उभरते ग्लोबल बाजारों का उत्थान और पतन
एक असेट श्रेणी के रूप में उभरते बाजारों की विकास दर तीन काल खंडों के दौरान खास तौर पर बढ़ी। सबसे पहले 1986-1994 के दौरान, जब वैश्विक संस्थागत निवेशकों ने इन उभरते बाजारों से संबंधित फंडों में निवेश प्रारंभ किया। इस दौरान अनेक कंट्री फंड लांच हुए।
एक असेट श्रेणी के रूप में उभरते बाजारों की विकास दर तीन काल खंडों के दौरान खास तौर पर बढ़ी। सबसे पहले 1986-1994 के दौरान, जब वैश्विक संस्थागत निवेशकों ने इन उभरते बाजारों से संबंधित फंडों में निवेश प्रारंभ किया। इस दौरान अनेक कंट्री फंड लांच हुए।
तकरीबन 29 साल पहले 4.4 करोड़ डॉलर की संग्रहीत राशि के साथ निवेश की साहसिक दुनिया में एक नई असेट श्रेणी का पदार्पण हुआ था। इसमें अंतरराष्ट्रीय वित्त निगम (आइएफसी) के 40 लाख डॉलर के अलावा फ्रांसीसी बैंक पारिबा तथा अमेरिकी कंपनियों- एटीएंडटी, पैकटेल, बेल अटलांटिक व नाइनेक्स के पेंशन फंडों का धन शामिल था। इसी के साथ उभरते बाजारों की संकल्पना का जन्म हुआ था। इसके बाद जल्दी ही अन्य असेट मैनेजर भी मैदान में कूद पड़े थे।
वर्ष 1987 में सर जॉन टेम्पलटन ने मार्क मोबिअस की अगुआई में 10 करोड़ डॉलर का टेम्पलटन इमर्जिंग मार्केट इक्विटी फंड लांच किया। वर्ष 1988 में उभरते बाजारों के सबसे अहम सूचकांक एमएससीआइ इमर्जिंग मार्केट इंडेक्स को लांच किया गया। इसमें शुरू में मलेशिया को 29 फीसद वेटेज के साथ सर्वाधिक महत्व दिया गया, जबकि भारत 1994 और चीन 2004 में इसका हिस्सा बना। पिछले दस सालों के दौरान उभरते बाजारों में जिस देश के वेटेज में लगातार वृद्धि हुई, वह चीन था। एक असेट श्रेणी के रूप में उभरते बाजारों की विकास दर तीन काल खंडों के दौरान खास तौर पर बढ़ी। सबसे पहले 1986-1994 के दौरान, जब वैश्विक संस्थागत निवेशकों ने इन उभरते बाजारों से संबंधित फंडों में निवेश प्रारंभ किया। इस दौरान अनेक कंट्री फंड लांच हुए। भारत में यूटीआइ ने 1994 में पहला ऑफशोर फंड लांच किया। दूसरा कालखंड 1994-1999 का है। भारत ने इसी दौरान एमएससीआइ इमर्जिंग मार्केट इंडेक्स में प्रवेश किया। जबकि 1999 में चीन ने शंघाई में अपना पहला स्टॉक एक्सचेंज शुरू किया। तीसरा व अंतिम कालखंड 2000-2008 का है। यह वह दौर था जब उभरते बाजार विश्व की दो तिहाई विकास दर में योगदान कर रहे थे। इसी दौरान भारतीय शेयर बाजारों ने अपना पहला और सबसे बड़ा उछाल (जिसे मदर ऑफ ऑल बुल मार्केट्स कहा जाता है) दर्ज किया। लेकिन 2008 में शेयर बाजारों में आई भारी गिरावट से हकीकत सामने आ गई। ज्यादातर निवेशकों ने इन राष्ट्र आधारित फंडों से पीछा छुड़ाना शुरू कर दिया। नतीजतन ज्यादातर फंड 6,080 फीसद तक लुढ़क गए। इस गिरावट के बाद अब उभरते बाजारों को दो चरणों में विभाजित किया जा सकता है। 2009-11 की शुरुआत में उभरते बाजारों में फिर से तेज सुधार हुआ। इसकी वजह प्रमुख उभरते बाजारों, खासकर चीन द्वारा दिए गए प्रोत्साहन पैकेज को माना जा सकता है। 2011 के बाद का दौर दूसरा है। इसमें उभरते बाजार फिर से लुढ़क गए।
इमर्जिंग मार्केट फंडों का आकार
हालांकि, उभरते बाजारों की कुल प्रबंधित संपत्तियों का कोई सुनिश्चित आकलन उपलब्ध नहीं है। लेकिन कुछ अनुमानों के अनुसार अमेरिका से इक्विटी में लगने वाली तकरीबन 50 फीसद राशि का निवेश अंतत: उभरते बाजारों में ही होता है और उसमें से भी आधी राशि ईटीएफ में जाती है।
इमर्जिंग मार्केट फंडों की संकल्पना
वर्ष 2010 तक उभरते बाजारों के शेयर मूल्यों में होने वाले उतार-चढ़ाव का परस्पर संबंध था, मगर 2011 के बाद से स्थिति बदल गई है। पहले इन बाजारों में निवेश का बड़ा कारण कम राशि व तरलता को लेकर निवेशकों में व्याप्त भय था। कैपिटल जैसे संस्थागत निवेशक तरलता के अलावा कारपोरेट गवर्नेंस की खराब स्थिति को लेकर भी चिंतित थे। उन्होंने जीईएफ फंडों का निवेश केवल पेंशन फंड, एंडोमेंट फंड जैसे अपेक्षाकृत अधिक भद्रसंस्थागत निवेशकों में करना बेहतर समझा। खुदरा निवेशकों को जीईएम फंडों में निवेश की अनुमति 2000 के बाद ही मिली। पिछले दशक में इन बाजारों के औसत दैनिक टर्नओवर में खासी बढ़ोतरी हुई है। 2003 में चीन के स्टॉक मार्केट्स का औसत दैनिक टर्नओवर एक अरब डॉलर था। अब चारों प्रमुख उभरते बाजार इस सीमा को पार कर चुके हैं। इससे पहले विकास दर से उभरते बाजारों का गहन संबंध रहा है। ब्राजील, मेक्सिको, तुर्की, चीन जैसे मध्य आय वर्ग वाले देशों में अलग तरह की समस्याएं हैं, जबकि भारत जैसे निम्न आय वर्ग वाले देशों को दूसरे तरह की आर्थिक बाधाओं का सामना करना पड़ता है। उभरते बाजारों में ये विषमताएं बनी रहनी चाहिए। इस परिदृश्य में उभरते बाजारों में समग्र जीईएम फंड के माध्यम से निवेश के परिणाम कम उत्साहवद्र्धक हो सकते हैं।
अनूप भास्कर
हेड, इक्विटी,यूटीआइ असेट मैनेजमेंट कंपनी लिमिटेड