पर्सनल फाइनेंस सेक्टर में अक्लमंदी बन सकती है नुकसान की वजह
इन्वेस्टमेंट स्कीम में धोखे का शिकार होने वाले लोगों के पास मानक के हिसाब से वित्तीय क्षेत्र की ज्यादा जानकारी होती है
ज्यादा पढ़ो, ज्यादा जानकारी हासिल करो, ज्यादा फायदा होगा। यह ऐसी बात है जो हममें से हर किसी ने कभी ना कभी सुनी है और इस पर भरोसा भी करते हैं। लेकिन पर्सनल फाइनेंस के मामले में यह सिद्धांत काम नहीं करता। पर्सनल फाइनेंस में अक्सर ज्यादा जानने वाले धोखा खा जाते हैं। हमारी शिक्षा पद्धति वित्तीय शिक्षा के नाम पर जो जानकारी देती है, उसे किसी भी लिहाज से पर्याप्त नहीं कहा जा सकता है। इस पढ़ाई से निकलने वाला व्यक्ति अक्सर इस भ्रम में पड़ जाता है कि अपने ज्ञान के दम पर वह ज्यादा जोखिम उठा सकता है। जोखिम उठाने की यही सोच उसे धोखे का शिकार बना देती है। इसकी तुलना में कम जानकार लोग अक्सर ज्यादा संभलकर कदम रखते हैं और धोखे से बचे रहते हैं।
हम में से हर कोई इस बात पर भरोसा करता है कि ज्यादा ज्ञान, ज्यादा काम आता है। शायद ही कोई ऐसा होगा, जिसे इस बात में कोई संदेह हो कि ज्यादा जानना अच्छा होता है। क्या आपने कभी सोचा है कि आपकी यह सोच गलत भी हो सकती है? कुछ मामले ऐसे भी हैं, जहां ज्यादा जानना, ज्यादा नुकसान की वजह बन जाता है। पर्सनल फाइनेंस भी ऐसा ही सेक्टर है। पर्सनल फाइनेंस के मामले में ज्यादा ज्ञान से ज्यादा फायदा वाले विचार पर संदेह करने के पर्याप्त कारण हैं। 2006 में अमेरिका में इस संबंध में एक अध्ययन किया गया था। इसमें पाया गया कि जो लोग वित्तीय रूप से ज्यादा जानकार होते हैं, प्राय: वही लोग वित्तीय धोखाधड़ी के भी ज्यादा शिकार होते हैं।
अध्ययन के दौरान एक टेस्ट लिया गया। इसके मुताबिक, इन्वेस्टमेंट स्कीम में धोखे का शिकार होने वाले लोगों के पास मानक के हिसाब से वित्तीय क्षेत्र की ज्यादा जानकारी होती है। अन्य लोगों की तुलना में ऐसे लोगों के ज्ञान में 27 फीसद का अच्छा खासा अंतर देखने को मिला। भारत में इस तरह का कोई अध्ययन तो नहीं हुआ है, लेकिन ज्यादातर निवेशकों के मामले में मैंने ऐसा ही महसूस किया है।
हालांकि मेरा मानना है कि इस समस्या की असल वजह है फाइनेंशियल लिटरेसी यानी वित्तीय शिक्षा का सही अर्थ नहीं समझ पाना। इसे समझने की कोशिश करते हैं। परिभाषा के स्तर पर देखें तो कोई व्यक्ति यदि गलत वित्तीय फैसले लेता है, इसका अर्थ है कि वह फाइनेंशियल मोर्चे पर शिक्षित नहीं है। उसने जो भी पढ़ाई की हो, लेकिन वह पढ़ाई वित्तीय शिक्षा नहीं है। भारत में तकरीबन पूरी शिक्षा प्रणाली में यही दोष है। एक ऐसा व्यक्ति एमबीए कर लेता है, जिसे शायद यह भी पता नहीं होगा कि भारत की आबादी कितनी है या प्रतिशत की गणना कैसे करते हैं। ऐसे व्यक्ति के पास कहने को कागज की ऐसी डिग्री तो हो सकती है जो उसके पढ़े-लिखे होने का दावा करे, लेकिन असल में वह अशिक्षित है। इसी तहर से कोई भी व्यक्ति जो फाइनेंस के किसी मानक प्रश्नपत्र का उत्तर तो दे सके, लेकिन अपन सेविंग को मैनेज नहीं कर सके, उसे वित्तीय रूप से साक्षर नहीं कहा जा सकता।
अब सवाल उठता है कि क्या हमारे वित्तीय साक्षरता कार्यक्रम में कुछ गलती है? इस तरह के सभी पाठ्यक्रमों में व्यक्ति को पैसे, वित्तीय योजना, निवेश के अलग-अलग माध्यमों, बीमा, लोन, डिपोजिट, ब्याज आदि के बारे में जानकारी दी जाती है। अब सवाल यह उठता है कि इन बातों की जानकारी होने से व्यक्ति धोखाधड़ी का ज्यादा शिकार क्यों होता है? इसका जवाब इस कहावत में छिपा है कि कम जानकारी खतरनाक होती है। उनकी पढ़ाई उन्हें इस बात का भरोसा देती है कि वो ज्यादा जोखिम उठा सकते हैं, और यही बात उनके लिए खतरनाक हो जाती है।
आपका सवाल हो सकता है कि ऐसा होता क्यों है? वित्तीय शिक्षा के लगभग सभी पाठ्यक्रम इस बात पर केंद्रित होते हैं कि किसी बचतकर्ता को क्या करना चाहिए, लेकिन उनमें से कोई पाठ्यक्रम यह नहीं बताता कि उन्हें क्या नहीं करना चाहिए। उनमें से लगभग हर किसी का मानना होता है कि रेगुलेटेड और ऑर्गनाइज्ड फाइनेंशियल सर्विस बेचने वाली कंपनियों में कोई गड़बड़ नहीं है। उदाहरण के तौर पर अगर आप चिट फंड या ऐसी ही किसी योजना में नहीं फंसते हैं, तो सब ठीक रहता है।
यह इस वित्तीय दुनिया को देखने का वह नजरिया है जो गांधी जी के दूसरे बंदर की याद दिलाता है। इस सिद्धांत के आधार पर हर पर्सनल फाइनेंस से जुड़ी सर्विस किसी ना किसी सरकारी या अन्य नियामक के तहत संचालित होती है, और इस आधार पर इन सेवाओं को लेने वाले किसी निवेशक पर कोई खतरा नहीं हो सकता। यह शिक्षा का आलोचना नहीं करने वाला मॉडल है, जो किसी भी कानूनी व्यवस्था को लेकर कोई नकारात्मक बात नहीं कहना चाहती।
दुर्भाग्य से यह तरीका बेकार है। वास्तविक स्थिति यह है कि फाइनेंशियल सर्विस प्रदाता का प्रयास अपने मुनाफे को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाना ही होता है। इस मामले में ऐसे लोग जो फाइनेंशियल सर्विस प्रोडक्ट को लेकर पुरानी सोच वाले होते हैं और अपने बड़े-बुजुर्गो की लीक से हटकर प्रोडक्ट चुनने से बचते हैं, वो अक्सर ऐसी परेशानियों से भी बचे रहते हैं। हालांकि इस मामले में यह भी ध्यान रखने की बात है कि पुरानी लीक के नाम पर पीपीएफ या एफडी से बंधे रहना भी फायदेमंद नहीं कहा जा सकता। इनसे मिलने वाला रिटर्न तो अक्सर महंगाई की भेंट चढ़ जाता है।
इस सभी समस्याओं से निपटने के लिए जरूरत है एक असल वित्तीय शिक्षा प्रोग्राम की। एक ऐसी वित्तीय शिक्षा जिसमें लोगों को यह बताया जाए कि उन्हें क्या नहीं करना चाहिए। जाहिर है कि यह सब शिक्षा के पारंपरिक माध्यमों से नहीं होगा। इसके लिए हमें या तो अपने कड़वे अनुभवों से सीखना होगा, या फिर दूसरों के अनुभव से।
(इस लेख के लेखक धीरेंद्र कुमार हैं जो कि वैल्यू रिसर्च के सीईओ हैं।)