सिनेमा में साहित्य की जड़ें हैं मजबूत : मनोज 'मुंतशिर'
भारतीय सिनेमा के शुरुआती दौर से लेकर वर्तमान तक में साहित्य ने किसी ने किसी रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है। चाहे गीतों में शायरी या नज्म की बात करें या फिल्मों के यादगार डॉयलोग की। हमारे बुजुर्गों ने हमें अच्छी बुनियाद दी है। जिस पर खराब इमारत बनाने का नई पीढ़ी को कोई हक नहीं है। यह कहना था बॉलीवुड फिल्मों में शायरी और साहित्य की अलख जगाए रखने वाले गीतकार मनोज मुंतशिर का। मौका था प्रभा खेतान फाउंडेशन द्वारा इंडिया इंटरनेशनल में सजी साहित्यिक श्रृंखला कलम का जहां गीतकार ने अपनी लेखन यात्रा के साथ-साथ सिनेमा में साहित्य की भूमिका पर प्रकाश डाला। एहसास वुमन ऑफ दिल्ली दिनेश नंदिनी रामकृष्ण डालमिया फाउंडेशन व दैनिक जागरण की सहभागिता से आयोजित कलम की पांचवी कड़ी में लेखिका नीलिमा डालमिया से बातचीत में गीतकार मनोज मुंतशिर ने गीत गजल और नज्मों से महफिल को गुलजार किया।
हंस राज, नई दिल्ली
'भारतीय सिनेमा के शुरुआती दौर से लेकर वर्तमान तक में साहित्य ने किसी ने किसी रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है। फिल्मों में गीत, शायरी नज्म और डायलॉग देकर बुजुर्गो ने हमें अच्छी बुनियाद दी है। इस पर अब खराब इमारत बनाने का नई पीढ़ी को कोई हक नहीं है।' यह कहना है बॉलीवुड फिल्मों में शायरी और साहित्य की अलख जलाने वाले गीतकार मनोज 'मुंतशिर' का। उन्होंने मंगलवार को प्रभा खेतान फाउंडेशन द्वारा इंडिया इंटरनेशनल में सजी साहित्यिक श्रृंखला 'कलम' में अपनी लेखन यात्रा के साथ ही सिनेमा में साहित्य की भूमिका पर अपनी बेबाक राय रखी। अहसास वुमन ऑफ दिल्ली, दिनेश नंदिनी रामकृष्ण डालमिया फाउंडेशन व दैनिक जागरण की सहभागिता से आयोजित कार्यक्रम 'कलम' की पांचवी कड़ी में लेखिका नीलिमा डालमिया ने 'मुंतशिर' से लंबी बातचीत की है। इस दौरान गीतकार ने गीत, गजल और नज्मों से महफिल को गुलजार किया।
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खुद को साहित्य से अलग नहीं कर सकता
एक सवाल के जवाब में गीतकार ने कहा कि उन्होंने ऐसा कोई गीत नहीं लिखा, जिसमें साहित्य का रंग न हो। फिल्मी गीतों में शेर-ओ-शायरी की विरासत पर बात करते हुए उन्होंने 'हीर-रांझा' व 'मुगल-ए-आजम' सरीखी फिल्मों का जिक्र किया और कहा कि उस परंपरा को जीवित रखना निर्माता और श्रोता दोनों के लिए सुखद साबित होगा।
--------------- लेखनी को पहचान मिले, इसलिए पहुंचा मुंबई
संघर्ष के दिनों को याद करते हुए 'मुंतशिर' ने बताया कि छोटी उम्र से ही उन्हें फिल्मी गीत सुनना पसंद था। इसी कारण 10वीं कक्षा तक आते-आते कविताएं, गीत और गजल लिखने लग गए। लेखनी को पहचान मिले। इसलिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय से निकलकर मुंबई पहुंच गए। फिल्मी गीतों में साहित्य को स्थापित करने वालों में शुमार साहिर लुधियानवी, शैलेंद्र, गुलजार और जावेद अख्तर जैसे गीतकारों को अपना आदर्श बताते हुए उन्होंने कहा कि फिल्म में स्तरीय कविताओं की पंरपरा को जिदा रखने का वह प्रयास कर रहे हैं।
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युवाओं की आंखों में झांककर लिखता हूं गीत
'मैं फिर भी तुमको चाहूंगा', 'देखते-देखते', 'वजह तुम हो', 'तेरे संग यारा' सरीखे दर्जनों हिट गीत से युवाओं के दिल में खास जगह बनाने वाले गीतकार ने कहा कि वह युवाओं के बीच जाकर, उनसे संवाद करके और उनकी आंखों में झांककर ही गीत लिखते हैं। पिछले 3-4 वर्षों में फिल्मों में बढ़े रैप के प्रभाव पर उन्होंने कहा कि ऐसे गीत किसी खास महफिल के लिए हो सकते हैं, लेकिन श्रोता रैप और शायरी के बीच का अंतर समझते हैं। फिल्मी गीतों को रीक्रिएट करने के सवाल पर उन्होंने कहा कि ऐसे गीत जिन पर धूल जम चुकी थी। उन्हें दोबारा लाना गलत नहीं है। इस क्रम में यह ध्यान रखना बहुत जरूरी है कि मूल गीतकार को भी सफलता का श्रेय दिया जाए।
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'कलम' के प्रयास को श्रोताओं ने सराहा
साहित्य को दिशा देने के उद्देश्य से आयोजित कार्यक्रम कलम को दिल्ली-एनसीआर से पहुंचे श्रोताओं की भरपूर सराहना मिली। सिनेमा और साहित्य के रोचक किस्सों के साथ-साथ गीतकार की जिदगी से रूबरू हुए श्रोताओं ने साहित्य की ऐसी महफिल का हिस्सा बनना सुखद बताया। इस अवसर पर अर्चना डालमिया, शाजिया इल्मी व भगवानदास मोरवाल समेत साहित्य-संस्कृति क्षेत्र के लोग बड़ी संख्या में उपस्थित रहे।
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