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Holi 2020: दंगे के दंश की सिहरन और कोरोना का क्यों रोना होली हुलार खूब करो ना

दंगे के दंश की सिहरन अभी खत्म नहीं हुई थी कि कोरोना के खतरे से लोग सहमे हैं। ऐसे में त्योहार भी नजदीक है वो भी होली जैसा पर्व जिसका उत्साह और उमंग पखवारे पूर्व से शुरू हो जाता है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Mon, 09 Mar 2020 03:26 PM (IST)Updated: Mon, 09 Mar 2020 03:26 PM (IST)
Holi 2020: दंगे के दंश की सिहरन और कोरोना का क्यों रोना होली हुलार खूब करो ना

नई दिल्ली, संजीव कुमार मिश्र। यादें खूब ताजगी महसूस करा देती हैं...याद है न किस तरह गलियों में गुलाल लेकर धमाचौकड़ी मचती थी। रिश्तों की कड़वाहट में मिठास घुल जाया करती थी। सारे बैर मिट जाते थे...सब मिलजुल कर होली मनाते थे। वैसे भी इतिहास में होली के जितने आत्मिक किस्से हैं वे जरूर उत्तर-पूर्वी दिल्ली के दंगे के दंश को भाईचारे के रंगों से मिटा देंगे। रंग ही तो हैं, जो चेहरे पर लग जाएं तो क्या गोरा-क्या काला, सभी जाति, धर्म के बीच की दूरियां मिट जाती हैं। होली के उल्लास को नजीर अकबराबादी ने बड़ी संजीदगी से कैद किया और लिखा किजब फागुन रंग झमकते हों, तब देख बहारें होली की जब ढफ के शोर खड़कते हों, तब देख बहारें होली की।।

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होली...होती थी ईद-ए-गुलाबी : मुगल, होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए- पालशी कहते थे। इतिहासकार कहते हैं कि मुगल बादशाह भी होली मनाते थे। अकबर बड़े उत्साह से होली मनाते थे। जिसका वर्णन आइन-ए-अकबरी में भी है। पुस्तक में जिक्र है कि एक माह पहले से ही राजमहल में होली की तैयारियां शुरू हो जाती थीं। जगह-जगह सोने-चांदी के ड्रम रखे जाते, जिनमें होली के दिन रंग घोले जाते थे। ये रंग महल के आसपास स्थित टेसू के फूलों से तैयार किए जाते थे। अकबर की ही तरह जहांगीर, शाहजहां, हुमायूं, बहादुरशाह जफर भी उत्साह से होली मनाते थे।

लालकिले की होली का अलग ही जश्न-ए-अंदाज होता था। उस समय के उर्दू दैनिक ‘असद-उल-अखबार’ के अनुसार, बहादुरशाह जफर होली वाले दिन सवेरे से ही लाल किले के झरोखे में आकर बैठ जाते और होली मनाने वाले समूह, स्वांग रचने वाले और हुड़दंग मचाने वाले टोलियां बनाकर उनके सामने से वैसे ही निकलते थे। बादशाह दिल खोलकर सभी को ईनाम देते थे। जफर तो गुलाल का टीका ही लगवाते थे, पर उनके मंत्री और दरबारी तो गुलाल से सराबोर हो जाते थे। यह भी कहा जाता है कि बहादुर शाह जफर सात कुओं के पानी से नहाकर होली मनाते थे। होली पर बादशाह के कहारों को भी सोने की एक-एक अशर्फी भेंट की जाती

थी। जफर ऐसे शायर थे, जिन्होंने फाग भी लिखा है।? उनके द्वारा लिखित फाग की कुछ चंद पंक्तियां...

क्यों मों पे मारी रंग की पिचकार

देखो कुंवरजी दूंगी मैं गारी

भाज सकों कैसे मोसन भाजा नहीं जात

ठाड़े अब देखों मैं कौन जो दिन रात

शोख रंग ऐसी ढीट लंगर से कौन खेले होरी

मुख बंदे और हाथ मरोरे करके वो

बरजोरी।।

देवी-देवताओं पर सरसों के फूल चढ़ाने की परंपरा : महेश्वर दयाल ‘आलम में इंतखाब-दिल्ली’ में लिखते हैं कि होली से पूर्व वसंत के आगमन पर देवी-देवताओं पर सरसों के फूल चढ़ाना दिल्ली की प्राचीन परंपरा रही है। होली के रसिया पर्व से दो सप्ताह पूर्व ही ढाक और टेसू के फूलों को पानी से भरे मटकों में डालकर चूल्हे पर चढ़ा देते थे, ताकि गेरुआ रंग तैयार किया जा सके। होली के मतवाले, मस्त कलंदर गली-गली, कूचे-कूचे घूमते थे। सारंगी, डफली, चंग, नफीरी, मृदंग, ढमढमी, तंबूरा, मुंहचंग, ढोलक, रबाब, तबला, घुंघरू वाद्य लेकर टोलियों में निकलते और तान लगाते- ‘तेरे भोले ने पी ली भंग, कौन जतन होली खेले’।

इतिहासकार राना सफवी लिखती हैं कि पूरे मुगल सम्राज्य के दौरान होली हमेशा खूब जोर-शोर के साथ मनाई जाती थी। इस दिन दरबार सजाया जाता था। लाल किले में यमुना नदी के तट पर मेला आयोजित किया जाता, एक दूसरे पर रंग लगाया जाता, गीतकार मिलकर सभी का मनोरंजन करते। राजकुमार और राजकुमारियां किले के झरोखों से इसका आनंद लेते। रात के वक्त लाल किले के भीतर दरबार के प्रसिद्ध गीतकारों और नृतकों के साथ होली का जश्न मनाया जाता। नवाब मुहम्मद शाह रंगीला की लाल किले के रंग महल में होली खेलते हुए एक बहुत प्रसिद्ध कलाकृति भी है।

कालकाजी मंदिर में खुसरो ने शुरू किया होली का रिवाज : रंगों पर नहीं चढ़ता कोई महजबी रंग या यूं कहें रंगों का कोई मजहब नहीं होता। तभी तो अमीर खुसरो के होली के कलाम (रंग) हदुस्तानी सभ्यता को बयां करते हैं। मशहूर कव्वाल युसूफ खान निजामी कहते हैं कि, हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर अमीर खुसरों की यह रचना-आज रंग है...बड़े तरन्नुम के साथ गाई जाती है। निजामी कहते हैं कि सूफी संत व सूफीमत दुनिया में भाईचारे का पैगाम देते हैं।

ऐसी मान्यता है कि हजरत निजामुद्दीन औलिया के मुरीद सूफी शायर और संगीतकार हजरत अमीर खुसरो ने दिल्ली के कालकाजी मंदिर से सूफीमत परंपरा में वसंत और होली मनाने का रिवाज शुरू किया। अमीर खुसरो के फारसी और ङ्क्षहदवी के होली के रंगों से संबंधित गीत गाए जाते हैं। अमीर खुसरो अपने अधिकांश होली गीतों में अपने गुरु हजरत निजामुद्दीन औलिया का जिक्र कुछ इस तरह करते हैं...

सीस मुकुट हाथन पिचकारी, मोरे अंगना

होली खेलन आयो।

खेलो रे चिश्तियों होरी खेलो, ख्वाजा

निजाम के देश में आयो।।

हजरत अमीर खुसरो जिस दिन हजरत निजामुद्दीन औलिया के मुरीद बने उस दिन होली का त्योहार था। वे खानकाह से सीधे अपनी मां के पास आशीर्वाद लेने घर पहुंचे। वे गहरे भागवेग में डूबे हुए थे। अपनी प्रिय माता जी के समक्ष जाकर उन्होंने यह रंग गाया...

आज रंग है ए मा रंग है री

मोरे महबूब के घर रंग है री

सजन मिलावरा इस आंगन में

मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया

गंज शकर मोरे संग है री।

ऐसी मान्यता है कि खुसरो ने हालात ए कन्हैया व किसना नाम से श्रीकृष्ण पर हिन्दवी में एक दीवान लिखा। इसमें श्रीकृष्ण की ङ्क्षजदगी और उन पर गीतों के अलावा होली गीत भी हैं।

खुसरो लिखते हैं...

खुसरो रैन सुहाग की सो जागी पी के

संग, तन मोरा मन पीहू का सो दोनों एक ही

रंग।।

ऐसी ही कुछ पंक्तियां है...

धरती अंबर घूम रहे हैं, बरस रहा है रंग।

खेलो चिश्तियों होली खेलो, ख्वाजा

निजामुद्दीन के संग।।

रैनी चढ़ी रसूल की तो सो रंग मौला के

हाथ।

जिनके कपड़े रंग दियो सो धन-धन वा

के भाग।।

गंगा जमुनी तहजीब को अपने आगोश में लिए राजधानी में होली का खुमार हर शासन काल में देखा गया और इस त्योहार को राजाश्रय भी भरपूर मिला। किसी सूफी शायर ने कहा है कि मुझे सूफी साफ बताइए ना छुपाइए, ना छुपाइए कहीं होरी खेली है आपने जो रंगे हुए हो गुलाल में रंगते कितनी चढ़ी, रंग तुम्हारा लेकर

क्या से क्या हो गए हम नाम तुम्हारा लेकर। सूफियों ने रंग के ताल्लुफ से दुनिया को अमनो अमान का पैगाम दिया है। दिल्ली के प्रसिद्ध शायर शेख जहीरुद्दीन

हातिम ने लिखा है-

मुहैया सब है अब असबाब ए होली

उठो यारों भरो रंगों से जाली।

वहीं मीर तकी मीर (1723-1810) ने

लिखा है- होली खेला आसिफ-उद-दौला

वजीर, रंग सोहबत से अजब हैं खुर्द-ओ-

पीर।।

वाजिद अली शाह ने अपनी एक बहुत

प्रसिद्ध ठुमरी में लिखा है...

मोरे कान्हा जो आए पलट के

अबके होली मैं खेलूंगी डट के।।

दिल्ली की हवेलियों में होली के दिन मुशायरा भी होता था। भव्य हवेलियों में पानदान, इत्रदान, मेवे, हुक्के और चांदी के वर्क वाले पान सजाए जाते थे।

हंसी-ठिठोली और पुरानी दिल्ली की होली : पुरानी दिल्ली की गलियों में आज भी होली के किस्से सुनाई देते हैं। अब जबकि होली नजदीक आ गई है तो ये कहानियां फिर उन दिनों का रोमांच पैदा करती हैं, वही हंसी ठिठोली के अवसर देती हैं। ...कैसे होली के दिन बच्चे पीतल, बांस आदि की पिचकारी लेकर घूमते थे। सड़कों के किनारे खड़े रहते थे। राहगीरों को झांसे में फंसाने के लिए कई बार बीच सड़क चांदनी का सिक्का चिपका दिया करते था। जैसे ही राहगीर सिक्का उठाने के लिए रुकता, उसे चारो तरफ से घेरकर रंग लगा दिया करते थे। कई बार तो लड़के तब तक उसका पीछा नहीं छोड़ते थे जब तक कि वो कुछ मिठाई आदि ना खिला दे। इस दिन मुस्लिम महिलाएं, हिन्दू महिलाओं को रंग से भरे मटके और लाल रंग में रंगे हुए चावल भेंट करती थीं। कई ऐसे भी लड़के होते जो आलू व लकड़ी पर गधा, 420 या चोर आदि उलटा लिखकर लोगों की पीठ पर छापते थे। जिसे पढ़कर लोग खूब ठहाका लगाते थे।


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