यह ऐतिहासिक क्षण उन सभी महिलाओं को समर्पित है जिन्होंने रूढ़िवाद से लड़कर बुनियाद बनाई
भारतीय टीम भले ही फाइनल में हार गई लेकिन हमें गर्व है पहली बार टीम के फाइनल में जगह बनाने की और गरिमा है भविष्य की उम्मीद जगाने की।
ब्रजबिहारी, नई दिल्ली। महिला दिवस पर world cup T20 में खिताब भले ही हमारी मर्दानियों से दूर रह गया लेकिन इस हार में भी गौरव और गरिमा की जीत छिपी हुई है। गौरव है पहली बार फाइनल में प्रवेश करने का और गरिमा है भविष्य की उम्मीद जगाने की।
यह उम्मीद न सिर्फ क्रिकेट के क्षेत्र में जौहर दिखाने का इंतजार कर रही लड़कियों के लिए है बल्कि सभी महिलाओं के लिए है जो अपने लिए जगह बनाने की जिद्दोजहद कर रही हैं। आज भी महिलाओं को पहले से कहीं ज्यादा आक्रामक पितृसत्तामक समाज (women fight against patriarchy)से जूझना पड़ रहा है, लेकिन आज से दस या बीस साल पहले यह व्यवस्था कितनी जकड़न भरी होगी, इसकी कल्पना आज की खिलाड़ी नहीं कर सकती हैं।
यह कौन भूल सकता है कि हरमनप्रीत कौर ने महिला विश्व कप क्रिकेट में 20 जुलाई, 2017 को ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ अपनी असाधारण पारी के दौरान जब शानदार छक्का जड़कर टीम को जीत दिलाई थी तो पूरे देश ने इस उपलब्धि को सीने से लगाकर जश्न मनाया था। कहना न होगा कि इस एक जीत ने महिला क्रिकेट के प्रति उदासीन रवैया रखने वाले इस देश को गहरी नींद से जगाने का काम किया।
महिला क्रिकेट के इतिहास में आए इस मोड़ ने महिला क्रिकेटरों को रातोंरात हीरो बना दिया। हर घर में उनकी चर्चा होने लगी और हर अभिभावक अपनी बेटी को उनके जैसा बनाने का सपना देखने लगा। लेकिन, इस मुकाम तक पहुंचने के लिए महिला क्रिकेटरों को न सिर्फ सामाजिक कुरीतियों से लड़ना पड़ा बल्कि दुनिया के सबसे धनी क्रिकेट बोर्ड बीसीसीआइ के कर्ता-धर्ताओं से भी दो-दो हाथ करना पड़ा। यह उनके संघर्ष का ही नतीजा है कि अब महिला क्रिकेटरों पर सम्मान और पैसा दोनों बरस रहे हैं।
देश में महिला क्रिकेट की शुरुआत 1970 के दशक में हुई थी, जब देश के अलग-अलग कोनों से आईं किशोरियों ने तय किया कि वे खेल की दुनिया में अपनी छाप छोड़ कर ही मानेंगी। लेकिन इसके पीछे न तो कोई योजना थी और न ही किसी का समर्थन। इसे एक आकस्मिक घटना ही कहा जाएगा। अलबत्ता उन लड़कियों के मन दुस्साहस की हद तक रोमांच की भावना थी और कुछ कर गुजरने का माद्दा भी था।
शुरुआत में उन्हें कोई तवज्जो नहीं मिली। इसके बजाय उन्हें अपमान और अनदेखी के दंश झेलने पड़े। इस दौरान महिला क्रिकेटरों का पहला विदेश दौरा हुआ। उन्होंने पहले विश्व कप क्रिकेट में शिरकत भी की और उन पर विवादों का साया भी पड़ा लेकिन इन सबके बावजूद न तो देश के खेल प्रेमियों ने और न ही क्रिकेट प्रशासकों ने उनकी ओर ध्यान दिया। बहरहाल, शुरू के दौर की महिला क्रिकेटरों ने इन तमाम बाधाओं के बाद भी हिम्मत नहीं हारी और सारे झंझावातों से लड़ते हुए आगे बढ़ती रहीं।
आज अगर महिला क्रिकेटरों की उपलब्धियों पर देश को गर्व हो रहा है और हर लड़की मिताली राज, हरमनप्रीत कौर, झूलन गोस्वामी या स्मृति मंधाना की तरह बनना चाहती है तो इसमें शांता रंगास्वामी, डायना इडुल्जी, चंद्रा नायडू, शुभांगी कुलकर्णी और उनकी जैसी ढेरों महिला क्रिकेटरों के संघर्ष का अहम योगदान है।
आज गली-गली में महिला क्रिकेटरों की चर्चा है और हम कोई अपनी बेटी को शेफाली वर्मा बनाना चाहता है जैसे दो दशक पहले हर परिवार अपने बच्चे को सचिन और सहवाग बनाना चाहता था। एक जमाना था जब आकाशवाणी के खेल कार्यक्रमों में सिर्फ पुरुष क्रिकेटरों और उनकी उपलब्धियों की चर्चा होती थी। कभी-कभार महिला क्रिकेटरों का नाम आता भी था तो ऐसा लगता था जैसे कार्यक्रम के आयोजक बड़े बेमन से उनका जिक्र कर रहे हैं। लेकिन, धीरे-धीरे महिला क्रिकेटरों ने अपने कारनामों से ध्यान खींचा और उन्हें खेल पत्रिकाओं और आकाशवाणी के कार्यक्रमों में भी जगह मिलने लगी।
इस बीच 1983 में पुरुष क्रिकेटरों की विश्व कप क्रिकेट के फाइनल में वेस्टइंडीज के खिलाफ मिली अप्रत्याशित जीतने उन्हें पूरे देश का हीरो बना दिया। इसी दौर में केबल टेलीविजन के आगमन ने क्रिकेट की मार्केटिंग की संभावनाओं के लिए नए दरवाजे खोल दिए। पुरुष क्रिकेटरों के दबदबे के इस दौर में भी महिला क्रिकेटर अपने प्रदर्शन से खेल प्रेमियों के बीच चर्चा का विषय बनी रहीं। नई सदी की शुरुआत में इंटरनेट के आगमन ने जैसे महिला क्रिकेटरों को नया जीवन दे दिया। झूलन गोस्वामी, मिताली राज, अंजुम चोपड़ा जैसी नई पीढ़ी की महिला क्रिकेटरों ने मीडिया में अपनी जगह बनानी शुरू की।
इसके बावजूद बीसीसीआइ की उपेक्षा, भेदभाव और उदासीनता बरकरार रही। अब भले ही महिला क्रिकेटरों को पुरुष क्रिकेटरों की तरह बीसीसीआइ का कांट्रैक्ट दिया जा रहा है लेकिन पुरुषों के साथ बराबरी की उनकी लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है।
हर पेशेवर क्षेत्र की तरह क्रिकेट भी पुरुषों और महिलाओं को एकसमान पारिश्रमिक नहीं मिल रहा है। इस मामले में पिछली पीढ़ी की क्रिकेटर ज्यादा मुखर थी। खासकर डायना इडुल्जी जैसी क्रिकेटर तो इस मुद्दे पर काफी मुखर रही थीं, लेकिन नई पीढ़ी की क्रिकेटर इस मामले में बहुत वाचाल नहीं हैं। इसकी वजह यह हो सकती है कि पुराने जमाने की क्रिकेटरों के मुकाबले आज की क्रिकेटरों को नौकरी और स्पांसरशिप की समस्या नहीं है।