जानिये- लोगों के दिलों से लेकर लाल किले तक पर राज करने वाले 'गुड़वालों' के बारे में
दिल्ली के गुड़वाले। सेठों के सेठ दयाभावना की प्रतिमूर्ति और दानवीरता के उदाहरण के तौर पर स्थापित लाला परिवारों के बारे बहुत सी कहानियां हैं। यूं कहें कि एक दौर में दिल्ली इन्हीं की थी तो गलत नहीं होगा। यहां पढ़िये- पूरी स्टोरी।
नई दिल्ली। आक्रांताओं ने दिल्ली को ऐसा लूटा कि एक समय में शाही खजाने की अकूत संपत्ति भी खत्म हो गई। जनता परेशान। शासक टूट गए। ऐसे में कुछ सेठों ने दिल्ली को जैसे नया जीवन दिया। यहां की जनता से लेकर बादशाह तक को मदद पहुंचाई और प्रसिद्धि प्राप्त की। उन्हीं सेठों में एक परिवार था गुड़वालों का। नाम का तो अपना इतिहास है ही, वीरता और दयालुता के भी उद्धरण हैं उसी से रूबरू करा रही हैं प्रियंका दुबे मेहता:
दिल्ली के गुड़वाले। सेठों के सेठ, दयाभावना की प्रतिमूर्ति और दानवीरता के उदाहरण के तौर पर स्थापित लाला परिवारों के बारे बहुत सी कहानियां हैं। यूं कहें कि एक दौर में दिल्ली इन्हीं की थी तो गलत नहीं होगा। अपनी दानवीरता के कारण लोगों के दिलों से लेकर लाल किले तक पर राज करने वाले इन सेठों ने दिल्ली ही नहीं, देश को भी बहुत कुछ दिया है। कभी पशुओं के लिए गुड़ और पानी की सेवा देने वाले सेठों ने दिल्ली को ट्राम दी, कपड़ों की मिल लगाई, दिल्ली का पहला कालेज बनाया और मंदिरों की मरम्मत का काम भी करवाया।
चार सौ साल पुराना इतिहास
उत्तर प्रदेश के लाल पुरा के सेठ राधाकृष्ण और उनके वंशज राम दास गुड़वाले सेठ नाढोमल के वंशज हैं। नाढोमल के बाद चार पीढ़ियां तो सामान्य तरीके से जीवनयापन करती रहीं फिर चौथी पीढ़ी में हुए मनीराम। मनीराम के पुत्र राधाकृष्ण और छित्तर मल। 1719 में मुगलों के अत्याचारों से परेशान होकर इन्होंने उत्तर प्रदेश छोड़ा और दिल्ली के पहाड़गंज मे आकर बस गए। यहां आकर इन्होंने कई व्यवसाय किए और अपना एक रुतबा बना लिया। यह सेठ इतने संपन्न हो गए कि इनकी गिनती देश के तीन सबसे समृद्ध सेठ परिवारों में होने लगी। इसी समय मथुरा में हमले हुए और 1732 में अहमद शाह अब्दाली ने लूटपाट मचाई तो वहां से ब्राह्मणों ने दिल्ली का रुख किया और कुछ वहीं रह गए। उस समय राधाकृष्ण के परिवार ने इन ब्राह्मणों को दस-दस रुपये नकद और एक-एक धोती लोटा दान में दिया। इतिहासकार ताराचंद ने अपनी पुस्तक ‘हिस्ट्री आफ फ्रीडम मूवमेंट इन इडिया’ में लिखा है कि सेठ राम दास गुड़वाला उत्तर भारत से सबसे अमीर व्यक्ति थे।
गौरी शंकर मंदिर व योगमाया मंदिर
दिल्ली के दिल में स्थित करोल बाग का गौरी शंकर मंदिर का इतिहास शताब्दियों पुराना है। इतिहासकार आरवी स्मिथ ने लिखा है कि वहां पर राजा ढिल्ली की बेटी राजकुमारी अपनी दासियों के साथ जमुना के घाट पर नहाने गई थीं तभी ठगों ने आक्रमण कर दिया। बाद में खुद को बचाने के लिए राजकुमारी ने चाकू मार लिया था। बाद में राजा ने वहां स्थित पीपल के पेड़ के नीचे एक कुआं और शिव मूर्ति बनवाई। मुगलों के आक्रमण के बाद भी वह पेड़, कुआं और शिव मूर्ति मौजूद रहे। आगे चलकर वह पेड़ कट गया लेकिन शिव पार्वती की मूर्ति को कोई नुकसान नहीं पहुचा। कालांतर में यह गौरी-शंकर मंदिर के रूप में प्रसिद्ध हो गया। गुड़वाले परिवार ने वहां पर गेट और स्तंभ बनवाया और उसमें मरम्मत का काम करवाया। नारायण दास और कृष्ण दास की स्मृति में इसका पुरुद्धार हुआ था। यह काम नारायाण दास के पोते सत्य नारायण गुड़वाले ने करवाया था। इसी तरह से महरौली स्थित योगमाया मंदिर पांडवकालीन माना जाता है, लेकिन मंदिर का फिर से निर्माण सेठ राधा कृष्ण के पुत्र खुशाल राय ने करवाया। उस मंदिर पर लगे कर को भरकर मंदिर को अपनी देखरेख में ले लिया।
ट्राम भी लालाओं की देन
दिल्ली में ट्राम चलाने में भी इसी परिवार का योगदान था। इस ट्राम की कंपनी दिल्ली इलेक्टिक ट्रामवेज एंड लाइटनिंग कंपनी का रजिस्ट्रेशन 1908 में लंदन में हुआ था। पहले इसका लाइसेंस भारतीय बिजली एक्ट 1903 के तहत जान फ्लेमिंग कंपनी को दिया गया था। दिल्ली इलेक्टिक ट्रामवेज एंड लाइटनिंग कंपनी का नाम बाद में दिल्ली इलेक्टिक सप्लाई एंड ट्रैक्शन कंपनी रख दिया गया था। दिल्ली में दस मील यानी 16 किलोमीटर का ट्राम सिस्टम ट्रैक 1908 में बिछाया गया था। कंकरीट पर सिंगल लाइन की यह पटरी सब्जी मंडी के बाहरी इलाकों और सदर बाजार तक फैली थी। यह पटरी जामा मस्जिद, चांदनी चौक, चावड़ी बाजार, कटरा बड़िया, लाल कुआं और फतेहपुरी को सब्जी मंडी, सदर बाजार, पहाड़गंज, अजमेरी गेट, बाड़ा हिंदू राव और तीस हजारी से जोड़ती थी। 1921 तक 24 कार थीं जो सर्दी और गर्मी के हिसाब से कन्वर्ट की जा सकती थीं। इस सिस्टम के तीन मुख्य रूट थे और सभी फतेहपुरी जंक्शन पर मिलते थे। बढ़ती आबादी और जगह की कमी के कारण यह सिस्टम 1963 में बंद हो गया था।
अंग्रेजों ने करोल बाग में गुड़वाला रोड का नाम भी रखा
खुशाल राय के पुत्र मथुरा दास और बख्शी राम हुए। बख्शी राम ने अपने भांजे राम दास को गोद लिया था। राम दास के नाम पर अंग्रेजों ने करोल बाग में गुड़वाला रोड का नाम भी रखा था। राम दास गुड़वाले के बेटे कृष्ण दास हुए। राम दास गुड़वाले के नाम पर ही सेठों का यह परिवार गुड़वाला के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इतिहास के जानकार और ब्लागर प्रवीण गुप्ता कहते हैं कि एक वक्तथा जब शाही दरबार की स्थिति ठीक नहीं थी। राम दास बादशाह बहादुर शाह जफर के मित्र थे और उनकी गाहे-ब-गाहे उनकी मदद करते रहते थे। बादशाह ईस्ट इंडिया कंपनी के कुचक्रों से परेशान थे।
कुछ इस तरह बढ़ती चली गई गुड़वाले परिवार की प्रसिद्धि
एक समय था जब यातायात बैल गाड़ी और पशुओं पर निर्भर था। उस समय राहगीरों और पशुओं की सेवा के लिए रास्तों पर जगह-जगह यह परिवार गुड़ और पानी रखता था। धीरे-धीरे इनका नाम गुड़वाले पड़ गया। इस सद कार्य से इन सेठों की प्रसिद्धि बढ़ने लगी और लोग सराहना करने लगे कि जब इंसान को इंसान की नहीं पड़ी, उस दौर में पशुओं का इतना ख्याल रखते हैं। गुड़वाले परिवार का मानना था कि व्यापार से लेकर यातायात में पशुओं पर निर्भर थे और उन पशुओं का ध्यान रखना उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना इंसान का कर्तव्य बनता है।