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Delhi Politics: दिल्ली में अधिकारों को लेकर खींचतान, व्यावहारिक बदलावों से संभव समाधान

Delhi Politics दिल्ली के उपमुख्यमंत्री ने केंद्र सरकार पर आरोप लगाया है कि वह पिछले दरवाजे से यहां शासन करने का प्रयास कर रही है। वहीं केंद्र सरकार का कहना है कि इसका मकसद है कि दिल्ली की सरकार से उपराज्यपाल का टकराव कम हो।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Wed, 10 Feb 2021 09:23 AM (IST)Updated: Wed, 10 Feb 2021 01:05 PM (IST)
Delhi Politics: दिल्ली में अधिकारों को लेकर खींचतान, व्यावहारिक बदलावों से संभव समाधान
लिहाजा उपराज्यपाल के अधिकारों को लेकर छिड़ी लड़ाई चिंताजनक है।

कैलाश बिश्नोई। Delhi Politics केंद्र सरकार ने दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र शासन अधिनियम, 1991 में संशोधन को हाल में मंजूरी दी है। इससे यहां के उपराज्यपाल के अधिकारों में वृद्धि होगी। पूर्व के अनुभवों को देखते हुए कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का प्रशासन और विकास केजरीवाल बनाम मोदी और आम आदमी पार्टी बनाम भारतीय जनता पार्टी की नाक की लड़ाई में ऐसा उलझ गया है कि कोई ठोस कामकाज होने की बजाय हर दो चार महीने पर कोई नाटक खड़ा हो जाता है। इससे दिल्ली की जनता की भावनाओं का भी मजाक हो रहा है और संविधान का भी।

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उल्लेखनीय है कि दिल्ली देश की राजधानी होने के साथ ही राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र भी है। यानी दिल्ली पूर्ण राज्य न होकर अर्धशासी राज्य है। संविधान का अनुच्छेद 239एए दिल्ली को अपनी विधायी निर्वाचित सरकार होने के लिए विशेष दर्जा प्रदान करता है। यही संवैधानिक स्टेटस मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के बीच बिग बॉस होने का टकराव पैदा करता है।

गौरतलब है कि बजट सत्र में एनसीटी ऑफ दिल्ली (संशोधन) विधेयक, 2021 को सूचीबद्ध रखा गया है, संसद में अगर यह विधेयक पारित होता है तो इससे उपराज्यपाल और शक्तिशाली होंगे। इस विधेयक में प्रविधान किया गया है कि अब दिल्ली सरकार को विधायी प्रस्ताव उपराज्यपाल के पास कम से कम 15 दिन पहले और प्रशासनिक प्रस्ताव सात दिन पहले पहुंचाने होंगे। केंद्र शासित प्रदेश होने के कारण दिल्ली के उपराज्यपाल को कई अधिकार मिले हुए हैं। हालांकि इन्हीं अधिकारों को लेकर दिल्ली सरकार तथा उपराज्यपाल बीच टकराव की स्थिति बन जाती है। पिछले कुछ वर्षो में ऐसा कई मौकों पर देखने को मिला है, फिर चाहे वह किसी के ट्रांसफर-पोस्टिंग का मसला हो या किसी फाइल को रोकने की बात हो या फिर कोरोना संकट के दौरान दिल्ली के अस्पतालों में बाहरी राज्यों के मरीजों के इलाज पर रोक लगाने के दिल्ली सरकार के फैसला का हो।

यह कड़वी हकीकत है कि दिल्ली की वर्तमान केजरीवाल सरकार और केंद्र सरकार के बीच हमेशा इस बात को लेकर संघर्ष चलता है कि दिल्ली में इस काम के लिए केंद्र सरकार जिम्मेदार है या उस काम के लिए दिल्ली सरकार जिम्मेदार है। दोनों पक्षों के बीच अधिकारों के सवाल पर टकराव के मसले पर करीब ढाई साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसला भी दिया था। लेकिन हालात जस के तस बने हैं। जबकि दिल्ली के समुचित विकास के लिए राजनीतिक दलों को अपने अहं भाव से ऊपर उठकर संविधान की भावना को समझने की जरूरत है और बेवजह का विवाद उठाकर संविधान का मजाक बनाना उचित नहीं है।

विवाद के कारण : दिल्ली की स्थिति अन्य राज्यों या केंद्र शासित क्षेत्र से अलग है। केंद्र शासित क्षेत्र होते हुए भी दिल्ली की अपनी विधानसभा है, जहां अन्य राज्यों की तरह सुरक्षित सीटों का भी प्रविधान है। विधायकों का चुनाव सीधे जनता करती है। लेकिन संघ शासित क्षेत्र दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त नहीं है। इसी वजह से लोगों की चुनी गई सरकार भी अपनी मर्जी के हिसाब से फैसले नहीं ले सकती है, उसे ज्यादातर कार्यो के लिए उप राज्यपाल से अनुमति लेनी पड़ती है जो कि राष्ट्रपति के अधीन काम करते हैं और यदि केंद्र व राज्य में दो अलग-अलग पार्टयिों की सरकारें हैं तो राज्य सरकार के लिए काम करना काफी मुश्किल हो जाता है। शायद यही कारण है कि दिल्ली की वर्तमान केजरीवाल सरकार और उपराज्यपाल अनिल बैजल के बीच हमेशा खींचातानी की खबरें आती रहती हैं।

दिल्ली विकास प्राधिकरण : दूसरा कारण है दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए), जो दिल्ली की सारी जमीन पर नियंत्रण रखती है और अगर दिल्ली में किसी सरकारी काम के लिए जमीन चाहिए तो उसके लिए डीडीए की मंजूरी आवश्यक है, जबकि डीडीए भी केंद्र सरकार को रिपोर्ट करती है। इस वजह से भी दिल्ली सरकार विकास की किसी योजना को सलीके से कार्यान्वित नहीं कर पाती है। इन तमाम कारणों से दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार के बीच मचे घमासान में नुकसान दिल्ली के लोगों का होता है।

नगर निगम : तीसरी वजह है दिल्ली नगर निगम यानी एमसीडी। ये भी केंद्र सरकार के ही नियंत्रण में है और राज्य सरकार के प्रति जवाबदेह नहीं है। इसका खामियाजा आम जनता को उठाना पड़ता है और दिल्ली के नागरिकों को अपने कामों के लिए इन तीनों विभागों से डील करना पड़ता है। दूसरे राज्यों की तरह दिल्ली में जमीन यानी दिल्ली विकास प्राधिकरण उपराज्यपाल के जरिये केंद्र सरकार के अधीन है और दिल्ली सरकार जमीन से जुड़े हुए फैसले नहीं ले सकती। इतना ही नहीं, अगर दिल्ली सरकार को कहीं किसी सरकारी परियोजना के लिए जमीन की जरूरत हो तो उसे उपराज्यपाल और केंद्र सरकार की दया पर निर्भर रहना पड़ता है। गौर करने वाली बात है कि संविधान के 69वें संशोधन के जरिये राज्य सरकार को मिलने वाले प्रशासन, पुलिस और जमीन के अधिकार को केंद्र सरकार ने अपने ही पास ही रखा है। अभी मौजूदा स्थिति ये है कि अगर किसी मुद्दे पर पुलिस और प्रशासन की व्यवस्था में गड़बड़ी का माहौल बनता है तो दिल्ली के मुख्यमंत्री बस कार्रवाई की मांग कर सकते हैं। दिल्ली पुलिस स्थानीय विधायकों और दिल्ली सरकार के प्रति जवाबदेह नहीं है।

दिल्ली के केंद्र शासित प्रदेश होने की स्थिति में दिल्ली की पुलिस भी उपराज्यपाल के जरिये सीधे-सीधे केंद्र सरकार के गृह मंत्रलय के नियंत्रण में है और दिल्ली की चुनी हुई सरकार के आदेश मानने के लिए पुलिस बिल्कुल बाध्य नहीं है। इसमें कोई शक नहीं कि जनता की ओर से चुनी जाने के बावजूद दिल्ली सरकार के पास राष्ट्रीय राजधानी के शासन में उसके अधिकार सीमित हैं। इसी वजह से आम आदमी पार्टी की सरकार दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग समय-समय पर उठाती रहती है। हालांकि देश की राजधानी होने समेत सुरक्षा संबंधी कारणों से तार्किक रूप से यह मांग सही नहीं लगती है, लेकिन इस कारण से निरंतर होने वाली टकराव की स्थिति को रोकने के लिए बीच का एक व्यावहारिक रास्ता निकालना चाहिए।

व्यावहारिक बदलावों से संभव समाधान: दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा न दिए जाने के पीछे सबसे बड़ा कारण है दिल्ली का राष्ट्रीय राजधानी होना। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति समेत केंद्र सरकार के तमाम मंत्री रहते हैं। यहां देश की संसद है और दुनियाभर के डिप्लोमैट व उनके दूतावास यहीं मौजूद हैं। ऐसी स्थिति में अगर दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया तो कानून व्यवस्था समेत पुलिस का नियंत्रण भी राज्य की सरकार के अधीन होगा। वहीं जमीन राज्य सरकार के अधीन होने की स्थिति में केंद्र सरकार जमीन से जुड़े नीतिगत फैसले भी नहीं ले पाएगी और उसे राज्य सरकार से मंजूरी लेनी होगी।

देश की राजधानी होने के कारण यहां पर कई तरह के अंतरराष्ट्रीय प्रोटोकॉल भी लागू हैं। ऐसा माना जाता है कि ऐसी स्थिति में अगर दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिल गया तो देश की राजधानी में केंद्र और राज्य सरकार में टकराव होने पर विचित्र स्थिति उत्पन्न हो सकती है। दिल्ली में ही सत्ता के दो केंद्र होने पर राष्ट्रीय हितों को लेकर टकराव हो सकता है और इससे देश की प्रतिष्ठा प्रभावित होने की आशंका कायम रहेगी। अगर दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिल गया तो बड़े नौकरशाहों के तबादले और उनके खिलाफ कार्रवाई का अधिकार भी राज्य सरकार को मिल जाएगा। वहीं राज्य की पुलिस राज्य सरकार के अधीन होने की स्थिति में केंद्र सरकार के कर्मचारियों पर भी कार्रवाई करने का अधिकार राज्य की सरकार को मिल जाएगा जो उनके अधिकारों के खिलाफ होगा। इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय ने जुलाई 2018 के अपने एक निर्णय में कहा था कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया जा सकता, परंतु उपराज्यपाल के पास भी स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने का अधिकार नहीं है व उन्हें चुनी गई सरकार से परामर्श और सहयोग लेकर काम करना चाहिए।

वैसे समस्या दिल्ली को पूर्ण राज्य बनना नहीं है, बल्कि अधिकारों के कई केंद्र होना है। डीडीए और नगर निगमों पर मुख्यमंत्री का थोड़ा नियंत्रण हो तो शासन बेहतर चल सकता है। मुख्यमंत्री को डीडीए का अध्यक्ष बनाने व ट्रैफिक पुलिस को दिल्ली सरकार के अधीन करने जैसे बदलाव कर चीजों को आसान किया जा सकता है। साथ ही, दिल्ली सरकार को भी इच्छाशक्ति व दृष्टिकोण में बदलाव के साथ केंद्र के साथ बेहतर सहयोग से काम करने की आवश्यकता है।

उपराज्यपाल की शक्तियां: संविधान के अनुच्छेद-239 के अनुसार, प्रत्येक केंद्रशासित क्षेत्र का प्रशासन राष्ट्रपति द्वारा संचालित किया जाएगा और यह कार्य एक प्रशासक के माध्यम से किया जाएगा। केंद्रशासित क्षेत्र का प्रशासक राष्ट्रपति का एजेंट या अभिकर्ता होता है, लेकिन वह राज्यपाल की तरह राज्य का प्रमुख नहीं होता है। दिल्ली के उपराज्यपाल कार्यकारी अधिकारी हैं जो उन्हें सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस और भूमि से जुड़े मामलों में अपनी शक्तियों का उपयोग करने की अनुमति देता है। राष्ट्रपति, प्रशासक को पदनाम दे सकता है। वर्तमान में दिल्ली, अंडमान-निकोबार द्वीप व पुदुचेरी में प्रशासक को उपराज्यपाल का पदनाम दिया गया है।

संविधान के अनुच्छेद-239एए में दिल्ली के उपराज्यपाल को दूसरे राज्यों के राज्यपालों से ज्यादा संवैधानिक शक्तियां दी गई हैं। इस अनुच्छेद के मुताबिक दिल्ली की मंत्रिपरिषद उपराज्यपाल को परामर्श देगी, बशर्ते किसी मुद्दे पर दोनों के बीच विवाद की स्थिति पैदा न हो। अगर दोनों में मतभेद हों तो मामला राष्ट्रपति के पास भेजना चाहिए। इस बीच उपराज्यपाल के पास अधिकार होता है कि वो अपने विवेक से किसी भी मामले में तुरंत कार्रवाई कर सकते हैं। जिस मुद्दे पर उपराज्यपाल और मंत्रियों के बीच किसी तरह का मतभेद पैदा होता है तो उपराज्यपाल इस मामले को राष्ट्रपति के पास भेज सकता है और उसी का निर्णय अंतिम होगा, लेकिन यदि कोई मामला अर्जेट है तो उपराज्यपाल अपने विवेक से निर्णय ले सकता है। राज्य का राज्यपाल जहां अपने विवेकाधिकार वाले कार्यो के अलावा अन्य कार्यो के लिए मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद से सलाह लेने हेतु बाध्य है, वही उपराज्यपाल के मामले में ऐसा नहीं है।

[शोध अध्येता, दिल्ली विश्वविद्यालय]


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