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जानें किस लेखक को दिल्ली में रहना पड़ा था धर्म बदलकर

कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह पांच साल पहले जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्याल से सेवानिवृत्त हुए। दिल्ली में इनके अनुभव की कुछ यादें।

By Pooja SinghEdited By: Published: Thu, 10 Oct 2019 12:26 PM (IST)Updated: Thu, 10 Oct 2019 12:26 PM (IST)
जानें किस लेखक को दिल्ली में रहना पड़ा था धर्म बदलकर
जानें किस लेखक को दिल्ली में रहना पड़ा था धर्म बदलकर

नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह पांच साल पहले जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्याल से सेवानिवृत्त हुए। इनके सबसे चर्चित उपन्यास 'झीनी झीनी बीनी चदरिया का उर्दू तथा अंग्रेजी अनुवाद हुआ। और अनेक कहानियां मराठी, पंजाबी, मलयालम, तेलुगू, बांग्ला, उर्दू, जापानी, स्पैनिश, रूसी तथा अंग्रेजी में अनूदित हो चुकी हैं। लेखन के लिए सोवियत लैंड नेहरु पुरस्कार, दिल्ली हिंदी अकादमी, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान और मप्र साहित्य परिषद के देव पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं।

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बात 1984 की है। बनारस में एक स्कूल में नौकरी करने के बाद दिल्ली आने का मन था। कहीं से पता चला जामिया में आवेदन प्रक्रिया चल रही है। तभी मैंने अपने मित्र को फार्म मंगाने के लिए पत्र लिखा तो उधर जवाब में लंबा चौड़ा पत्र आया जिसका लब्बोलुआब था कि छोटे से शहर से निकल इस महानगर में कैसे आओगे कैसे रहोगे

इस दिल्ली में। सबसे बड़ी बात वहां बनारस में तो कुछ ही लेखक हैं। यहां 600 लेखकों की भीड़ में कहीं गुम हो जाओगे। पहचान नहीं मिल पाएगी। बहरहाल अपने मित्र के पत्र से मैं घबराया नहीं तय किया। नौकरी दिल्ली में ही करनी है। आवेदन किया, साक्षात्कार और नियुक्ति भी मिली।

मुझे जामिया में दिए गए साक्षात्कार का प्रसंग भी याद आता है जिसमें वाइस चांसलर और नामवर सिंह सहित एक और एक्सपर्ट मलिक मुहम्मद बैठे थे। अब जहां नामवर जी हों भला कोई और क्या सवाल करेगा। उन्होंने मेरी रचनाओं के इर्दगिर्द ही सारे सवाल किए तो मुझे लगा कि ये चलता कर देने के लिए ऐसा कर रहे हैं। क्योंकि उससे पहले भी बहुत सारी जगहों पर मैं साक्षात्कार दे चुका था। बहरहाल नामवर जी ने खूब सवाल किए, अंत में मलिक मुहम्मद जी ने एक सवाल रामधारी सिंह दिनकर की किताब के चारों अध्यायों के नाम पूछ लीजिए। इतने मैं जवाब देता, नामवर जी मलिक जी पर बिगड़ गए कि ये क्या आप इतिहास के सवाल पूछ रहे हैं। साहित्य का छात्र है इतिहास का नहीं। यहां साक्षात्कार में भी मुझसे दिल्ली शहर में एडजस्ट कर लेने जैसा सवाल पूछा गया। अंतत एक माह बाद मुझे नियुक्ति का पत्र मिल गया। अब स्वाभाविक है बाहर से आने वाले को दिल्ली में रहने का ठौर-ठिकाना तलाशना सबसे बड़ी चुनौती होगी तो कुछ दिन बनारस में रहते हुए अपने पढ़ाए छात्र के यहां जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में काटे।

यहां से मैं मुनीरका जाता था और 507 नंबर की बस पकड़कर जामिया पहुंच जाता था। लगभग एक साल बाद मुझे मुनीरका के डीडीए फ्लैट में एक किराए का कमरा मिल गया। अब इसके पीछे भी बड़ी दिलचस्प कहानी है। वहां मुझे 200 रुपये में कमरा तो मिल गया लेकिन मेरे सामने दो शर्तें रखी गई थीं कि एक तो मकान मालिक को यह नहीं बताना है कि आप शिक्षक हैं और दूसरी शर्त सुनकर आपको भी हैरानी होगी, कि आपको अपना धर्म भी छिपाना है। आप वहां हिंन्दू बनकर रहेंगे, मुसलमान नहीं। मैं यह सुनकर चौंका क्योंकि मैं तो सोचता था दिल्ली जैसा समृद्ध शहर तो मनुष्यता से पहचाना जाता होगा लेकिन यहां भी जाति-धर्म की बेडिय़ां थीं। अब मरता क्या न करता मेरी जरूरत थी मैंने दोनों शर्तें स्वीकार कर लीं। सब आराम से चल रहा था। उनके परिवार में घुलमिल भी गया। मैं खाना खाने जेएनयू ही जाया करता था। 31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी उसके बाद सिख दंगा भड़क गया था। मुझे सुबह में ऐसी कोई जानकारी नहीं थी मैं हर रोज की तरह जामिया के लिए मुनीरका स्टैंड से 507 नंबर बस पकडऩे के लिए निकला। लेकिन वहां देखा नजारा ही कुछ और था सब कुछ जलकर राख हो चुका था।

चारों तरफ सड़क पर सन्नाटा था। न कोई स्टैंड, बस तो आना बहुत दूर की बात है। मैं कुछ देर बाद घर लौट आया। मैं जिस परिवार के साथ किराए पर रह रहा था वह पंजाबी-हिंदू परिवार था। घर पहुंचते ही मकान मालकिन ने मुझे जोर से फिक्र करने के अंदाज में डांटा और कहा कि ऐसे माहौल में कहां निकल गए थे। आपको पता नहीं है बाहर क्या हो रहा है। फिर उन्होंने मेरा जेएनयू में खाना खाने जाना भी बंद करा दिया कहा कि यह भी तो परिवार है यहीं खाया करें। अब मेरे लिए तो ठीक ही था।

अब आपको अपने मुसलमान होने की पोल खुलने की बात बताता हूं। हमारे बगल में एक फ्लैट खाली था जहां शिया मुस्लिम परिवार आकर रहने लगा। कुछ दिन बाद मुहर्रम पड़ा। उन दिनों वो मुस्लिम परिवार अपनी रीति के हिसाब से शोक मनाने लगे। जिसमें जोर-जोर से रोने की आवाज भी आती थी। एक दिन मकान मालकिन अपने पति से बोलीं कि एक बार देखो जरा कि बगल वाले परिवार में कोई दिक्कत है क्या? तभी मैं बोल पड़ा नहीं, ऐसा कुछ नहीं है और विस्तार से उन्हें मुहर्रम के बारे में बता दिया। अब वो हैरान, मुझसे पूछा गया कि तुम्हे इस बारे में इतनी जानकारी कैसे है? तभी मैंने जवाब दे दिया मैं भी मुसलमान हूं। तभी वो बोले लेकिन तुम्हारा नाम तो अतुल है यही तुमने बताया था, मैंने कहा नहीं मैंने तो अब्दुल बताया था। मैं सोच ही रहा था कि अब तो ये ठिकाना भी गया और सामान पैक करने लगा तभी उन लोगों ने मुझसे कहा कि आप कहीं नहीं जाएंगे, यहीं रहेंगे।

अब मैं सोचने लगा कि चलो अब दूसरा सच भी बताया जाए तो एक दिन कॉलेज से मिठाई का डिब्बा लेकर आया और कहा कि मेरी जामिया में नौकरी लग गई है। उन्हें बहुत खुशी हुई और मुझे रूम से निकाला भी नहीं। मैं यहां से जेएनयू भी नामवर जी से मिलने जाता रहता था। एक दिन उन्होंने मुझसे कहा कि मुझे अलकनंदा वाले फ्लैट का पजेशन मिल गया है। तुम भी वहां रह लो। दरअसल, उसमें एक सर्वेंट क्वार्टर भी था जिसके साथ अलग से बाथरूम भी था। मैं भी खुशी-खुशी तैयार हो गया और 400 रुपये में वहां रहने लगा। नामवर जी ने मुझसे पैसे मांगे नहीं थे लेकिन मैंने हमेशा किराया दिया। लंबा समय यहीं बीता, वैसे भी घर तो कुछ देर के लिए ही जाया करता था क्योंकि मैं और असगर वजाहत और कभी-कभी अशोक चक्रधर हम सभी कॉलेज के बाद निकल जाते थे।

कभी श्री राम सेंटर कोई नाटक देखने, कभी साहित्यिक गोष्ठियों में, कभी दरियागंज रात तक लौटा करते थे। मैं दिल्ली आते ही सबसे पहले कॉफी हाउस भी गया था बहुत सुना हुआ था लेकिन, जब पहुंचा तो देखा सिर्फ विष्णु प्रभाकर बैठे हुए थे, बाकी कभी-कभार कोई साहित्यकार आ जाया करते थे। तब तक वो पुराने वाला दौर खत्म हो चुका था। एक और प्रसंग का जिक्र जरूर करना चाहूंगा। बात 1985 की है। जब बनारस में था तो हरिवंश राय बच्चन जी से मेरा पत्र व्यवहार होता रहता था। जब दिल्ली आया तो एक साल बाद उनका पत्र मिला। वे गुलमोहर पार्क में रहा करते थे। उन्होंने मिलने के लिए बुलाया। मैं गया लेकिन वहां गार्ड ने फार्म भरवाया और अंदर से लौटकर आकर कहा कि उनकी तबीयत ठीक नहीं है वे मिल नहीं पाएंगे। मैं अपनी एक किताब उनको भेंट करने के लिए ले गया था उस पर ही उनके नाम एक संदेश लिखकर वहां छोड़कर लौट आया। बाद में कुछ दिन बाद उनका संदेश आया अब तुम बगैर समय लिए कभी भी आना। एक दिन फिर गया तो तब गार्ड मेरा नाम सुनते ही बड़ी इज्जत के साथ मुझे उनसे मिलाने लेकर गए। उन दिनों बसों का इंतजार बहुत लंबा होता था और अधिकतम किराया 40 पैसे होता था। लेकिन, 10 पैसे के लिए भी गजब का झगड़ा होता था। कंडक्टर को टिकट के लिए 50 पैसे दिए जाते थे अब वो 10 पैसे लौटाने में खुले पैसे न होने की बात कहकर आनाकानी करता था। मतलब पैसे का महत्व था। वैसे दिल्ली पहले बहुत मिलनसार शहर था खूब साहित्यिक गोष्ठी होती थीं। सब एक-दूसरे की सुनते थे।

वक्त था भावनाओं को जानने-समझने का लेकिन अब तो सिर्फ भागे जा रहे हैं और साहित्य को पता नहीं किस दिशा में ले जा रहे हैं। अब मैं सरिता विहार के पास शाहीन बाग में रहता हूं। अब कहीं आयोजनों में ही सिर्फ साहित्यकारों से मुलाकात होती है। बाकी किसी के घर आना-जाना नहीं होता। मैंने दिल्ली से जुड़े अपन संस्मरणों पर कई कहानियां भी लिखीं जिसमें दुल्हन और नायिका बड़े अच्छे प्रसंग पर आधारित हैं जो मैंने खुद अनुभव किया।

[मनु त्यागी पर बातचीत पर आधारित]

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