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बेटी हूं, कुछ भी कर सकती हूं! अपनी काबिलियत के बल पर कई क्षेत्रों में बनाई नई पहचान

देश की बेटियां किसी से कम नहीं हैं जब चाहा साबित कर दिखा दिया। गर खोल दिए गए बंधन इनके तो हर मंजिल पाकर इन्होंने अपने हौसले को बता दिया। स्वाधीनता के 75वें वर्ष देश गर्व करता है अपनी इन बेटियों पर जिनकी शक्ति से इसने अपार उन्नति की है।

By Yasha MathurEdited By: Mangal YadavPublished: Thu, 20 Jan 2022 03:22 PM (IST)Updated: Thu, 20 Jan 2022 05:25 PM (IST)
बेटी हूं, कुछ भी कर सकती हूं! अपनी काबिलियत के बल पर कई क्षेत्रों में बनाई नई पहचान
बेटी हूं, कुछ भी कर सकती हूं, अपनी काबिलियत के बल पर बनाई नई पहचान

नई दिल्ली [यशा माथुर]। इस साल गणतंत्र दिवस की परेड में जब सीमा सुरक्षा बल की महिला टुकड़ी 'सीमा भवानी' की जांबाज बाइक चालक लड़कियां रायल एनफील्ड मोटरसाइकिल पर सवार होकर अपने शानदार करतब दिखाएगी तो देखने वाले अपनी बेटियों के दमखम को सलाम करेंगे। इनके एक से बढ़कर एक स्टंट दिखाई देंगे। इतना ही नहीं, भारत की सैन्य शक्ति में महिला शक्ति का प्रदर्शन बेटियों की सफलता के बारे में बढ़-चढ़ कर बोलेगा। देश की पहली आल-वुमन स्टंट टीम है सीमा भवानी और इसने अपने करतबों से सभी का दिल जीता है। यह बीएसएफ की तरफ से देश की पहली आल-वुमन बाइकर टीम है।

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अपनी जिद से फौज में आईं

इस देश की एक बेटी हैं माधुरी कानिटकर। उन पर पूरा देश गर्व कर सकता है। वह भारतीय सशस्त्रबलों में लेफ्टिनेंट जनरल के पद पर पहुंचने वाली तीसरी महिला और पहली बाल रोग विशेषज्ञ बनीं। आज वे फौज से रिटायर होकर महाराष्ट्र यूनिवर्सिटी आफ हेल्थ साइंसेज, नासिक की वाइस चांसलर हैं। उन्हें जिद थी फौज में जाने की। जब अपने पापा से उन्होंने जिद की कि मुझे फौज में ही जाना है तो घर में इसका विरोध हुआ। उन्होंने कहा कि मेरा इरादा पक्का है और मुझे फौज में ही जाना है और सशस्त्र बल मेडिकल कालेज (एएफएमसी) ज्वाइन कर लिया। कहती हैं माधुरी, 'मुझे बचपन में सेना के बारे में ज्यादा पता नहीं था क्योंकि पिता रेलवे में थे और दादी डाक्टर थीं। लेकिन जब बारहवीं में थी तब पुणे के हास्टल में मेरी एक दोस्त थी, जिसके पिता वायुसेना में थे। वह हमें एक दिन एएफएमसी दिखाने ले गए। जब मैंने वहां सभी को यूनिफार्म में देखा तो मुझे बहुत अच्छा लगा। तब मुझे लगा कि मुझे यहीं आना है।

हमारे बैच में पासिंग आउट परेड में शामिल महिलाओं ने साड़ी में मार्च किया था। इसी प्रकार अंजना भादुरिया भारतीय सेना में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली महिला हैं। वह भी हमेशा से भारतीय सेना में अधिकारी बनना चाहती थीं। 1992 में भारतीय सेना में महिला कैडेट्स के पहले बैच को स्वीकार किया गया, जिसका अंजना हिस्सा बनीं। वह एक ऐसे बैच का हिस्सा थीं, जिसमें पुरुष और महिला दोनों थे। प्रिया सेमवाल के पति सेना में थे। एक आपरेशन में उन्होंने पति अमित शर्मा को खो दिया। वह देश के सैन्य अधिकारी की पत्नी के तौर पर सेना में बतौर अधिकारी सेवा देने वाली पहली महिला हैं। उन्हें कोर आफ इलेक्ट्रिकल एंड मैकेनिकल इंजीनियरिंग(आर्मी)में शामिल किया गया।

खेल बने जीवन की ताकत

एक बेटी ऐसी भी है जिसने अपनी कमियों को ही अपनी ताकत बना लिया। 24 वर्षीया मंदाकिनी मांझी के पिता किसान हैं। ओडिशा के बेहद पिछड़े सुदूर इलाके लुधियापाड़ा से आती हैं मंदाकिनी मांझी। तीन बहनों से सबसे बड़ी हैं। सातवीं कक्षा में थीं, भुवनेश्वर स्थित 'किस' शिक्षा संस्थान में दाखिला हुआ। गौरतलब है कि इस संस्थान में आदिवासी व आर्थिक रूप से कमजोर छात्रों को निश्शुल्क शिक्षा मिलती है। मंदाकिनी ने जब संस्थान में कदम रखा तो उन्हें पता चला कि उन्हें पढ़ाई के साथ-साथ खेलने का भी अवसर मिलेगा। उन्हें क्रिकेट खेलना बहुत पसंद था लेकिन उन्हें 'किस' में आकर खो-खो के बारे में पता चला। जब वे खेलने लगीं तो न केवल टीम को एक के बाद एक जीत मिलने लगी, बल्कि कोच भी काफी खुश हुए।

आखिरकार उन्हें उनके छोटे कद के कारण क्रिकेट से बेहतर खो-खो टीम के लिए उपयुक्त माना गया। धीरे-धीरे वह ओडिशा में अंतरराज्यीय प्रतियोगिताओं में भाग लेने लगीं और पदक इकट्ठा होने लगे। पर जब देश के लिए खेलने का सपना पूरा हुआ तो उस दिन को याद करके मंदाकिनी आज भी भावुक हो जाती हैं। कहती हैं, 'लक्ष्य को पाने तक रुकना नहीं मुझे। राह में दिक्कतें आती रहती हैं लेकिन हौसला नहीं खोना, यही सीखा है अपने बड़ों से। इन दिनों पढ़ाई भी साथ-साथ कर रही हूं ताकि यह कमी भी न रहे।

पंजाब के चंडीगढ़ की रहने वाली रमनजोत कौर ने यूरोप की सबसे ऊंची चोटी माउंट एल्ब्रस पर सूर्य नमस्कार करके एक तरह का रिकार्ड बनाया। इस छात्रा ने पर्वतारोहण अभियान के दौरान इस चोटी पर चढ़कर पर सूर्य नमस्कार किया था, जिसे खूब पसंद किया गया था। टोक्यो पैरालिंपिक में भारत की शूटर 19 वर्षीया अवनी लेखरा ने इतिहास रचा। उन्होंने 10 मीटर एयर राइफल शूटिंग में स्वर्ण पदक अपने नाम किया। 11 साल की उम्र में एक हादसे का शिकार हुईं अवनी इससे पहले भी साल 2016 में हुए रियो ओलिंपिक में भी अपना परचम लहरा चुकी हैं।

लाइनवुमेन और बुर्का राइडर भी

'रहमत खुद उतरती है आसमानों से, यकीं नहीं तो घर में बेटियों को ही देख लो।' आज तक आपने देश में लाइनमैन ही सुने होंगे। लेकिन तेलंगाना की सिरिशा ने देश की पहली महिला लाइनवुमेन बनने का गौरव प्राप्त किया है। सिर्फ एक मिनट में वह बिजली के खंभे पर चढ़ती हैं और खराबी ठीक कर देती हैं। जब लाइनमैन की भर्ती के लिए उन्होंने आवेदन देखा तो उसमें महिलाओं के लिए वर्जित लिखा था। लेकिन उन्होंने इस बात का विरोध किया, लड़ाई लड़ी और अतंत: जीत हासिल की। सिरिशा मानती हैं कि जो काम लड़के करते हैं उन्हें लड़कियां भी कर सकती हैं। इसे साबित करने के लिए वह मेहनत भी कर रही हैं।

लखनऊ की आयशा अमीन बुर्का पहनकर बाइक चलाती हैं। पिता ने बुर्का पहनकर अपना पैशन पूरा करने की शर्त रखी तो आयशा ने मान लिया। लोग उन्हें बुर्का राइडर कहते हैं। जब वह बुर्का पहनकर बुलेट 350 जैसी भारी बाइक से लेकर सुपर बाइक तक चलाती हैं तो संदेश देती हैं कि बुर्का आपकी मंजिल में बाधा नहीं बन सकता। आयशा निर्भीक होकर बाइक राइड के समय बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, कन्या भ्रूण हत्या जैसे सामाजिक मुद्दों पर संदेश देती हैं। जिस समाज ने उनके बाइक चलाने पर कभी ढेरों सवाल किए थे, वही समाज अब उन्हें समर्थन देने लगा है। बचपन का बाइक का शौक अब जूनून बन गया है। उन्होंने हिम्मत और हौसले का एक नया उदाहरण दिया है।

समाज की वास्तुकार बेटियां

सच तो यह है कि समाज की वास्तविक वास्तुकार बेटियां ही हैं। अब हरियाणा के करनाल की युवा समाजसेवी संजोली बनर्जी को ही लें। उन्होंने अपना जीवन सामाजिक सरोकार के प्रति समर्पित कर दिया है। आस्ट्रेलिया में पढ़ाई के साथ वह वालंटियरिंग भी करती थीं। लेकिन अपने देश की समस्याओं ने उन्हें कहीं अधिक विचलित किया और वह वापस लौट आईं। संजोली कहती हैं,'मेरी जरूरत यहां अधिक थी। जब आपके अंदर एक जुनून पैदा हो जाता है तो निर्णय लेना कठिन नहीं लगता। लोग कहते हैं कि युवा भविष्य के नेतृत्वकर्ता हैं। पर मैं मानती हूं कि वर्तमान में भी वे उतने ही प्रभावशाली हो सकते हैं। मेरे पास भी जीवन का एक उद्देश्य है, गरीब एवं जरूरतमंद बच्चों को साक्षर एवं जिम्मेदार नागरिक बनाने का। समाज का नई दिशा दे रही बेटियों की संख्या को शायद गिन पाना नामुमकिन है।

सेना में गर्व के साथ करें काम

लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड) व पूर्व डिप्टी चीफ आफ द इंटिग्रेटेड डिफेंस स्टाफ माधुरी कानिटकर ने कहा कि उस समय सिर्फ मेडिकल कोर में लड़कियां होती थीं और वे भी कम। हमारे बैच में तकरीबन बीस लड़कियां थीं। जब समाज और फौज ने तरक्की की तो सिर्फ अस्पतालों तक सीमित रहने वाली महिलाओं को फील्ड पोस्टिंग मिलने लगी। हमारे बैच को पासिंगआउट परेड के बाद फील्ड पोस्टिंग मिली। जब मैं पहली बार फील्ड अस्पताल में पहुंची तो सब हैरानी से देखने लगे कि यह महिला अधिकारी कहां रहेंगी। मुझसे कहा गया कि आप हेडक्वार्टर के मेस में ठहरिए। हम तो टेंट में रहते हैं। मैंने कहा कि मैं यहां आई हूं, यहीं रहूंगी। वहां मुझे फिर जिद करनी पड़ी। मैं वहीं रही और वहां से सीखने की शुरुआत हुई। मेरे जवान भाइयों और सहयोगियों ने काफी इज्जत दी। मैं उनके साथ दौड़ती, खेलती। इससे मेरा अपनी काबिलियत पर भी भरोसा बना। सेना में जो महिलाएं हैं वह पहले से ही सशक्त हैं। हम जैसी सशक्त महिलाएं अगर अन्य महिलाओं के सामने आकर बात करें तो उन्हें बहुत प्रेरणा मिलेगी। हर लड़की एक सपना देख सकती है। इसमें जेंडर नहीं आना चाहिए। मैं लड़कियों को कहूंगी कि सेना सुरक्षित जगह है जहां पर वे गर्व के साथ काम कर सकती हैं।

लड़कियां बढ़ती हैं आगे, तो संतोष मिलता हैं

करनाल के समाजसेवी संजोली बनर्जी ने बताया कि साढ़े चार वर्ष की आयु में पहली बार सामाजिक कार्य का बीज मेरे मन में पड़ा, जब मेरी छोटी बहन अनन्या के जन्म से पहले ही उससे छुटकारा पाने का निर्णय परिवार में लिया गया। हालांकि, आखिरी क्षणों में मां-पापा ने हिम्मत दिखाई और आज वह हमारे साथ है। पर यह खुशकिस्मती कितनी लड़कियों को मिल पाती होगी? इसलिए पांच वर्ष की आयु में ही मैंने पहली बार कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ आवाज उठाई थी। दस वर्ष की हुई तो 'बेटी बचाओ, पृथ्वी बचाओ के नारे के साथ करीब 4500 किलोमीटर की सड़क यात्रा की। 2015 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को कन्या भ्रूण हत्या अथवा महिला थाने की जरूरत को लेकर पत्र भी लिखा था। आज जब बच्चों, खासकर लड़कियों को आगे बढ़ते देखती हूं, तो एक संतुष्टि मिलती है। मुझे इंतजार है उस दिन का जब मेरी 'सारथी संस्था एवं निश्शुल्क मोबाइल स्कूल 'सुशिक्षा' का बच्चा राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय सम्मान प्राप्त करेगा।

मुश्किलों ने बढ़ाया आत्मविश्वास

ओडिशा की खो-खो टीम की कप्तान मंदाकिनी मांझी ने कहा कि मुझे याद है वह दिन जब 2016 में साउथ एशियन गेम्स में खो-खो को शामिल किया गया। मैं भारतीय टीम में ओडिशा की पहली लड़की भी थी। कुछ समय तक तो यकीन ही नहीं हुआ कि छोटी-सी जगह से आने वाली एक आम लड़की अपने देश का प्रतिनिधित्व कर रही है। जब स्वर्ण पदक मिला तो मुझे खुद पर गर्व हो रहा था। आज उसी आत्मविश्वास की देन है कि मैं ओडिशा राज्य के खो-खो टीम की कप्तान हूं और भावी खिलाड़ियों को भी प्रशिक्षित कर रही हूं। इस ऊंचाई तक पहुंचना इतना आसान नहीं था। आर्थिक कमी आड़े आती रहती और अक्सर लगता रहता था कि मेरा कद छोटा है। यह हीन भावना मेरे प्रदर्शन पर गहरा असर डालती। हालांकि इससे कुछ बुरा नहीं हुआ लेकिन यह मेरे भीतर का शत्रु था जिससे मुझे भरपूर लड़ाई करनी पड़ती थी। जूनियर खिलाड़ी जब कहते हैं कि दीदी, हमें आपकी तरह बनना है तो खुद पर यकीन और पक्का होता जाता है।

इनपुट: सीमा झा व अंशु सिंह


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