एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में एम्स के निदेशक रणदीप गुलेरिया ने कहा- होम आइसोलेशन में कोरोना मरीज को रखना खतरनाक
लॉकडाउन से कोरोना के संक्रमण की रफ्तार कम हुई है। इसका ग्राफ नीचे आना चाहिए था लेकिन अभी मामले बढ़ रहे हैं। इसका कारण पहले के मुकाबले अधिक जांच होना है।
नई दिल्ली। कोरोना के मामले बढ़ते जा रहे हैं। जांच व इलाज के दिशा-निर्देशों में भी बार-बार बदलाव हो रहे हैं। जांच समय से नहीं होने की बातें भी सामने आ रही है। ऐसे में कोरोना के बढ़ते मामलों, लॉकडाउन के फायदे, जांच की सुविधाओं, होम आइसोलेशन की व्यवस्था इत्यादि पर एम्स के निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया से रणविजय सिंह ने बातचीत की। पेश हैं प्रमुख अंश :
हाल के दिनों में कोरोना के मामले तेजी से बढ़े हैं, इसे किस रूप में देख रहे हैं?
- लॉकडाउन से कोरोना के संक्रमण की रफ्तार कम हुई है। इसका ग्राफ नीचे आना चाहिए था, लेकिन अभी मामले बढ़ रहे हैं। इसका कारण पहले के मुकाबले अधिक जांच होना है, लेकिन जांच होने वाले सैंपल व उनमें पॉजिटिव पाए जाने वाले मामलों का अनुपात करीब साढे़ चार फीसद ही है। 70 फीसद मामले कुछ हॉटस्पॉट से ही सामने आ रहे हैं। यदि संक्रमण दूसरे इलाके में न बढ़ने दें तो हालात नियंत्रण में रहेंगे और मामले कम होने लगेंगे।
लंबे समय के लॉकडाउन के बावजूद मामले बढ़ रहे हैं, जबकि दूसरे देशों में कम हो रहे हैं, इसका क्या कारण है?-
-बिल्कुल, जहां-जहां भी हॉटस्पॉट हैं, वहां माइक्रो स्तर पर रणनीति बनाकर काम करने की जरूरत है क्योंकि ऐसे इलाकों में ही ज्यादातर मामले बढ़ रहे हैं। यह चिंता का विषय है। यदि उन इलाकों में संक्रमण रोकने के लिए आक्रामक तरीके से अभियान चलाएं तो बीमारी कम हो सकती है।
इन इलाकों में बीमारी की रोकथाम के लिए किस तरह अभियान चलाया जा सकता है?
-यह देखा जा रहा है कि घनी आबादी वाले इलाके हॉटस्पॉट बने हुए हैं। इन इलाकों में घर-घर सर्वे करके संक्रमितों की पहचान हो व उन्हें संस्थागत क्वारंटाइन में रखना होगा, ताकि संक्रमण दूसरों में न फैलने पाए। जैसे चीन ने किया था। इसी तर्ज पर जिस कंटेनमेंट जोन में अधिक मामले आ रहे हैं, वहां से संक्रमितों को निकालकर अलग जगह रखना होगा। यह भी सुनिश्चित करना होगा कि कंटेनमेंट जोन से लोग दूसरे इलाकों में न जाने पाएं क्योंकि वहां से लोग संक्रमण लेकर दूसरे इलाकों में जाएंगे। ऐसे में दूसरी जगह भी हॉटस्पॉट बन जाएगा। कंटेनमेंट जोन को पूरी तरह सील करके रखना होगा। साथ ही जिनमें लक्षण हैं, उन्हें दो सप्ताह के लिए संस्थागत क्वारंटाइन रखें ताकि वे ठीक हो जाएं। दिल्ली में होम आइसोलेशन की सुविधा शुरू कर दी गई है।
सैकड़ों मरीज होम आइसोलेशन में हैं, क्या ऐसी सूरत में संक्रमण बढ़ने का खतरा नहीं है?
-होम आइसोलेशन में दो चीजें जरूरी हैं। एक तो आइसोलेशन में रखे जा रहे लोगों के घरों में इससे जुड़ी सभी सुविधा होनी चाहिए। दूसरी बात यह देखना चाहिए कि उनके घर में कोई बुजुर्ग तो नहीं हैं, जिनके संक्रमित होने पर हालत गंभीर हो सकती है। घर में भी शारीरिक दूरी के नियम का पालन हो। यदि वे ऐसा नहीं कर सकते तो कोविड केयर सेंटर में ही रखना चाहिए, नहीं तो वे घर वालों और आसपास के लोगों को संक्रमित कर सकते हैं। कई लोग ऐसे भी हो सकते हैं। जिनकी उम्र ज्यादा है या जिन्हें मधुमेह, हाइपरटेंशन, अस्थमा जैसी दूसरी बीमारियां हैं, उन्हें संक्रमण होने पर खतरे वाली बात हो सकती है।
आने वाले दिनों में कैसी स्थिति रह सकती है?
-कई विशेषज्ञों ने गणितीय आकलन के आधार पर मॉडलिंग की है। इस आधार पर कई विशेषज्ञों ने आकलन किया है कि थोड़े दिन तक मामले बढ़कर कम हो जाएंगे लेकिन परिस्थितियां बदल चुकी हैं। वहीं कई लोगों ने यह भी आकलन किया है कि जून-जुलाई में मामले बढ़ेंगे। यह सिर्फ सतर्क करने के लिए है, लेकिन मेरा मानना है कि हॉटस्पॉट पर यदि आक्रामक तरीके से काम करेंगे तो मामले कम होने लगेंगे। यह अचानक खत्म नहीं होगा। यह धीरे-धीरे कम हो जाएगा। इसमें लोगों की भागीदारी बहुत जरूरी है। लोगों को जिम्मेदारी समझनी होगी। लॉकडाउन में थोड़ी रियायत मिलने पर लोग भूल जाते हैं कि उन्हें शारीरिक दूरी के नियम का पालन करना है और मास्क पहनना है। लोग भीड़ लगा देते हैं। ऐसी स्थिति में वायरस फैलने लगता है। इसलिए तमाम अनुमानों को ध्यान में रखकर हमें सतर्क रहना चाहिए और किसी तरह की ढील नहीं देनी चाहिए। खास तौर पर हॉटस्पॉट के इलाकों में।
आपको क्या लगता है कि लॉकडाउन का अपेक्षित परिणाम मिल पाया, जिसकी उम्मीद की गई थी?
-लॉकडाउन से फायदा बहुत हुआ है। दूसरे देशों के मुकाबले यहां मामले कम बढ़े। अब तो दूसरे देशों के बराबर जांच भी होने लगी है। दूसरी बात यह कि हमें अस्पतालों में तैयारी के लिए भी वक्त मिला। इससे कोविड अस्पताल, कोविड केयर सेंटर, व अलग आइसीयू तैयार हो सके। वेंटिलेटर व पीपीई (पर्सनल प्रोटेक्शन इक्विपमेंट) किट आने लगे हैं। पीपीई किट पहले बाहर से आते थे। अब तो देश में ही काफी बनने लगा है। इसलिए इसकी कमी नहीं होने वाली। इन छह सप्ताह में अस्पतालों में तैयारी बेहतर हो गई है।
काफी संख्या में स्वास्थ्य कर्मी संक्रमण की चपेट में आ रहे हैं, इस वजह से पीपीई किट की कमी की बात भी डॉक्टर उठा रहे हैं?
-पीपीई किट कई तरह के होते हैं। कोविड आइसीयू में काम करने वाले स्वास्थ्य कर्मियों के लिए लेबल-3 पीपीई किट चाहिए होता है, जो स्पेस सूट की तरह लगता है। जो लोग गैर कोविड एरिया में काम कर रहे हैं, वहां हो सकता है कि एन-95, फेस शील्ड या साधारण मास्क की ही जरूरत हो। जगह के अनुसार पीपीई किट का टाइप भी बदलता रहता है।
जांच को तेज करने और इसे आसान बनाने के लिए क्या प्रयास चल रहे हैं?
-सभी सरकारी व निजी मेडिकल कॉलेजों के लैब में तैयारी की जा रही है, ताकि वहां भी जांच हो सके। इसके अलावा जरूरत पड़ने पर कृषि विश्वविद्यालय व वेटरनरी विश्वविद्यालयों की लैब का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके लिए भी प्रशिक्षण चल रहा है। कई विश्वविद्यालयों में भी ऐसी लैब हैं जहां जांच की जा सकी है। दिल्ली विश्वविद्यालय के साउथ कैंपस व जामिया मिल्लिया इस्लामिया में ऐसी लैब हैं जहां जांच की जा सकती है। इन सबको जोड़कर जांच की क्षमता बढ़ाई जा सकती है।
एम्स में कोरोना के मद्देनजर किस तरह के शोध चल रहे हैं?
-करीब 49 शोध परियोजनाएं शुरू की गई हैं। इसमें हमारा फोकस है कि मरीजों और देश को फायदा हो सके। हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन बचाव व इलाज में कितना प्रभावी है, इस पर भी शोध चल रहा है। इसके अलावा और भी कई नई दवाओं का ट्रायल किया जा रहा है। कोरोना का संक्रमण होने पर साइटोकाइन इन्फ्लेमेशन (सूजन) होती है। उसे कम करने वाली दवाओं का भी ट्रायल हो रहा है।