Move to Jagran APP

दिल्ली के स्कूलों में नामांकन के समय खास मामलों में बच्चे के पिता का नाम जरूरी नहीं

केवल माताओं के सहारे पल रहे बच्चों की स्कूलों में नामांकन की प्रक्रिया आसान बनाने के लिए दिल्ली सरकार ने स्कूलों को जो निर्देश जारी दिया है वह व्यावहारिक और सराहनीय है। ऐसा करने से ही कोई भी सामाजिक सुधार प्रभावी और चिरस्थायी हो सकेगा।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Thu, 26 Aug 2021 12:18 PM (IST)Updated: Thu, 26 Aug 2021 12:18 PM (IST)
दिल्ली के स्कूलों में नामांकन के समय खास मामलों में बच्चे के पिता का नाम जरूरी नहीं
दिल्ली के स्कूलों में नामांकन के समय खास मामलों में बच्चे के पिता का नाम जरूरी नहीं। प्रतीकात्मक

संदीप भूतोड़िया। हमारे देश में स्कूलों में नामांकन एक कठिन प्रक्रिया है। उसमें भी विधवा, तलाकशुदा या केवल माताओं के सहारे पलने वाले बच्चे को स्कूल में दाखिल कराते वक्त कई तरह की अड़चनों का सामना करना पड़ता है। अगर ऐसी महिलाएं खुद को सिंगल पैरेंट घोषित करती हैं तो ज्यादातर स्कूल बच्चे को दाखिला देने से इन्कार कर देते हैं। कई बार वे इसके पीछे नियमों-कानूनों की बात उठाते हैं या फिर स्कूल की कथित प्रतिष्ठा या दूसरे अभिभावकों के विरोध की आड़ लेते हैं। अगर मां खुद को सिंगल पैरेंट के तौर पर नहीं दिखाती तो स्कूल प्रबंधन यह अपेक्षा करता है कि पिता से संबंधित दस्तावेज भी दिए जाएं। कई स्कूल तो दाखिले की प्रक्रिया के दौरान पिता की मौजूदगी को भी आवश्यक बताते हैं।

loksabha election banner

देश में शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बावजूद यह स्थिति है, जबकि सुप्रीम कोर्ट का 2015 का एक ऐतिहासिक फैसला कहता है कि एकल अविवाहित माता भी बच्चे की कानूनी अभिभावक हो सकती है और इसके लिए उसके पुरुष साथी की सहमति आवश्यक नहीं है। अदालत ने बच्चे की सुरक्षा व विकास को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना और कहा कि एक ऐसे व्यक्ति जिसने अपने बच्चे को छोड़ दिया और अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ लिया, उससे उसकी सहमति पूछे जाने की जरूरत नहीं है। अदालत ने यह भी कहा कि महिला से बच्चे के पिता का नाम जानने के लिए जोर देना एक लोकतांत्रिक देश में उसके अधिकारों का हनन है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ही एक पूर्व फैसले को बदल दिया, जिसमें माता को विवाह से उपजी संतान का एकल अभिभावक बनने के लिए पिता की सहमति की जरूरत होती थी।

कहा जाता है कि ‘दिल्ली जो आज करता है, शेष भारत उसे बाद में अपना लेता है!’ कम से कम इस मामले में तो ऐसा कहा ही जाना चाहिए। दरअसल यहां बात स्कूल में नामांकन के लिए सिंगल पैरेंट के हित में बीते दिनों आए एक सरकारी परिपत्र की बात हो रही है जिसमें स्कूलों को निर्देश दिया गया कि वे किसी भी छात्र को आवेदन में ‘माता या पिता’ के ब्यौरे के आधार पर दाखिले के लिए इन्कार न करें। दिल्ली में यह निर्देश शिक्षा निदेशालय के तहत आने वाले सभी सरकारी, सरकारी सहायता प्राप्त, निजी मान्यता प्राप्त स्कूलों पर लागू होगा। देखा जाए तो यह अनुकरणीय दिशानिर्देश है, जिसके दूरगामी असर होंगे।

भारत पुरुष प्रधान समाज है और यहां एकल माता का जीवन आसान नहीं है। आरटीई यानी राइट टू एजुकेशन के तहत बच्चा दाखिले के लिए योग्य है या नहीं, यह तय करते समय माता के दस्तावेजों को स्वीकार करना कई स्कूलों के लिए मुश्किल था। इसके पीछे सामाजिक सोच के अलावा अभिभावकत्व को लेकर मूल कानून भी जिम्मेदार था, जिसके मुताबिक पिता ही पांच वर्ष की उम्र से अधिक बच्चे का स्वाभाविक अभिभावक होता है। महिला के पास बच्चे पर कोई विशेष अधिकार नहीं होता और न ही कोई स्वाधीन कानूनी दर्जा।

भारत में बच्चों को गोद लेने के मामले में भारत सरकार के महिला व बाल कल्याण मंत्रलय के अधीन सीएआरए सानी द सेंट्रल अडाप्शन रिसोर्स एजेंसी की भूमिका खास है। उसे गोद लिए जाने के मामलों की निगरानी और नियामक के तौर पर काम करने का अधिकार है। वर्ष 2015 में सीएआरए द्वारा जारी दिशानिर्देशों के तहत एकल महिला को किसी भी लिंग के बच्चे को गोद लेने का अधिकार है।

अनाथ तथा विधवा, तलाकशुदा या एकल माता के बच्चों को शिक्षा का अधिकार कानून के तहत दाखिले की इजाजत है, अगर वह कानून की शर्तो को पूरा करती हैं, लेकिन समस्या तब पैदा होती है जब स्थानीय निकाय माता के दस्तावेजों को बच्चे के लिए बतौर आधिकारिक दस्तावेज स्वीकार करने से इन्कार करते हैं। हाल में तलाकशुदा माताओं के कई मामले सामने आए हैं, जहां वे अपने बच्चे को स्कूल में दाखिल नहीं करा पाईं। अधिकांश स्कूलों में बच्चे को अपने पिता का नाम भरना होता है और स्कूल दस्तावेजों की गैरमौजूदगी या पिता के दस्तावेज जमा न करने पर अधूरे आवेदनों के आधार पर उन्हें खारिज कर दिया जाता है।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि एकल माता की अवधारणा को आज भी भारतीय समाज स्वीकार नहीं कर सका है। इसलिए इस दिशा में तेजी से बदलाव की जरूरत महसूस की जा रही है। शिक्षा के अधिकार के तहत एडमिशन के मामलों को देखने वाले शिक्षा विभाग को एकल, विधवा या तलाकशुदा माताओं या अनाथों से संबंधित दस्तावेजों को जस का तस स्वीकार करना चाहिए। पिता द्वारा परित्यक्त किए जाने और माता के गुजर जाने पर बच्चे नाना-नानी की देखरेख के तहत भी आते हैं, लेकिन अगर वे पिता का ब्यौरा बताने वाले मूल दस्तावेजों को पेश नहीं कर पाते, तो अधिकांश मामलों में उन्हें दाखिला नहीं दिया जाता।

जिस तरह समाज की मान्यताएं बदली हैं, हमें ऐसे बदलावों को खुले दिल से स्वीकार करना चाहिए। ऐसे में दिल्ली सरकार के इस संबंधित कदम की प्रशंसा की जानी चाहिए और देश के कानूनी ढांचे के तहत समुचित कानूनी सुधारों के बीच दूसरे राज्यों से भी इस मामले में सुधार उम्मीद की जानी चाहिए। ऐसा करने से ही कोई भी सामाजिक सुधार प्रभावी और चिरस्थायी हो सकेगा।

[लेखक और संस्कृतिकर्मी]


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.