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DU News: डूटा के पूर्व अध्यक्ष एनके कक्कड़ ने साझा की पुरानी यादें, बताया- 1965 में आगरा से दिल्ली आया और यहीं का होकर रह गया

दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ (डूटा) के पूर्व अध्यक्ष एनके कक्कड़ का जन्म 1941 में पाकिस्तान के डेरा गाजी खान में हुआ था। वर्ष 1946 में वह आगरा आ गए थे वहीं से पढ़ाई की। इसके बाद 1965 से 2003 तक दिल्ली वि. के रामजस कालेज में पढ़ाया।

By Vinay Kumar TiwariEdited By: Published: Fri, 24 Jun 2022 06:24 PM (IST)Updated: Sat, 25 Jun 2022 10:19 AM (IST)
DU News: डूटा के पूर्व अध्यक्ष एनके कक्कड़ ने साझा की पुरानी यादें, बताया- 1965 में आगरा से दिल्ली आया और यहीं का होकर रह गया
रोमांचक होता था डीयू का चुनाव, अपनी अलग है पहचान।

नई दिल्ली [रितू राणा]। आगरा से दिल्ली आना मेरे लिए बहुत मुश्किल था, लेकिन यहां आकर दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कालेज में पढ़ाने का मौका मिला, जोकि मेरी खुशकिस्मती थी। कभी सोचा नहीं था यहां पढ़ाने का मौका मिलेगा और 1965 में दिल्ली आए तो यहीं के हो गए। अब तो ऐसा लगता है कि मैं कहीं बाहर से नहीं आया बल्कि यहीं का हूं। मुझे दिल्ली वि. और यहां के शिक्षकों ने बहुत प्यार दिय।

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मुझे याद है 1973 में जब डूटा का पहला चुनाव लड़ा, तब ओपी कोहली अध्यक्ष थे और मैं उनकी टीम में था। जीतने के बाद उन्होंने मुझे कोषाध्यक्ष बनाया। 1975 में आपातकाल लग गया, तो हम सभी बिखर गए थे। इसके बाद फिर से 1979 में एक हुए। फिर तो मैंने लगातार डूटा के चुनाव लड़े और लगातार जीता। 1983 से 85 और 85 से 87 तक दो बार अकादमिक काउंसिल का चुनाव लड़ा और 1989 में एग्जीक्यूटिव काउंसिल का चुनाव लड़ा, सभी में जीता।

1991 में डूटा अध्यक्ष और एग्जीक्यूटिव काउंसिल का सदस्य था, इसका कारण यह था कि उन दिनों अकादमिक काउंसिल में 20 सदस्य होते थे, फिर हमारे समय यह संख्या बढ़ाकर 26 की गई और यह बड़ा बदलाव आया, इसी प्रक्रिया को पूरा करने के चलते एक वर्ष के लिए एग्जीक्यूटिव काउंसिल के चुनाव टल गए थे, तो मैं दोनों पदों पर रहा था।

चार हजार शिक्षकों को मिली थी रीडरशिप :

1991 में नेशनल डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट (एनडीटीएफ) से डूटा अध्यक्ष का पहला चुनाव पूर्व विधायक किरण वालिया के खिलाफ लड़ा था। वो ऐसी उम्मीदवार थीं, जिनके खिलाफ कोई लडऩा नहीं चाहता था, लेकिन मुझे बोला गया तो मैंने पूरी मेहनत से चुनाव लड़ा। यह बहुत मुश्किल चुनाव था क्योंकि किरण वालिया का तब बहुत नाम हुआ करता था, मेरी खुशकिस्मती थी कि मैं जीता। 1991 जैसा माहौल तो आर्ट्स फैकल्टी में आज तक नहीं बना, चुनाव जीतने के बाद फैकल्टी में इतने शिक्षक इकट्ठे हो गए थे, पैर रखने को भी जगह नहीं थी।

इसके बाद 1993 वाला चुनाव तो बहुत आसान था, शिक्षकों ने खूब साथ दिया। मैंने दो बार चुनाव जीता क्योंकि मैं शिक्षकों की बातें सुनता था और उनके साथ खड़ा रहता था। हमारे समय में कालेजों में कोई रीडर नहीं था, सब लेक्चरार थे। तब लेक्चरर इन रीडर ग्रेड (लिर्ग) पद होता था, लेकिन कोई रीडर नहीं था। तब डीयू में प्रोफेसर बख्शी वीसी थे, उनके साथ मिलकर हमने करीब चार हजार शिक्षकों को रीडरशिप दिलाने का कार्य शुरू किया।

दिल्ली वि का कैंपस और कनाट प्लेस थे दिल के करीब जब

आगरा से यहां आया, तब मेरे लिए बिलकुल नया शहर था, लेकिन इसने इस तरह अपना बना लिया कि फिर कुछ जुदा नहीं लगा। मुझे दिल्ली में जो जगहों पर ही सुकून मिलता था, एक दिल्ली वि का कैंपस और कालेज और दूसरा कनाट प्लेस। श्रीराम कालेज, किरोड़ीमल कालेज और हिंदू कालेज में मेरे दोस्त थे, तो तीन तीनों कालेजों में खूब जाता था।

वहां की लाइब्रेरी और कैंटीन में बैठकर पढ़ाई और कैंपस की गतिविधियों पर खूब चर्चा होती थी। कालेज के बाद वहां दोस्तों के साथ बैठे समय गुजर जाता था, पता ही नहीं चलता था।


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