शौर्य गाथाः भाई के बलिदान होने के बाद भी पाकिस्तानी बंकरों पर बरसाते रहे हथगोले
श्रीचंद के अनुसार इसके बाद उन्होंने पाकिस्तानी बंकरों पर जमकर हथगोले फेंके। हथगोले फटने से पाकिस्तानी सैनिकों के मरने की आवाज सुनाई देती थी। श्रीचंद के सिर कंधे में भी गोली लगी। नजदीक ही हथगोला फटने से पैरों में भी घाव हो गए।
फरीदाबाद (बल्लभगढ़) [सुभाष डागर]। यह शौर्य गाथा है वर्ष 1965 के युद्ध में लड़ते-लड़ते पाकिस्तान के सियालकोट तक पहुंच जाने वाले गांव सागरपुर के सूरमा भाइयों चंदीराम शर्मा व श्रीचंद शर्मा की। बड़े भाई चंदीराम शर्मा तो दुश्मनों की गोली सीने पर खाकर मातृभूमि की रक्षा की खातिर शहीद हो गए, वहीं छोटे भाई श्रीचंद शर्मा विरोधियों के बंकरों पर हथगोले बरसाते रहे। ऐसे सूरमाओं के जज्बे को सलाम करते हैं।
शौर्य गाथा
श्रीचंद शर्मा बताते हैं कि आठ सितंबर-1965 को महाराष्ट्र के सागर क्षेत्र में तैनात थे। तभी आदेश मिला कि तुरंत ट्रेन में बैठो। आदेश के बाद विशेष ट्रेन में बैठ कर पठानकोट पंजाब पहुंचे। तब तक पाकिस्तान के विमान पठानकोट पर बम गिरा चुके थे। यहां से सेना की गाड़ियों ने उन्हें पाकिस्तान बार्डर पर छोड़ दिया। बार्डर से पैदल-पैदल पाकिस्तान की सांभा नदी पर पहुंच गए। यहां पर सियालकोट सेक्टर था और दोनों तरफ से जमकर गोलियां चली। छम जोरिया इलाके में पाकिस्तान के टैंक खड़े हुए थे। यहां पर हमारी रेजीमेंट ने हथगोला फेंके।
पाकिस्तान के चालक टैंकों को छोड़ कर भाग गए। टैंकों पर हमारा कब्जा हो गया और पाकिस्तान के अल्हड़ रेलवे स्टेशन पर कब्जा कर लिया। यहां से आगे बड़े लाल ईंटों से बनी हुई सड़क थी। रात को हम दोनों भाइयों को अन्य सैनिकों के साथ कपास के खेतों में रहना पड़ा।
19 सितंबर की रात थी, तभी पाकिस्तानी सेना की गोली लगने से श्याम लाल सैनिक जो कुश्ती के कोच भी थे और सूबेदार शंभूशरण गोली लगने से घायल हो गए। शंभूशरण भाई चंदीराम के दोस्त थे। चंदीराम उन्हें देखने के लिए पास पहुंचे। जैसे ही वे बंकर से ऊपर उठे, तो पाकिस्तानी सेना की गोली लगने से शंभूशरण शहीद हो गए।
श्रीचंद के अनुसार इसके बाद उन्होंने पाकिस्तानी बंकरों पर जमकर हथगोले फेंके। हथगोले फटने से पाकिस्तानी सैनिकों के मरने की आवाज सुनाई देती थी। श्रीचंद के सिर, कंधे में भी गोली लगी। नजदीक ही हथगोला फटने से पैरों में भी घाव हो गए। घायल श्रीचंद को पठानकोट अस्पताल पहुंचाया गया, पर वहां पर जगह नहीं थी, वहां से फिर अंबाला भेजे गए, लेकिन यहां पर भी अस्पताल में जगह नहीं थी। फिर उन्हें सीधे आगरा अस्पताल भेजा गया।
20 सितंबर को ही सीजफायर हो गया। आगरा अस्पताल में एक महीने में उनके पैरों के घाव ठीक हो गए। फिर उन्हें रेजीमेंट के फतेहगढ़ सेंटर भेज दिया गया। पूरी तरह से ठीक होकर श्रीचंद फिर सियालकोट पहुंचे, तब तक ये भाग भारतीय सेना के कब्जे में था। यहां पर बताया गया कि उनके भाई चंदीराम ने बलिदान दे दिया है। फिर पता चला कि भाई को यहां पर दफना दिया गया है। उन्होंने इसके बारे में सूबेदार तुहीराम को बताया, तो उन्होंने कंपनी से भाई के अंतिम संस्कार की मंजूरी ले ली। फिर भाई का अंतिम संस्कार किया। मरणोपरांत होने वाले संस्कारों को पूरा करने के लिए दस दिन की छुट्टी मिली, जिस पर भाई की अस्थियों को हरिद्वार जाकर गंगा में विसर्जित किया।