ही बसा, नए ढंग से बसा। और इसी उजड़ने बसने की दास्तां में हर शासक इसे अपने अनुकूल नामों से पुकारता रहा। इसके माथे पर अनेक नाम सजते रहे। ज्ञात हो इतिहास में दिल्ली पुराना नाम है और यह आज भी प्रचलित है। ऐसे में, दिल्ली से संबंधित नामों पर अलग-अलग रूप में विचार बनता है।

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1. सबसे पहले इंद्रप्रस्थ बसा

दिल्ली का सबसे प्राचीन नाम, जिसे पांडवों की दिल्ली कहा गया है, का नाम इंद्रप्रस्थ है। जहां आज आप पुराना किला में एक विशाल व प्रचलित पर्यटन स्थल में घूमने जाते हैं वही तो पांडवों का नगर था, ऐसा कहा जाता है। ‘पृथ्वीराज रासो’ के अनुसार, महाभारत के आदिपर्व (महाभारत जैसे विशाल ग्रंथ की मूल प्रस्तावना) में इस नगर का वर्णन मिलता है। पांडवों ने श्रीकृष्ण की सहायता से खांडव प्रस्थ पहुंचकर इंद्र के सहयोग से इंद्रप्रस्थ नामक नगर बसाया। इसके बसाने में विश्वकर्मा ने अद्भुत कार्य किया। जिसका महाभारत में विस्तार से वर्णन मिलता है। जातकों और पुराणों में भी इंद्रप्रस्थ का उल्लेख मिलता है। आप जब पुराना किला घूमने जाते हैं तो आपको बेहद नायाब और प्राचीन धरोहर वहां दिखाई पड़ती हैं। दरअसल पुराने किले के भीतर का हिस्सा दिल्ली का सबसे प्राचीन भाग माना जाता है। इसी भाग को इंद्रप्रस्थ से संबंधित भाग कहा जाता है। इंद्र ने यह नगर बसाने में सहयोग दिया, अत: उसी के नाम पर यह नगर यानी अपनी ‘दिल्ली’ इस भूमि से जुड़कर इंद्रप्रस्थ कहलाई।

2. नहीं मिलता 1500 वर्ष का इतिहास

महाभारत में इंद्रप्रस्थ का वर्णन एक अद्भुत विशाल नगरी के रूप में है। आदिपर्व के 206 वें अध्याय में इस नगरी के निर्माण का वर्णन भी है। यह नगर योजनाबद्ध है। विश्वकर्मा ने इस नगरी को बनाया था। पांडवों को जब आधा राज्य दिया गया तो उन्होंने इंद्रप्रस्थ को अपनी राजधानी बनाया। हालांकि पांडवों के समय से तोमरों के समय तक का ऐतिहासिक विवरण उपलब्ध नहीं है। इस बीच का दिल्ली का इतिहास अज्ञात है और विद्वानों ने तरह-तरह के अनुमान ही प्रस्तुत किए हैं। दिल्ली का ज्ञात इतिहास तोमर वंश के राज्य के बाद का ही है। तोमरों के समय से पूर्व दिल्ली का जो विवरण मिलता है, उसे पौराणिक मानना चाहिए। पुराण, इतिहास का प्राचीन रूप है, जिसके साथ धर्म भी जुड़ा हुआ है। ईसा पूर्व की पांचवीं शती से लेकर आठवीं शती तक (तोमरों के अस्तित्व में आने तक) का दिल्ली का इतिहास ज्ञात नहीं है। लगभग डेढ़ हजार वर्ष तक (ज्ञात इतिहास से पूर्व) का इतिहास नहीं मिलता।

3. थोड़े समय के लिए अनकपुर और अनंगपुर भी बनी

इंद्रप्रस्थ से दिल्ली को हटाकर सातवीं या आठवीं शती में प्रथम अनंगपुर ने अड़गपुर बसाया और देश की राजधानी दिल्ली को तब अनकपुर तथा अनंगपुर जैसे नाम से भी पुकारा गया। यह बदरपुर-महरौली रोड से पूर्व दिशा में कोई ढाई मील के अंतर पर पहाड़ियों में बना हुआ है। हरिहर निवास द्विवेदी ने ‘दिल्ली के तोमर’ पुस्तक अनंगपाल प्रथम को तोमरों का संस्थापक माना है। उन्होंने लिखा है कि परंतु एक बात में कोई संदेह नहीं है कि दिल्ली के प्रथम राजा का विरुद्ध अनंगपुर था। इतिहास के प्रयोजन के लिए दिल्ली के तोमर राज्य के संस्थापक का नाम अनंगपाल प्रथम मानकर चलना सुविधाजनक होगा। हालांकि यह अनंगपुर के बहुत दिनों तक आबाद नहीं रहा। स्वयं तोमरों के काल में ही राजधानी का स्थान बदल गया। अनंगपाल प्रथम का समय 736 वर्ष से 754 वर्ष माना गया है।

4. ...तो ढ़िल्लिकापुरी था नाम

अनंगपाल प्रथम के पुत्र महीपाल ने महीपालपुर बसाया था। कहते हैं, इसी महीपालपुर और योगिनीपुर के बीच में दूसरे अनंगपाल ने 1052 वर्ष के आसपास ढ़िल्लिकापुरी नई राजधानी बसाई। दिल्ली के पास ही सारवन/सरवन नामक एक गांव में विक्रम संवत् 1384 (सन् 1328 वर्ष) का एक शिलालेख मिलता है। जिसमें लिखा है देशोऽस्ति हरियानाख्या: पृथ्व्यिां स्वर्गसन्निभ: ढ़िल्लिकाख्या पुरी तत्र तोमरैरस्ति निर्मिता। तोमरान्तरं तस्यां राज्यं हितकंटकम चाहामाना नृपाष्चक्र: प्रजापालन तत्परा:। इन पंक्तियों में ढ़िल्लिकाख्या पुरी ढ़िल्लिकापुरी का उल्लेख है। यदि यह उल्लेख प्रामाणिक है, तो इस बात पर विचार करना पड़ेगा कि दिल्ली का मूल नाम ढ़िल्लिकापुरी है। इंद्रप्रस्थ से ढ़िल्लिकापुरी तक नाम संस्कृत भाषा के प्रतीत होते हैं। इंद्रप्रस्थ तो विशुद्ध रूप से संस्कृत है। योगिनीपुर भी संस्कृत है। इस योगिनीपुर से संबंधित इसका एक और रूप जुग्गिनिपुर मिलता है। इंद्रप्रस्थ नाम पांडवों के समय का नाम है। इंद्रप्रस्थ से लेकर दिल्ली नामकरण तक के नामों में अरबी, फारसी, तुर्की भाषाओं का कोई प्रभाव नहीं दिखाई देता। मुहम्मद गौरी का जब आक्रमण हुआ और बाद में गुलाम वंश का शासन यहां पर हो गया, उस समय तक दिल्ली नाम का प्रचलन हो गया था। दिल्ली यह नाम तोमरों के समय का नाम है।

5. दिल्लियाल...जहां याल है मुद्रा

कुतुबद्दीन ऐबक द्वारा निर्मित मस्जिद पर हिजरी सन् 587 का शिलालेख है कि उक्त मस्जिद के निर्माण में पांच करोड़ दिल्लियाल (दिल्ली की मुद्राओं का) मूल्य का मसाला लगा था। इस दिल्लियाल शब्द में दिल्ली रूप है। इस रूप के लिखे जाने में दिल्ली का प्रयोग मुस्लिम शासकों द्वारा, उनके यहां पर बस जाने के बाद हुआ है। ‘याल’ यहां मुद्रा के अर्थ में प्रयुक्त है। बाद में फारसी में इसी मुद्रा के लिए (हसन निजामी के ताजुल-मआसिर में) ‘देहलीवाल’ शब्द का प्रयोग हुआ है। दिल्लीयाल तथा देहलीयाल दोनों में भाषा भेद है।

6. ...और शुरू हुआ मुगल काल

लोदी के समय राजधानी आगरा चली जाती है और फिर बाद में मुगल आ जाते हैं। कुल मिलाकर,1193 वर्ष से 1432 वर्ष तक 239 वर्ष की अवधि में तोमरों की दिल्ली से मुबारकाबाद तक पहुंच जाते हैं। इनमें भी प्रथम 93 वर्ष तक राजधानी पुरानी दिल्ली ही रहती है। इन 93 वर्षों को हटा दें तो 146 वर्षों के भीतर की दिल्ली किलोखड़ी, सीरी, तुगलकाबाद, आदिलाबाद, जहांपनाह, फीरोजाबाद, खिजराबाद और फिर मुबारकाबाद है। इस बीच आठ स्थल बदल जाते हैं। महरौली के निकट ढ़िली गांव है। इसी तरह ढ़िली के निकट खिड़की (खिरकी) है और उससे निकट सीरी है और सीरी से उत्तरी में किलोखड़ी है। जब मुस्लिम सत्ता ने दिल्ली पर अधिकार किया, उस समय उसका नाम ‘ढ़िली’ के रूप में प्रचलित रहा होगा। बाद में इन सुल्तानों ने अपनी सुविधा के लिए जब नए नगर बसाए, तो उनका नामकरण उनकी अपनी भाषा में है।

7. पुराने किले को ही ठीक-ठाक करा उसका नाम दीनपनाह रखा

विदेशी मुस्लिम हुक्मरानों का एक शताब्दी के आसपास का समय दिल्ली में ही गुजरा है। किलों का भी निर्माण हुआ। किलोखड़ी हो या सीरी या और कोई-आबाद, सब के सब दिल्ली के ही भाग रहे। यहां तक कि मुगल बादशाह शाहजहां का बसाया हुआ शहर शाहजहांनाबाद भी। उल्लेखनीय है कि उससे पूर्व मुगलों के दौर में ही दिल्ली में दो स्थानों पर अलग-अलग निर्माण हुए। पहले, हुमायूं के समय में दीनपनाह बना। हुमायूंनामा में दीनपनाह के संबंध में लिखा गया है कि हुमायूं ने दीनपनाह नामक नगर का निर्माण करवाया। जमना के तट पर एक ऊंचा स्थान, जो नगर से तीन कोस दूर था, दीनपनाह की स्थापना के लिए पसंद किया गया। वैसे दीनपनाह, आज पुराना किला कहलाता है। इंदरपत गांव भी उसी के पास था। ऐसा माना जाता कि हुमायूं ने पुराने किले को ठीक-ठाक करवाकर उसका नाम दीनपनाह रखा।

8. नगर और किले के मिले प्रमाण

पुराने किले में हुए पुरातात्विक अन्वेषण में अत्यंत प्राचीन अवशेष मिले हैं। जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि दीनपनाह से पूर्व वहां नगर और किला था। दीनपनाह के बाद में शेरशाह सूरी के शासनकाल में दिल्ली में शेरगढ़ का निर्माण हुआ। दीनपनाह के किले को ठीक करके उसका नाम शेरगढ़ रखा गया। तारीखे शेरशाही के अनुसार, दिल्ली शहर की पहली राजधानी यमुना से फासले पर थी जिसे शेरशाह ने तुड़वाकर फिर से यमुना के किनारे पर बनवाया और उस शहर में दो किले बनवाने का हुक्त दिया-छोटा किला गवर्नर के रहने को और दूसरा तमाम शहर की रक्षा के लिए चारदीवारी के रूप में।

9. किले के निर्माण के दौरान हुई थी बादशाह की मौत

बताया जाता है कि इसके बाद सलीमशाह सूरी ने 1546 वर्ष में यमुना के किनारे पर एक मजबूत किला बनवाया। किंतु इसका निर्माण होते-होते बादशाह की मृत्यु हो गई। उसके बाद में उस किले की उपेक्षा होती रही। यह लाल किले के कोने में बना हुआ है। लाल किला बनने के बाद इसका उपयोग शाही कैदखाने केरूप में किए जाने लगा। वहीं वर्ष 1639 शाहजहांबाद का निर्माण हुआ, जिसके बनने में लगभग नौ वर्ष का समय लगा।

10. किताब में दिल्ली के मशहूर कारीगरों को जिक्र

‘दिल्ली मेरी दिल्ली’ में महेश्वर दयाल ने लिखा है मुकर्रमत मीर इमारत को हुक्म मिला कि दिल्ली में बादशाह शाहजहां के लिए एक शानदार लाल पत्थर का किला बनाने के लिए कोई अच्छी जगह तलाश की जाए। मीर इमारत ने किला बनवाने के लिए दिल्ली के दो मशहूर कारीगरों को बुलवाया जिनके नाम उस्तार हामिद और उस्ताद हीरा थे। इन दोनों को लाल पत्थर का किला बनाने का काम सौंपा गया। इन उस्तादों ने दिल्ली में जमना के किनारे शेरशाह सूरी के बेटे सलीमशाह के बनाए सलीमगढ़ के पास खुली जगह पर एक किला बनाने की राय दी। शाहजहां ने इन उस्तादों के काम से खुश होकर उन्हें हवेलियां ईनाम में दी थी। कहते हैं दिल्ली के जामा मस्जिद के पास बड़े दरीबे के बाहर उस्ताद हामिद और उस्ताद हीरे के नाम से कूचे आज भी दिल्ली में मौजूद हैं।

(लेखक दिल्ली के अनजाने इतिहास के खोजी हैं)


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