चौहानों का दौर रहा हो, मुगलों का या फिर अंग्रेजों का; सभी ने दिल्ली को धानी चादर ओढ़ाई
फूलों और फलों से लदी बाग-बगीचों की धनी दिल्ली की बात ही निराली है। इसकी प्राकृतिक धानी चुनरिया हर दौर में संवरी निखरी और आंचल को फहराती गई। तमाम इमारतों रास्तों के बीच बढ़ते शहर में भी हरियाली का आंचल बढ़ता गया।
नई दिल्ली/गुडगांव, प्रियंका दुबे मेहता। इतिहासकारों की मानें तो 19वीं सदी से दिल्ली की हरियाली लगातार संकुचित होती जा रही है लेकिन आज भी शहर की समृद्ध प्राकृतिक धरोहर के नमूने कई हिस्सों में मिलते हैं। यहां फूल हैं, फलों से लदे वृक्ष हैं, हाइराइज भवनों के बीच जंगल हैं और सड़कों के किनारे देसी-विदेशी प्रजातियों के पेड़ हैं। हर शहर के हिस्से से प्रकृति का किस्सा भी जुड़ा मिलेगा। भागती-दौड़ती दिल्ली जरा थमती नजर आती है, अपनी नैसर्गिक चादर के आगोश में समेटती, सुकून और रूह तक शीतलता देती। दक्षिणी दिल्ली की बात करें, तो लोधी गार्डन में पेड़ों की 110 प्रजातियां हैं। जमाली कमाली और कुतुब परिसर में खूबसूरत पुराने वृक्ष शान से लहलहाते हैं। आकर्षित करते हैं।
ऐतिहासिक बागों में पुराना किला, तालकटोरा गार्डन, सफदरजंग का मकबरा, हुमायूं का मकबरा, नेहरू पार्क, दिल्ली गोल्फ क्लब, सिरी फोर्ट पार्क, हौज रानी सिटी फोरेस्ट, अपेक्षाकृत नवनिर्मित सैद-उल-अजीब में 20 एकड़ में बने फाइव सेंसेज गार्डन के अलावा मुगल गार्डन से प्राकृतिक खूबसूरती का बेहतरीन नजारा मिलता है। उत्तरी दिल्ली में शालीमार गार्डन, रोशनआरा बाग, कसीदाबाग, शांतिवन, विजय घाट, दिल्ली विश्वविद्यालय, पर्दा गार्डन लाल किले के पास दरियागंज में स्थित है। इसकी खासियत यह है कि शाहजहां द्वारा बनवाए इस बाग में केवल महिलाएं ही जा सकती हैं।
लोधी गार्डन..वासंती मौसम में इन फूलों को देख ऐसा लगता है मानों प्रकृति ने नीले आसमान के नीचे सफेद फूलों की चादर बिछी हो। जागरण
वसंत की शोभा : वसंत ऋतु में दिल्ली की खूबसूरती यहां के फूलों से निखर आती है। खूबसूरत अमलताश, जारुल पेड़ पर गहरे गुलाबी रंग के सुंदर फूलों के अलावा इस समय दिल्ली में जगह-जगह कचनार के फूल दिख रहे हैं। पलाश (ढांक, और टेसू), तोता (इंडियन कोरल ट्री) के लाल रंग के फूलों से राहें महक रही हैं। ब्राजील के जकरांड्रा फूलों का बैगनी रंग, सीता-अशोक के फूल, सराय काले खां के रास्तों पर पीले टकोमा फूलों के छोटे पौधे हैं। सेमल बहुत दिलचस्प है। दिल्ली विश्वविद्यालय के पर्यावरण विद फैयाज खुदसर का कहना है कि वसंत में सेमल का अपना आनंद होता है। यह एक ऐसा पेड़ है जिसपर तरह-तरह के पक्षी ही नहीं पालिनेटर भी आकर्षित होते हैं। इसकी पत्तियां और फूल जानवरों के भोजन के काम आती हैं। इनकी कलियों की सब्जी बनाकर खाई जाती है। यह औषधीय गुणों से भरा हुआ है।
कचनार (कैमल फुट) इसकी पत्तियां ऊंट के पैरों के समान होती हैं। इसके अलावा पलाश के फूलों को फ्लेम आफ द फोरेस्ट यानी जंगल की आग भी कहा जाता है। इनकी पत्तियां गिर जाती हैं और गर्मी के मौसम में मानों सूखे पेड़ की शाखाओं पर सिर्फ फूल ही फल लदे नजर आते हैं, जो जंगल में आग के समान लगता है। टेसू के फूल भी इस वक्त खिल रहे हैं। इनका ऐतिहासिक महत्व है कि ब्रज में जो होली खेली जाती थी वह टेसू या पलाश के फूलों से ही खेली जाती थी। आदिवासी इसके तने से कमर कस बनाते हैं, जोकि महिलाओं की तमाम बीमारियों को दूर करने के काम आता है और हड्डियों को मजबूती देता है।इसके अलावा कहा जाता है कि इसकी रुई के तकिए पर सोने से माइग्रेन नहीं होता। सिरीष और गुलमोहर के फूल भी दिल्ली की फिजा में इस समय नजर आ रहे हैं।
और प्रजातियों से हो दिल्ली का प्राकृतिक श्रृंगार : पर्यावरणविद और ट्रीज आफ देह्ली’ के लेखक प्रदीप कृषेन के मुताबिक 1911 में जब दिल्ली देश की नई राजधानी बनी तो उस वक्त इस क्षेत्र की हालात खराब थी। उस समय दिल्ली शाहजाहांनाबाद के अंदर उसके उत्तरी हिस्से में थी और दक्षिणी हिस्से में केवल खंडहर थे। दिल्ली की आबादी उत्तर में ही थी। अंग्रेजों ने देखा कि वहां बाढ़ का खतरा था। ऐसे में उन्होंने दिल्ली के दक्षिणी भाग को चुना। अब इस लुटियंस दिल्ली में जो मार्ग बन रहे थे उन पर सिर्फ 13-14 प्रजाति के पेड़ थे। इसका कारण यह था कि अंग्रेज मुगलों के जमाने की चीजों और यहां तक कि पेड़-पौधों को भी नहीं लेना चाहते थे। ऐसे में बरगद, आम और शीशम जैसे वृक्ष मार्गों पर नहीं लगाए गए। अंग्रेजों ने सोचा कि वे ऐसे सदाबहार वृक्ष लगाएंगे जो पतझड़ी न हों और हमेशा केवल सौंदर्य के दर्शन ही करवाएं। हालांकि इसमें वे गलती कर बैठे और दिल्ली की प्राकृतिक आबोहवा से इतर वे जामुन जैसे पेड़ ले आए। उन्होंने देखा कि यह वृक्ष पत्ते नहीं छोड़ता। यहीं उन्होंने बड़ी गलती की। जामुन जिस इलाके में पाया जाता था वह नमी वाले इलाके थे और दिल्ली में आते ही वे भी यहां की आबोहवा में ढलकर पतझड़ी हो गए। जामुन के अलावा सड़कों के किनारे इमली, पीपल, अजरुन और नीम सहित तकरीबन सोलह-सत्रह प्रजातियां लगाई गईं। आज भी दिल्ली में देश की तकरीबन ढाई हजार प्रजातियों में से सिर्फ सोलह प्रजाति के पेड़ ही देखने को मिलते हैं। इसका कारण है कि लोगों में जिज्ञासा ही नहीं है कि वे नई और पुरानी प्रजातियों पर काम करें। दिल्ली की हरियाली केवल नर्सरी में विकसित किए जाने वाले पौधों पर ही निर्भर है।
दिल्ली के ये हरे भरे रास्ते
- तुगलक मार्ग, राजाजी त्यागराज मार्ग पर जामुन के पेड़
- सफदरजंग रोड, लोधी रोड, पृथ्वीराज मार्ग और अशोक मार्ग पर नीम के पेड़
- जनपथ, तीन मूर्ति, मदर टेरेसा मार्ग पर अर्जुन के पेड़
- अकबर, तिलक, पंडित पंत मार्ग और मदर टेरेसा मार्ग पर इमली के पेड़
- एस भारती, हुमायूं, अमृता शेरगिल मार्ग और कापरनिकस मार्ग पर सोसेज के पेड़
- बाबा खड़क सिंह, मंदिर मार्ग पर पीपल के पेड़
- जाकिर हुसैन मार्ग और डलहौजी मार्ग पर पिलखन
- रेस कोर्स मार्ग पर पुत्रजीव, साउथएंड रोड पर महुआ
- कृष्णा मेनन मार्ग पर जड़ी, टालस्टाय मार्ग पर रिवर रेड गोंद के पेड़
- मौलाना आजाद और मार्नंसह रोड पर खिरनी
- कापरनिकस मार्ग पर नीम का पेड़
- बिशंबर दास मार्ग पर बुद्ध नारियल पेड़
- पंडारा रोड और मौलाना आजाद मार्ग पर अंजन के पेड़
- राजाजी मार्ग पर लोरेल फिग के पेड़
- राजघाट पर टार्च के पेड़
- सुंदर नर्सरी में पाया जाने वाला कोका पेड़
- बाराखंभा रोड, सिकंदरा और राजेंद्र प्रसाद रोड पर बहेड़ा के पेड़
- एम्स और दिल्ली विश्वविद्यालय के परिसर में पाया जाने वाला टीक का पेड़, आस्ट्रेलियन बदाम, महुआ, चिनार, इटालियन साइप्रस, मोरपंखी, अमलताश, पलाश और सेमल के पेड़
आबादी नहीं बढ़ती तो बात कुछ और ही होती : जब मुगलों के बाद लुटियंस की दिल्ली अस्तित्व में आई तब मात्र 57 हजार लोगों के हिसाब से दिल्ली का नक्शा बना था और आज इसकी जनसंख्या से अंदाजा लगाया जा सकता है कि इसके उस नक्शे का यह हाल क्यों हुआ। सड़कें संकरी हुईं और रिहायशी इलाके और बाजार बढ़ते गए। इन सब की बलि हरियाली चढ़ी और बगीचों की दिल्ली, कंकरीट की दिल्ली में तब्दील होने लगी। वर्तमान में दिल्ली के पहाड़ी वन क्षेत्र को चार जोन में बांटा गया है। 1915 में 170 हेक्टेयर में फैला उत्तरी रिज (पहाड़ी वन क्षेत्र) अब मात्र 87 हेक्टेयर तक रह गया है। 1914 में नई दिल्ली यानी सेंट्रल रिज जो कि सदर बाजार से धौलकुआं तक 864 हेक्टेयर में फैला था, इसमें भी काट छांट हुई है। महरौली इलाके का साउथ सेंट्रल रिज संजय वन से लेकर जेएनयू तक 933 हेक्टेयर में फैला है। दक्षिणी रिज यानी की तुगलकाबाद 6200 हेक्टेयर में था और इसी में असोला भट्टी वन्यजीव अभ्यारण्य है। दिल्ली के वन क्षेत्रों में सबसे कम शहरीकरण इसी रिज का हुआ है जहां आज भी जंगली पौधे लहलहाते हैं।
प्राकृतिक विरासत और अरावली : पहाड़ी वन क्षेत्रों के अनुसार दिल्ली को चार जोन में बांटा गया है। दिल्ली के अर्धजंगली इलाकों में बुद्धा जयंती पार्क, महावीर वनस्थली, कमला नेहरू पार्क, संजय वन आदि स्थानों पर औरनामेंटल पेड़ों की खूबसूरती बेहतरीन प्राकृतिक नजारा पेश करती है। हौज खास डियर पार्क, जहांपनाह सिटी फोरेस्ट और जेएनयू के विभिन्न हिस्सों में खूबसूरत प्राकृतिक नजारों का दीदार होता है। वन विभाग द्वारा प्रबंधित तुगलकाबाद और असोला भट्टी अभ्यारण्य आज भी प्राकृतिक विरासत को संजोए हुए हैं। दक्षिणी दिल्ली और फरीदाबाद के बार्डर पर स्थित अरावली में मांगरबानी प्राकृतिक छटा के साथ-साथ आध्यात्मिक मान्यताओं के लिए भी जाना जाता है। अरावली में छोटे पेड़ बड़ी संख्या में हैं। इन्हें क्षेत्रीय भाषा में धाऊ कहते हैं। अरावली के बायोडाइवर्सिटी पार्क को संवारने में योगदान देने वाली लतिका ठुकराल का कहना है कि यह पेड़ अपने आप में बेहद मजबूत होते हैं। ’ट्रीज आफ देल्ही’ में इसका जिक्र मिलता है कि इनके पीले हरे पत्ते पतझड़ से पहले खूबसूरत बैगनी रंग के हो जाते हैं। इसके अलावा ¨हगोट, खैर, कुमट्ठा, ढाक, फुलई और करील भी इस इलाके की शोभा बढ़ाते हैं। इस इलाके से विलुप्त हुई कुछ प्रजातियों में से दो प्रजातियां काला सिरीस और सलाई अभी भी मांगरबानी में देखी जी सकती हैं।
बागों में थी बहार : सत्तरहवीं सदी में बने बागों की झलक उन्नीसवीं सदी तक मिलती थी। चारबाग वर्गाकार मुगल गार्डन हुआ करते थे, जो अक्सर चहारदीवारी के भीतर या हवेलियों में बने थे। उस दौर के बड़े बागीचों में 1650 में शाहजहां की बेटी जहांआरा द्वारा बनाया गया चांदनी चौक का बेगम बाग था। इन सभी बगीचों को देखते हुए 1824 में कोलकाता के बिशप हीबर ने दिल्ली के बागों के लिए लिखा था कि यह बगीचे एक दौर में बहुत समृद्ध और खूबसूरत रहे होंगे। इस तथ्य का जिक्र भी प्रदीप कृषेन अपनी पुस्तक में करते हैं। चारबाग की खासियत यह भी थी कि यहां संतरों के साथ अन्य खट्टे फलों के वृक्ष थे। इसके अलावा आम, बेल, चंपा, नीम, नाशपत्ती, जामुन, मौलसरी, लसोड़ा, अनार, कमरख, कामिनी, आड़ू, बदाम, कचनार, चीकू और खिरनी जैसे पेड़ों के होने की संभावना जताई जाती है।
1650 ई. में काबुल गेट के पास बना तीस हजारी बाग मूलत: नीम का बगीचा था। कृषेन के मुताबिक इस बगीचे में तीस हजार नीम के पेड़ थे संभवत: इसलिए इसका नाम तीस हजारी पड़ा है। 18वीं सदी में कश्मीरी गेट पर कसीदा बेगम बाग बना था जो कि नदी के किनारे पर बना खूबसूरत बाग था। दीवारों के भीतर के शहर के दक्षिणी हिस्से के बाग जो हुमायूं के दरगाह और पुराना किला में थे, बाद में छोटे-छोटे गांव बन गए। उस दौर के लगभग सभी बाग अंग्रेजों द्वारा नष्ट कर दिए गए थे।