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लोगों के लिए बेहद जरूरी है पर्सनल फाइनेंस की शिक्षा

अपने काम से करोड़ों कमाने वाले अक्सर अपना सारा निवेश रियल एस्टेट में करते हैं

By Praveen DwivediEdited By: Published: Sun, 01 Oct 2017 10:26 AM (IST)Updated: Sun, 01 Oct 2017 10:26 AM (IST)
लोगों के लिए बेहद जरूरी है पर्सनल फाइनेंस की शिक्षा
लोगों के लिए बेहद जरूरी है पर्सनल फाइनेंस की शिक्षा

हमारे देश में पर्सनल फाइनेंस को लेकर लोगों की जानकारी बहुत सीमित है। ज्यादातर लोग फाइनेंशियल प्रोडक्ट बेचने वालों से ही इस बारे में जानकारी पाते हैं। ऐसी जानकारी कई बार जानकारी न होने से ज्यादा खतरनाक साबित होती है। देश में वित्तीय साक्षरता की जरूरत है। स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई में पर्सनल फाइनेंस को पूरी तरह से शामिल किया जाना चाहिए। छात्रों को उस शिक्षा का पेशेवर तरीके से इस्तेमाल करना भी सिखाना चाहिए।

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एक दशक से लोग मुझसे अपने पर्सनल फाइनेंस से जुड़े सवाल पूछ रहे हैं। मुझे कभी भी इस मामले में उनकी बेहद उथली जानकारी से आश्चर्य नहीं हुआ। ऐसे लोग जिन्होंने दशकों तक अपनी पेशेवर जिंदगी में सफलतापूर्वक काम किया होता है और चुने हुए पेशे को लेकर जिनमें शानदार कुशलता और क्षमता होती है, कई बार उन्हें भी निवेश, बीमा और यहां तक कि बैंकिंग से जुड़े विषयों की कोई जानकारी नहीं होती है। अपने काम से करोड़ों कमाने वाले अक्सर अपना सारा निवेश रियल एस्टेट में करते हैं। अब, जब वे रिटायर होने को हैं, उनमें से कुछ को एहसास होता है कि इस तरह के वित्तीय प्रबंधन का अर्थ क्या है। निश्चित रूप से अब इसका कोई अर्थ नहीं।

एक व्यक्ति जानना चाहता है कि ऐसा क्यों होता है? लेकिन यह सवाल गलत है। सवाल तो यह है कि ऐसा क्यों नहीं होना चाहिए? हम लोगों से यह उम्मीद क्यों करते हैं कि उन्हें पर्सनल फाइनेंस के काम के बारे में पर्याप्त जानकारी होनी चाहिए। भले व्यक्ति पढ़ा-लिखा हो, तब भी उसे यह जानकारी होना जरूरी क्यों है। उन्हें इस सबके बारे में कैसे पता चलेगा? क्या लगता है कि उन्हें कौन इस बारे में बताएगा या समझाएगा?

इन सवालों का जवाब असहज करने वाला लेकिन सच है कि स्कूल या कॉलेज की किसी भी पढ़ाई में पर्सनल फाइनेंस की जानकारी नहीं दी जाती है। न ही इस तरह की जानकारी जुटाने का कोई भरोसेमंद स्रोत है। निश्चित रूप से लोग मीडिया की ओर रुख कर सकते हैं, जैसा कि इस स्तंभ को पढ़ने वाले करते हैं। हालांकि, इससे भी पहले अंडा आया या मुर्गी जैसे हालात ही बनते हैं। मीडिया में उपलब्ध जानकारियों से सही जानकारी निकालने, फिल्टर करने और जानकारियों का मूल्यांकन करने के लिए भी व्यक्ति को कुछ आधारभूत जानकारी होनी चाहिए। हालांकि, किसी को अगर कोई जानकारी न हो तो शुरुआत बहुत मुश्किल होती है।

कुल मिलाकर, प्रभावी रूप से लोगों तक पहुंचने वाली जानकारी का स्रोत वही बनते हैं जो खुद ऐसे फाइनेंशियल प्रोडक्ट बेचते हैं। हालांकि, वह जानकारी वास्तव में बस बिक्री का संदेश जैसा होता है और यह ऐसा इलाज है जो बीमारी से भी ज्यादा खतरनाक है। स्पष्ट रूप से कहें, एक सीधा सा नियम है कि कोई फाइनेंशियल प्रोडक्ट बेचने वाले के लिए जितना फायदेमंद होगा, खरीदने वाले के लिए उतना ही खराब होगा।

वस्तुत: कुछ महीने पहले मैंने लिखा था कि वित्तीय साक्षरता और पर्सनल फाइनेंस मैनेजमेंट कैसे एक-दूसरे के विरोधाभासी हैं। इसका कारण है कि वित्तीय साक्षरता के नाम पर जो बताया जाता है वह मुख्य रूप से फाइनेंशियल प्रोडक्ट को लेकर अच्छी-अच्छी बातें होती हैं और इनमें ऐसी आधारभूत जानकारियां बहुत कम होती हैं, जिनसे कोई व्यक्ति फैसला लेने में सक्षम हो सके।

आमतौर पर युवा लोग पैसे के बारे में उसी तरह से जान पाते हैं जो स्थिति उनके सामने आती है। वे इसे अपने माता-पिता से पाते हैं और खर्च करते हैं। वे अपने अभिभावकों को दुकानों और एटीएम में कार्ड स्वाइप करते देखते हैं, और बस यही जानते हैं। आदर्श रूप में ये बातें माता-पिता को अपने बच्चों को सिखानी चाहिए। हालांकि, यहां भी पहले अंडा या पहले मुर्गी वाली हालत है। हमने शुरू में ही कहा कि माता-पिता को तो खुद ही ज्यादा जानकारी नहीं होती है। इसका वास्तव में एक ही समाधान हो सकता है, पारंपरिक शिक्षा में पर्सनल फाइनेंस को पूरी तरह से शामिल किया जाए।

रिटायरमेंट की उम्र तक भी इस बात को मुश्किल से ही जान पाना कि पैसा कैसे काम करता है, इससे बेहतर होगा कि सेकेंडरी स्कूल के स्तर पर ही इसकी शिक्षा शुरू हो जाए। इसे छोटे-छोटे प्रयोगों के द्वारा भी समझाया जाना चाहिए और स्कूल-कॉलेज के अंतिम दिनों तक इसे समझाते रहना चाहिए। कहने का अर्थ है कि बच्चे जो शिक्षा लें, उन्हें पेशेवर तरीके से उसका इस्तेमाल करने और पैसे कमाने में भी प्रयोग करना सिखाना चाहिए। शिक्षा में थोड़ा सा हिस्सा इस बात का होना चाहिए जो उन्हें अपने पैसे की हिफाजत करना सिखाएं।

निसंदेह, कहा जा सकता है कि ऐसा कुछ होने की संभावना बहुत कम है। सीधे शब्दों में कहें तो कुछ अच्छे नतीजे दे सकने के मामले में भारतीय शिक्षा व्यवस्था की क्षमता बढ़ने की बजाय घट रही है। फिर भी, जितनी जल्दी इस बात का एहसास होगा कि इस तरह की कोई जरूरत है, कुछ हासिल करने का मौका भी उतना ही ज्यादा होगा।

(यह लेख धीरेन्द्र कुमार ने लिखा है जो कि वैल्यू रिसर्च के सीईओ हैं।)


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