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10 साल तक सीएम रहा यह दिग्गज भी हारा चुनाव, ससुराल ने भी नहीं दिया साथ

पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा की लहर के बावजूद हुड्डा अपने समर्थक पांचों विधायकों को जिताने में कामयाब रहे थे लेकिन लोकसभा चुनाव में जब वे खुद प्रत्याशी बने तो यह किला ढह गया।

By Edited By: Published: Fri, 24 May 2019 06:49 PM (IST)Updated: Sun, 26 May 2019 08:30 AM (IST)
10 साल तक सीएम रहा यह दिग्गज भी हारा चुनाव, ससुराल ने भी नहीं दिया साथ
10 साल तक सीएम रहा यह दिग्गज भी हारा चुनाव, ससुराल ने भी नहीं दिया साथ

सोनीपत [संजय निधि़]। सोनीपत जाटलैंड का महत्वपूर्ण जिला सोनीपत को पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र ¨सह हुड्डा का गढ़ कहा जाता है। जिले के छह विधानसभा सीटों में पांच पर उनके समर्थक विधायकों का कब्जा है। पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा की लहर के बावजूद हुड्डा अपने समर्थक पांचों विधायकों को जिताने में कामयाब रहे थे, लेकिन लोकसभा चुनाव में जब वे खुद प्रत्याशी बने तो उनका यह किला ढह गया। उनके समर्थक विधायक भी बस हाथ मलते रह गए।

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प्रदेश में 10 साल तक मुख्यमंत्री रहने के दौरान भूपेंद्र सिंह हुड्डा का जाटलैंड रोहतक, सोनीपत और बहादुरगढ़ में खास प्रभाव माना जा रहा था। इसमें भी रोहतक और सोनीपत में उनका प्रभाव ज्यादा ही रहा था। यह उनके प्रभाव का ही नतीजा था कि वर्ष 2014 में हुए विधानसभा चुनाव में एंटी इंकंबेंसी और मोदी लहर के बावजूद सोनीपत के पांच विधानसभा क्षेत्र गन्नौर, राई, खरखौदा, गोहाना और बरोदा में उनके समर्थक प्रत्याशी को जीत मिली थी।

सोनीपत में जाट बिरादरी के मतदाताओं की संख्या रोहतक के बाद सबसे अधिक होने के कारण भी यहां हुड्डा का खास प्रभाव रहा है। इसी को लेकर नामांकन दाखिल करने के बाद से ही उनकी जीत यहां से तय मानी जा रही थी, लेकिन जैसे-जैसे चुनाव आगे बढ़ते गये, सारे समीकरण उलट होते चले गए। भाजपा प्रत्याशी को उनके मुकाबले कमजोर माना जा रहा था, इसलिए भाजपा नेताओं ने बड़ा दांव खेलते हुए अपने प्रचार अभियान के दौरान प्रत्याशी का चेहरा हटाकर केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा सामने कर दिया। इसके बाद यहां का चुनाव सीधे-सीधे हुड्डा बनाम मोदी हो गया था।

दूसरी ओर, अपने प्रचार अभियान के दौरान हुड्डा चौधर की बात करते रहे। इसका गलत अर्थ निकाला गया और इससे एक बड़ा तबका उनसे दूर होकर भाजपा के साथ जुड़ता चला गया। चुनाव प्रचार के अंतिम दिन गोहाना में हुई हुड्डा की रैली ने भी इस चुनाव को जाट-गैर जाट में बांट दिया और इसका लाभ भाजपा को मिला।

विधायकों का अति आत्मविश्वास ले डूबा
कांग्रेस समर्थकों के साथ-साथ पांचों विधायक भी भूपेंद्र ¨सह हुड्डा की जीत के प्रति इतने आश्वस्त थे कि उन्होंने भी बूथ प्रबंधन पर कोई ध्यान नहीं दिया। कांग्रेस में संगठन तो पहले से ही नहीं था, इसलिए प्रत्याशी के नाम की घोषणा से पहले क्षेत्र में कहीं भी कांग्रेसी नहीं दिखे और अंतिम समय में जब हुड्डा का नाम तय हुआ तो उनके समर्थकों सहित पांचों विधायक जीत को लेकर अति आत्मविश्वास से लबरेज हो गए।

गन्नौर के विधायक कुलदीप शर्मा तो खुद करनाल से प्रत्याशी थे और वे अपने चुनाव में व्यस्त थे। इसके अलावा अन्य विधायक भी तब ही ज्यादा सक्रिय होते जब भूपेंद्र हुड्डा उनके क्षेत्र आते। अपने-अपने क्षेत्र में कार्यकर्ताओं और बूथ स्तर पर चुनाव जीतने के लिए जो प्रबंध और जितनी मेहनत उन्हें करनी चाहिए, वह नहीं कर पाए। हालांकि इसके पीछे समय की कमी भी एक कारण हो सकता है।

ससुराल ने भी नहीं दिया साथ
भूपेंद्र सिंह हुड्डा की ससुराल खरखौदा विस क्षेत्र के गांव म¨टडू में है। उन्हें खरखौदा का बटेऊ (दामाद) कहा जाता है, लेकिन इस चुनाव वहां से भी उन्हें अपेक्षा के अनुरूप वोट नहीं मिले। खरखौदा विस क्षेत्र से उन्हें भाजपा प्रत्याशी से महज 7317 वोटों की मामूली बढ़त मिली, जबकि पिछले लोकसभा चुनाव में हुड्डा के समर्थक कांग्रेस प्रत्याशी जगबीर मलिक को इससे ज्यादा करीब साढ़े आठ हजार वोटों की लीड मिली थी। यही नहीं कांग्रेस व हुड्डा के खास प्रभाव वाले बरोदा विधानसभा क्षेत्र में भी पिछले चुनाव के मुकाबले कांग्रेस की बढ़त कम रही। यहां भी कांग्रेस के श्रीकृष्ण हुड्डा विधायक हैं।

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