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Delhi Politics: नया नहीं है दिल्ली सरकार और राजनिवास में टकराव

दिल्ली सरकार और राजनिवास में शुरू से ही टकराव रहा है। नवंबर 2018 के तीन महीने बाद फरवरी 2019 में आदेश आया जिसमें यह कहा गया है कि बेंच के दोनों जजों के इस पर मत अलग-अलग हैं इसलिए तीन जजों की बेंच को यह मामला ट्रांसफर कर दिया गया।

By Vinay Kumar TiwariEdited By: Published: Fri, 05 Feb 2021 02:29 PM (IST)Updated: Fri, 05 Feb 2021 02:29 PM (IST)
Delhi Politics: नया नहीं है दिल्ली सरकार और राजनिवास में टकराव
दिल्ली के उपराज्यपाल अनिल बैजल और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल में टकराव नया नहीं है।

नई दिल्ली, संजीव गुप्ता। दिल्ली में आम आदमी पार्टी करीब छह साल से सत्ता में है, लेकिन दिल्ली सरकार और राजनिवास में शुरू से ही टकराव रहा है। नौकरशाही भी इस लड़ाई में दिल्ली सरकार के साथ नहीं रही है। सरकार टकराव का बड़ा कारण उसके पास अधिकारियों के तबादले और नियुक्ति का अधिकार न होना मानती रही है।

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अधिकारों की इस लड़ाई में सरकार के कई फैसले अधर में लटक गए। एक मामले में सरकार ने दो दानिक्स अधिकारियों को निलंबित किया तो उपराज्यपाल ने इन्हें बहाल कर दिया। सरकार ने खेती की जमीन का सर्किल रेट 53 लाख रुपये प्रति एकड़ से बढ़ाकर तीन करोड़ किया तो उपराज्यपाल ने इसे निरस्त कर दिया। दिल्ली विद्युत विनियामक आयोग (डीईआरसी) के चेयरमैन के पद पर नियुक्ति को लेकर भी यही स्थिति रही। सरकार के फैसले पर उपराज्यपाल ने रोक लगाई।

दिल्ली सरकार द्वारा बनाए गए जांच आयोग भी अस्तित्व में नहीं आ सके। सरकार द्वारा पास किए गए 12 विधेयक आज भी केंद्र सरकार के पास पड़े हैं, जिन्हें अनुमति नहीं मिल सकी है। इसी तरह के टकराव के चलते दिल्ली सरकार ने अदालत की शरण ली थी। मई 2015 को इस केस की शुरुआत हुई। मई 2015 से लेकर अगस्त 2015 तक यह केस हाई कोर्ट में चला। हाई कोर्ट के बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट में गया। संविधान पीठ के समक्ष इस मामले की सुनवाई हुई।

नवंबर 2017 में संविधान पीठ के समक्ष भी बहस पूरी हुई। जुलाई 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर फैसला दिया। आदेश में कहा गया कि भूमि, कानून-व्यवस्था और पुलिस सिर्फ तीन आरक्षित विषय हैं। यानी यह उपराज्यपाल के अधीन हैं। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से स्पष्ट होता है कि सर्विसेज आरक्षित विषय नहीं है, जबकि गृह मंत्रलय के 2015 के नोटिफिकेशन में इसके आरक्षित विषय होने का दावा किया गया था। जुलाई 2018 के आदेश के बाद मामले को दोबारा से डिवीजन बेंच के समक्ष भेज दिया गया और नवंबर 2018 तक डिवीजन बेंच के समक्ष मामले की सुनवाई चली।

नवंबर 2018 के तीन महीने बाद फरवरी 2019 में आदेश आया, जिसमें यह कहा गया है कि बेंच के दोनों जजों के इसपर मत अलग-अलग हैं, इसलिए तीन जजों की बेंच को यह मामला ट्रांसफर कर दिया गया। बाद में यह निर्णय दिया गया था कि हर विषय को तय समय में उपराज्यपाल की मंजूरी के लिए भेजना जरूरी नहीं है। 


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