वैवाहिक दुष्कर्म मामला : कई मुद्दों पर मतभेद बना खंडित निर्णय का आधार
Marital Assault Case वैवाहिक दुष्कर्म के अपराधीकरण की मांग वाली विभिन्न याचिकाओं पर करीब सात साल चली लंबी सुनवाई के बाद बुधवार को आया दिल्ली हाई कोर्ट का निर्णय बंटा हुआ था। इस पर सार्थक बहस की जा सकती है।
नई दिल्ली, जागरण संवाददाता। वैवाहिक दुष्कर्म के फैसले में पीठ की अध्यक्षता कर रहे न्यायमूर्ति राजीव शकधर ने जहां दुष्कर्म के अपराध से पति को छूट देने वाले प्रविधान को असंवैधानिक बताते हुए इसे खत्म करने का समर्थन किया था। वहीं, न्यायमूर्ति सी. हरिशंकर ने कहा था कि भारतीय दंड संहिता (आइपीसी) के तहत अपवाद असंवैधानिक नहीं है और एक समझदार अंतर पर आधारित है। हालांकि, पीठ ने दोनों पक्षों को सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर करने की इजाजत दी थी। आइए देखते हैं मामले से जुड़े किस बिंदु पर न्यायमूर्तियों ने किस तरह अपनी राय रखी, पढ़ें विनीत त्रिपाठी की रिपोर्टः
पत्नी के अधिकार
न्यायमूर्ति राजीव शकधरः किसी भी समय सहमति वापस लेने का अधिकार महिला के जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का मूल है। इसमें उसके शारीरिक और मानसिक अस्तित्व की रक्षा करने का अधिकार भी शामिल है। ऐसे में पति द्वारा पत्नी से जबरन संभोग करने पर इसे दुष्कर्म माना जाना चाहिए।
न्यायमूर्ति सी. हरिशंकरः महिलाओं की यौन स्वायत्तता या प्रजनन पसंद के अधिकार पर कोई समझौता नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन आइपीसी में दुष्कर्म की धारा का अपवाद-दो (वैवाहिक दुष्कर्म) वैवाहिक यौन संबंधों के संदर्भ में दुष्कर्म शब्दावली के उपयोग को अस्वीकार करता है। पत्नी के पास ऐसी स्थितियों के लिए अन्य वैकल्पिक नागरिक और आपराधिक उपचार उपलब्ध हैं।
संविधान का उल्लेख
न्यायमूर्ति राजीव शकधरः वैवाहिक दुष्कर्म अपवाद संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है। इसका कारण यह है कि दुष्कर्म का अपराध वही रहता है, चाहे अपराधी कोई भी हो। दुष्कर्मी के पीड़िता का पति होने से यौन हमले के कार्य को कम हानिकारक, अपमानजनक या अमानवीय नहीं बनाता है। दुष्कर्म का अपराधी एक अपराध के रूप में सामाजिक अस्वीकृति का पात्र है।
न्यायमूर्ति सी. हरिशंकरः संविधान के 21, 19 या किसी अन्य अनुच्छेद में पति को दुष्कर्म के लिए दोषी ठहराए जाने का पत्नी में कोई अंतर्निहित मौलिक अधिकार नहीं है। वैवाहिक संस्था पति और पत्नी के बीच का लौकिक संबंध है, जो वैवाहिक गठबंधन के परिणामस्वरूप उभरता है।
वैवाहिक यौन संबंध
न्यायमूर्ति राजीव शकधरः स्वस्थ और आनंदमय विवाह के केंद्र में सहमति से यौन संबंध हैं। आधुनिक समय में विवाह बराबरी का रिश्ता है।विवाह में प्रवेश करके महिला अपने पति या पत्नी के अधीन या अधीनस्थ नहीं होती है या सभी परिस्थितियों में संभोग के लिए अपरिवर्तनीय सहमति नहीं देती है।किसी भी समय सहमति वापस लेने का अधिकार महिला के जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का मूल है और इसमें उसके शारीरिक और मानसिक अस्तित्व की रक्षा करने का अधिकार शामिल है।
न्यायमूर्ति सी. हरिशंकरः पत्नी और पति के बीच संभोग पवित्र है।किसी भी स्वस्थ विवाह में संभोग केवल शारीरिक क्रिया नहीं होनी चाहिए, बल्कि पत्नी और पति के बीच यौन क्रिया में भावनात्मक तत्व निर्विवाद है।जब दोनों पक्षों ने शादी कर ली है और महिला ने स्वेच्छा से उस पुरुष के साथ ऐसा संबंध बनाया है, जिसमें संभोग एक अभिन्न अंग है तो पत्नी के चाहे बगैर किसी विशेष अवसर पर पति द्वारा यौन संबंध बनाने के लिए उसे मजबूर किए जाने की स्थिति को अजनबी द्वारा दुष्कर्म होने जैसा मानना न केवल अनुचित है, बल्कि अवास्तविक है। अदालत निश्चित रूप से यह मानती है कि अपनी पत्नी के साथ गैर-सहमति से यौन संबंध बनाने से वैवाहिक संस्था को खतरा नहीं होगा।
विधायिका को लेकर
न्यायमूर्ति राजीव शकधरः विधायिका को दुष्कर्म के अपराध के लिए सजा से संबंधित मामलों को संबोधित करने की आवश्यकता है। कानून लैंगिक निष्पक्षता से युक्त होना चाहिए। ये ऐसे कदम हैं जिन्हें विधायिका/कार्यपालिका द्वारा उठाए जाने की आवश्यकता है।
न्यायमूर्ति सी. हरिशंकरः हमारे पास इस मुद्दे का गहन अध्ययन करने के लिए न तो साधन या संसाधन हैं और न ही हम वैध रूप से ऐसा कर सकते हैं। विधायिका का विचार और चिंता वैध है। ऐसे में यह न्यायालय विधायिका के दृष्टिकोण के स्थान पर अपने विचार को प्रतिस्थापित नहीं कर सकता है।
कोर्ट की शक्तियों के नजरिये से
न्यायमूर्ति राजीव शकधरः वर्षों से विवाहित महिलाओं को पति की संपत्ति के रूप में माना जाता रहा है, लेकिन वर्तमान समय में जब वे अपने पति से मुक्त हो चुकी हैं और अपने पतियों के साथ यौन संबंध के लिए ‘हां’ या ‘नहीं’ कहने के अधिकार के लिए विभिन्न मंचों पर लड़ रही हैं। इस लंबे समय अंतराल ने हमें उन्हें बेड़ियों से मुक्त करने और उनके शरीर पर अधिकार देने के लिए प्रेरित किया है।
न्यायमूर्ति सी. हरिशंकरः अदालतों में बैठे न्यायाधीश वकीलों के उन तर्कों के आधार पर जो बहुत प्रेरक भी हों, निर्णय पारित नहीं कर सकते, क्योंकि ये एक अधिनियम होगा। हमारी शपथ हमें ऐसा करने के लिए अधिकृत भी नहीं करती है। यही नहीं, न्यायालय एक अपराध की रचना नहीं कर सकता, क्योंकि न्यायालय विधायी रूप से अपराध के लिए सजा निर्धारित नहीं कर सकता है।