किसानों का ख्याल रखे बिना कैसे साकार होगा सरकार के न्यू इंडिया का सपना
चुनाव से पहले जिस तरह किसानों के लिए सालाना 6000 रुपये की प्रत्यक्ष सहायता योजना की घोषणा की गई उससे उम्मीद जगी थी कि सरकार किसानों को संकट से उबारना चाहती है
नई दिल्ली, राजीव सिंह। गरीबी को लेकर हाल ही में जारी संयुक्त राष्ट्र की रपट ने न्यू इंडिया की ओर बढ़ रहे भारत के प्रयासों पर मुहर लगा दी है। इस रपट का सार बताता है कि भारत में स्वास्थ्य, स्कूली शिक्षा समेत विभिन्न क्षेत्रों में विकास से लोगों को गरीबी से बाहर निकालने में भारी प्रगति हुई है। इससे वर्ष 2006 से 2016 के बीच 27 करोड़ से अधिक लोग गरीबी से बाहर आने में सफल रहे हैं। इन आंकड़ों पर हर भारतीय नागरिक को गर्व होना चाहिए लेकिन मोदी सरकार को इस उपलब्धि पर ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है। यह रिपोर्ट जिस अध्ययन के आधार पर तैयार की गई है उसमें मोदी सरकार के सिर्फ दो साल के आंकड़े शामिल हैं। इसकी अधिकतम उपलब्धि यूपीए नीत मनमोहन सरकार के खाते में जाती है।
यह कटु सत्य है कि देश की करीब दो-तिहाई आबादी गांवों में रहती है जिसकी रोजी-रोटी खेतीबाड़ी पर निर्भर है। जाहिर है कृषि क्षेत्र के विकास के बिना भारत से गरीबी दूर नहीं हो सकती। इसी को देखते हुए मोदी सरकार ने अपनी पहली पारी में वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने का लक्ष्य रखा था। लेकिन इस दिशा में अभी तक जो प्रगति हुई है उसे देखकर को यही लगता है कि यह लक्ष्य पूरा नहीं हो पाएगा।
दरअसल, मोदी 2.0 सरकार के पहले बजट से कृषि क्षेत्र को बड़ी उम्मीदें थी। चुनाव से पहले जिस तरह किसानों के लिए सालाना 6000 रुपये की प्रत्यक्ष सहायता योजना की घोषणा की गई और चुनाव से ऐन वक्त पहले इस में सभी श्रेणी के किसानों को शामिल किया गया, इससे उम्मीद की किरण जगी थी। वैसे भी फिलहाल देश का बड़ा हिससा सूखे की चपेट में है। घरेलू अर्थव्यवस्था सुस्ती के दौर से गुजर रही है। ऐसे में कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में जान फूंकने की जरूरत है। लेकिन बजट से किसानों की उम्मीदों को भारी झटका लगा है।
किसानों की आय बढ़ाने, उपज का लाभकारी मूल्य दिलाने, खेती को फायदेमंद बनाने और किसानों की आत्महत्याएं रोकने जैसी चुनौतियों से निपटने के लिए इस बजट में कारगर उपाय नहीं किए गए हैं। घोषणाओं के नाम पर चालू वित्त वर्ष में कृषि मंत्रालय के आवंटन को 78 फीसद बढ़ाकर 1.39 लाख करोड़ रुपये कर दिया है। इसमें से 75,000 करोड़ रुपये की राशि सरकार की प्रधानमंत्री किसान योजना के लिए है।
इसके अलावा सरकार ने चालू वित्त वर्ष में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के लिए आवंटन को बढ़ाकर 14,000 करोड़ रुपये करने का भी फैसला किया है। देखने में तो ये आंकड़े भले ही भारी-भरकम लग सकते हैं लेकिन हकीकत यह है कि देश के कुल बजट आवंटन में कृषि क्षेत्र का हिस्सा दो फीसद से भी कम है। ऐसे में किसान की माली हालत सुधर पाएगी, इस पर संशय है।
आम चुनाव से पहले सरकार ने अमूल की सफलता को देखते हुए देश में 10,000 सहकारी समितियां बनाने का ऐलान किया था ताकि किसानों की आय बढ़ाई जा सके। इसी तरह कृषि से जुड़े उद्यमों में निजी निवेश बढ़ाने का खाका पेश किया गया था। कृषि क्षेत्र में नए उद्यमी और प्रौद्योगिकी आए यह अच्छी बात है लेकिन बजट में इस पर कोई गौर नहीं किया गया है। बजट में किसान सम्मान योजना को लेकर जरूर चर्चा हुई, लेकिन इसका श्रेय केंद्र सरकार पहले ही ले चुकी है और चुनाव में इसे भुनाया भी जा चुका है। इसके आगे बजट में कुछ नहीं है।
ऐसा लगता है कि सरकार कृषि क्षेत्र और किसानों की सभी मुश्किलों का समाधान 6000 सालाना मदद के भरोसे छोड़कर चिंतामुक्त हो गई है जबकि किसानों की हालत सुधारने के अलावा अर्थव्यवस्था की सुस्ती दूर करने के लिए भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ाना बेहद जरूरी है। अपने चुनावी घोषणा-पत्र में भाजपा ने कृषि और ग्रामीण विकास के लिए 25 लाख करोड़ रुपये के निवेश की बात कही थी लेकिन बजट में इस मुद्दे पर कोई चर्चा नहीं हुई है।
सरकार ने किसानों को जड़ों की तरफ लौटने और जीरो बजट खेती अपनाने का मंत्र दिया है। इसमें कोई दोराय नहीं कि रसायनिक खाद और कीटनाशक के बिना प्राकृतिक आधार पर खेती करने के कई फायदे हैं लेकिन बहुत कम लोग इस परंपरा को अपना रहे हैं। ऐसे सवाल यह है कि आखिर लागत जीरो होने के बावजूद किसानों ने अभी तक इसे अपनाया क्यों नहीं, कोई किसान भला कर्ज लेकर रसायनिक खाद क्यों खरीदना चाहेगा, जीरो बजट वाली खेती कौन नहीं करना चाहेगा? सरकार को हर हाल में इन सवालों के जवाब तलाशने चाहिए।
हालांकि, खेती में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का इस्तेमाल घटाना पर्यावरण, स्वास्थ्य और लागत घटाने के लिए जरूरी है इसलिए जैविक या पारंपरिक खेती को बढ़ावा मिलना चाहिए। लेकिन यह काम किसानों को सिर्फ सुझाव या सलाह देने से नहीं होगा। बजट में सरकार ने यही किया। एक तरफ किसानों को जीरो बजट खेती अपनाने की सलाह दी तो दूसरी तरफ रसायनिक खाद पर सब्सिडी 70,000 करोड़ रुपये से बढ़ाकर करीब 80,000 रुपये कर दी। इससे साफ जाहिर होता है कि सरकार यही मान रही है कि जीरो बजट फार्मिंग एक जुमला है।
वास्तव में रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल बढ़ेगा। फिर परंपरागत खेती को बढ़ावा कैसे मिलेगा? जीरो बजट खेती को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने जीरो बजट रखा है। बही-खाते में इसके लिए अलग से कोई प्रावधान नहीं है जबकि खेती के किसी नए तौर-तरीके को करोड़ों किसानों तक पहुंचाना, उन्हें समझाना बड़ा काम है। परंपरागत खेती को बढ़ावा देने वाली केंद्र सरकार की एकमात्र योजना का बजट महज 300 करोड़ रुपये है जिसे बढ़ाकर 325 करोड़ रुपये किया गया है। सवाल यह है कि 25 करोड़ रुपये का आवंटन बढ़ाकर 14 करोड़ किसानों को जीरो बजट खेती कैसे सिखाई जा सकती है?
मोदी सरकार ने भारत को वर्ष 2024 तक पांच खरब डालर की अर्थव्यवस्था बनाने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है जिसी ग्रामीण क्षेत्र के विकास के बिना किसी भी सूरत में हासिल नहीं किया जा सकता। चिंता की बड़ी बात यह है कि देश की अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र की भागीदारी घटती जा रही है। वर्ष 2004 से 2011 के बीच करीब दो करोड़ किसान खेती छोड़ चुके हैं। नीति आयोग का अनुमान है कि 2022 तक 13 फीसद से अधिक किसान खेती से बाहर हो जाएंगे। वर्ष 2014-18 के बीच देश में कृषि क्षेत्र का सकल उत्पादन महज 2.9 फीसद बढ़ा और किसानों की आय में सिर्फ दो फीसद की वाषिर्क वृद्धि हुई। इस आधार पर वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने के लिए इनकी वास्तविक आय में 11 फीसद की वृद्धि होनी चाहिए। मौजूदा परिदृश्य में इसे हासिल कर पाना संभव नहीं दिख रहा है।
सरकार की समझ में यह बात अच्छी तरह से आनी चाहिए कि उद्योग और सेवा क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण घटक हैं। इनकी 60 फीसद मांग ग्रामीण क्षेत्र से ही आती है। ऐसे में जब तक कृषि और ग्रामीण क्षेत्र की प्रगति नहीं होगी तब तक इन दूसरे घटकों की प्रगति भी बाधित रहेगी। जाहिर है कि किसानों की सुध लिए बिना सरकार का न्यू इंडिया का सपना साकार नहीं हो पाएगा।
(लेखक कार्वी स्टाक ब्रोकिंग के सीईओ हैं)