कोमा के मरीजों को मिलेगा वेंटिलेटर से छुटकारा, जानिए- इस नई तकनीक के बारे में
इंडियन स्पाइनल इंजरी सेंटर ने डायफ्रेग्मेटिक पेसिंग तकनीक की शुरुआत की है। इस तकनीक के इस्तेमाल में अस्पताल अमेरिका के एक डॉक्टर का सहयोग ले रहा है।
नई दिल्ली, जेएनएन। रीढ़ की हड्डी में चोट व लकवा के कारण कोमा में पहुंच चुके मरीजों को आने वाले दिनों में वेंटिलेटर से छुटकारा मिल सकता है। इसके लिए इंडियन स्पाइनल इंजरी सेंटर ने डायफ्रेग्मेटिक पेसिंग तकनीक की शुरुआत की है। इस तकनीक के इस्तेमाल में अस्पताल अमेरिका के एक डॉक्टर का सहयोग ले रहा है। इसी क्रम में अमेरिकी गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल सर्जन डॉ. रेमंड पी ऑन्डर्स ने इंडियन स्पाइनल इंजरी सेंटर पहुंचकर डॉक्टरों व पैरा मेडिकल कर्मचारियों को प्रशिक्षण दिया, ताकि वे इस तकनीक का इस्तेमाल ठीक से कर सकें।
इसका मकसद लकवा के मरीजों को खुद से सांस लेने में सक्षम बनाना है। इस बारे में अस्पताल के मेडिकल निदेशक डॉ. एचएस छाबड़ा ने बताया कि यह तकनीक वेंटिलेटर पर निर्भर मरीजों के लिए उम्मीद की नई किरण के रूप में सामने आई है। रीढ़ में चोट व न्यूरो की बीमारी से कई मरीज आंशिक या पूर्ण रूप से लकवा के शिकार हो जाते हैं। उनमें से कई मरीजों को सांस लेने के लिए वेंटिलेटर सपोर्ट की जरूरत पड़ती है। ऐसे मरीजों को डायफ्रैग्मेटिक पेसिंग से काफी लाभ हो सकता है।
रिहैबिलिटेशन टूल की तरह करता है काम
यह पेसिंग सिस्टम एक रिहैबिलिटेशन टूल की तरह काम करता है। इस प्रक्रिया में मरीज के सीने के निचले हिस्से में इलेक्ट्रॉड्स इंप्लांट किया जाता है, जिसे एक बाहरी स्टिम्युलेटर से जोड़ दिया जाता है, जो मरीज को कृत्रिम इलेक्टिकल इंपल्स भेजता है। इससे मरीज के सीने के हिस्से (डायाफ्राम) में घर्षण उत्पन्न होता है। इससे मरीज को सांस लेने में मदद मिलती है। साथ ही मरीज की वेंटिलेटर पर निर्भरता कम या पूरी तरह से खत्म हो सकती है। डॉक्टरों को उम्मीद है कि आने वाले वक्त में यह तकनीक मरीजों के लिए किसी वरदान से कम नहीं होगी।
दो मरीजों में तकनीक का इस्तेमाल
अस्पताल में दो मरीजों पर इस तकनीक का इस्तेमाल किया गया है, जिनकी उम्र 53 वर्ष है। रीढ़ में गोली लगने से करीब डेढ़ साल से वेंटिलेटर पर हैं। इस तकनीक के इस्तेमाल से उम्मीद है कि छह से नौ माह के अंदर उनका वेंटिलेटर सपोर्ट हट जाएगा।
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