रिस्क, रिटर्न और रिटायरमेंट का गणित
लोग मानते हैं कि रिटायरमेंट के लिए की जाने वाली बचत को कम से कम रिस्क वाले क्षेत्र में निवेश किया जाना चाहिए
रिटायरमेंट के लिए बचत की बात आते ही लोग रिस्क से बचने की सलाह देने लगते हैं। सबकी सलाह होती है कि निवेश ऐसी जगह किया जाए, जहां कोई रिस्क ना हो। रिस्क की गणना भी लोग साल दर साल होने वाले उतार-चढ़ाव के हिसाब से करते हैं। इस पारंपरिक सोच में लोग अच्छे रिटर्न की संभावना को छोड़कर फिक्स्ड रिटर्न वाले विकल्पों की ओर बढ़ जाते हैं। लंबी अवधि में यह सोच नुकसानदायक होती है। इस सोच के कारण अक्सर रिटायरमेंट के समय मिलने वाला रिटर्न महंगाई के मानक पर शून्य साबित होता है।
अच्छा निवेश अक्सर हमारे सामान्य ज्ञान और पारंपरिक समझ के विपरीत होता है। रिस्क और रिटायरमेंट के बारे में ये दोनों ही तरह के ज्ञान आपको गुमराह कर सकते हैं। विश्व प्रसिद्ध निवेश गुरु वारेन बफेट ने एक बार कहा था, ‘ऐसे लोग जो बिना रिस्क के कोई रिटर्न चाहते हैं, अक्सर बिना रिटर्न वाला रिस्क ले बैठते हैं।’ हालांकि मैं उनके विचार से असहमत हूं। या ऐसा भी कह सकते हैं कि मैं इस वाक्य में रिस्क शब्द के अर्थ से असहमत हूं। पारंपरिक रूप से रिस्क का अर्थ एक मानक समय में अस्थिरता से लगाया जाता है। यह गलत है। रिस्क का असल मतलब होता है, नियत समय में निवेश का लक्ष्य हासिल न कर सकने की संभावना।
एक उदाहरण से मेरी बात स्पष्ट हो सकती है। माना आपने 10 साल के लिए निवेश किया। इस बात की संभावना कि आप 10 साल बाद अपना लक्ष्य नहीं हासिल कर पाएंगे, यही असली रिस्क है। रिस्क को मापने का छद्म तरीका जिसे निवेश उद्योग की ओर से प्रसारित किया जाता है, वह दस साल के लिए किए गए आपके निवेश में हर साल होने वाले स्टैंडर्ड डेविएशन के आकलन पर निर्भर है। आम भाषा में कहें कि उन दस वर्षो के दौरान अगर आपका निवेश उतार-चढ़ाव से गुजरता है, (निसंदेह कभी-कभी इसमें गिरावट भी आती है), तब इसे रिस्की मान लिया जाता है। जबकि सच ये है कि अगर अंतिम परिणाम अच्छा है तो इस उतार-चढ़ाव का कोई अर्थ नहीं रह जाता। अब सवाल यह है कि रिस्क का यह झूठा मापदंड आपके रिटायरमेंट को कैसे प्रभावित करता है।
भारतीय बचतकर्ताओं, निवेशकों और निवेश सलाहकारों के मन में गहरा विश्वास है कि रिटायरमेंट के लिए की जाने वाली बचत को जहां तक संभव हो, कम से कम रिस्क वाले क्षेत्र में निवेश किया जाना चाहिए। यह वैसे तो एक अच्छा विचार है लेकिन प्रायोगिक रूप से जीरो रिस्क की यह चाहत आपकी वित्तीय स्थिति पर मंडराने वाले सबसे बड़े रिस्क की अनदेखी कर देती है। वह रिस्क है मुद्रास्फीति का। इस तरह से कहना अच्छा नहीं लगता, लेकिन फिर भी कहना चाहूंगा कि अगर आपने मुद्रास्फीति यानी महंगाई की दर की अनदेखी की तो आप खुद को बुढ़ापे में गरीबी की ओर धकेल देंगे। पिछले दशक का उदाहरण लेते हैं।
पारंपरिक फिक्स्ड रिटर्न वाले विकल्पों ने आठ फीसद से कुछ ज्यादा का रिटर्न दिया। 10,000 रुपये प्रति माह के निवेश से करीब 18-19 लाख रुपये बने। उसी अवधि में औसतन (सर्वश्रेष्ठ स्थिति इससे कहीं बेहतर रही) इक्विटी फंड में किया इतना ही निवेश 25 लाख रुपये तक बढ़ गया। यह रिटर्न करीब 14 फीसद है। इस अंतर को अगर तीन दशक के हिसाब से बढ़ाया जाए तो इक्विटी से मिलने वाला रिटर्न फिक्स्ड इनकम वाले विकल्प की तुलना में ढाई से तीन गुना तक ज्यादा होता है।
यह अंतर रिटायरमेंट के बाद के जीवन पर बढ़ा प्रभाव डाल सकता है। फिक्स्ड इनकम का विकल्प चुनने वाला जहां सिर्फ अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए संघर्ष करता दिखेगा, वहीं दूसरा शानदार तरीके से रिटायरमेंट के बाद का जीवन जी रहा होगा। वास्तव में रिटायरमेंट के लिए की जाने वाली बचत को इस्तेमाल करने का असल समय हमारे अनुमान से ज्यादा होता है। लोग रिटायरमेंट की तारीख को अपने निवेश के लिए टारगेट तारीख के रूप में लेकर चलते हैं।
रिटायरमेंट आपके जीवन की एक घटना हो सकती है, लेकिन बचत और निवेश के लिहाज से यह कोई घटना नहीं बल्कि एक लंबे रिटायर्ड जीवन की शुरुआत है। 55 की उम्र में आप सोच सकते हैं कि आप बस एक दशक बाद रिटायर होने वाले हैं, इसलिए रिटायरमेंट के लिए किया जाने वाला निवेश रिस्क से मुक्त होना चाहिए लेकिन इस सोच का कोई मतलब नहीं है। अपने निवेश से हो रही कमाई का इस्तेमाल आप 65, 75, 85 या 95 साल की उम्र में कर रहे होंगे। इन 30-35 वर्षो में कीमतें पांच से सात गुना या उससे भी ज्यादा बढ़ चुकी होंगी।
स्पष्ट रूप से रिस्क और रिटायरमेंट की पारंपरिक सोच को ‘बिना रिटर्न वाला रिस्क’ कहा जा सकता है जो मैंने शुरू में कहा था। ऐसे लोग जो बुढ़ापे के लिए कुछ अच्छा चाहते हैं उन्हें निश्चित रूप से इन मुद्दों पर स्पष्टता से सोचना चाहिए और उस जाल से बचना चाहिए, जिस ओर उन्हें पारंपरिक सोच ले जाती है।
(इस लेख के लेखक धीरेंद्र कुमार, सीईओ, वैल्यू रिसर्च हैं)