शहीद वीर नारायण सिंह को किताब में बताया राजपूत, भड़का आदिवासी समाज
इस मामले में आदिवासी युवा संगठन ने शुक्रवार को छत्तीसगढ़ के कई जिलों में प्रदर्शन और पुतला दहन किया था।
अनिल मिश्रा, रायपुर। छत्तीसगढ़ के स्वतंत्रता सेनानी शहीद वीर नारायण सिंह को राजपूत बताने का विवाद गहरा गहराता जा रहा है। आदिवासी समाज ने आरोप लगाया है कि भाजपा सरकार आदिवासियों की इतिहास-संस्कृति को बदलने की साजिश रच रही है।
हालांकि राज्य के शिक्षा मंत्री केदार कश्यप का कहना है कि जिस किताब में शहीद वीर नारायण सिंह हो राजपूत बताया गया है वह पुरानी है। उन्होंने कहा, 'मैं सोमवार को एक सर्कुलर जारी करा दूंगा, जिसमें लिखा होगा कि शहीद वीर नारायण सिंह बिंझवार राजपूत की जगह उनका नाम शहीद वीर नारायण सिंह बिंझवार गोंड पढ़ा जाए।'
मंत्री के इस आश्वासन के बावजूद विवाद थमता नजर नहीं आ रहा है। सर्व आदिवासी समाज के अध्यक्ष बीपीएस नेताम का कहना है कि यह आदिवासियों का अपमान है। हम शहीद वीर नारायण सिंह की पूजा करते हैं। उन्हें राजपूत बताया जाना गलत है। ऐसे तो ये मिनीमाता और गुरूघासीदास को भी राजपूत बता देंगे।
नेताम ने कहा कि इस मामले में समाज ने बैठक की है। सोमवार से विभिन्न जिलों में पुतला दहन का आयोजन किया जाएगा। आदिवासी युवा संगठन ने शुक्रवार को राज्य के कई जिलों में प्रदर्शन और पुतला दहन किया।
ये है पूरा मामला
दरअसल छत्तीसगढ़ राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एससीईआरटी) द्वारा प्रकाशित कक्षा दसवीं की किताब में शहीद वीर नारायण सिंह का नाम शहीद वीर नारायण सिंह बिंझवार राजपूत लिखा गया है। यह मामला पहले भी सामने आया था, लेकिन अब इसे लेकर आदिवासी समाज आक्रोशित है।
2016 में राज्य शिक्षा स्थाई समिति की बैठक में सदस्यों ने राजपूत शब्द हटाने का सुझाव दिया था, लेकिन हटाया नहीं गया। इतिहासकार डॉ. रमेंद्रनाथ मिश्र के मुताबिक उनकी वीरता के कारण उन्हें राजपूत उपमा दी गई। यह जाति नहीं संबोधन बोधक शब्द है।
मध्यप्रदेश सरकार के सूचना एवं प्रसारण विभाग ने 1984 में एक पुस्तक प्रकाशित की थी, जिसमें वीर नारायण सिंह को राजपूत बताया गया। वहीं से दूसरी किताबों में यह शब्द आया।
शहीद वीर नारायण सिंह आदिवासियों के लिए पूज्य
शहीद वीर नारायण सिंह बिंझवार सोनाखान के जमींदार थे। उनका जन्म 1795 में हुआ था। 35 साल की आयु में उन्हें पिता से जमींदारी मिली। 1857 के विद्रोह के पहले ही उन्होंने ब्रिटिश नीतियों को चुनौती दी। 1856 में सोनाखान में अकाल पड़ा तो उन्होंने साहूकार से मदद मांगी और आश्वस्त किया कि फसल होने पर उसका अनाज लौटा दिया जाएगा। साहूकार ने अनाज देने से मना किया तो उन्होंने गोदाम तोड़कर अनाज जनता को बांट दिया। 1857 में उन्हें फांसी दी गई। आदिवासी समाज उन्हें अपना पूज्य मानता है।