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पुरस्कार कभी भी उसे प्राप्त करने वाले से बड़े नहीं हो सकते। विचार करें तो हम पाएंगे कि पुरस्कार व्यक्ति के व्यक्तित्व की विराटता को समाप्त कर देता है. उसे सीमा में बाँध देता है. इसको पाने का मतलब है "THE END" अर्थात तुम्हारी हैसियत यहीं तक थी. आखिर एक तमगा पूरे व्यक्तित्व का मूल्यांकन कैसे कर सकता है. जब तक किसी को पुरस्कार मिलता है उससे पहले ही वह समाज को इतना कुछ दे चुका होता है कि इनाम उसके कार्यों के आगे छोटे पड़ जाते हैं. लोग किसी कार्य को दो अलग अलग मंशा रखकर करते हैं. एक तो वह जिसने अपना कार्य 'पैसा, ऐशो आराम' हासिल करने के लिए किया, और किया भी, दूसरा जिसका लक्ष्य चुपचाप समाज को अपना सर्वश्रेष्ट देना था.
मेरी दृष्टि में पुरस्कार केवल बच्चों को ही दिए जाने चाहियें . क्योंकि यह उनके सर्वांगीण विकास की निरंतरता को गति प्रदान करते हैं और उनमे आत्मविश्वास जगाते हैं. लेकिन परिपक्व मनुष्य का पुरस्कार के पीछे भागना उनकी मानसिक अपरिपक्वता को दर्शाता है। ख़ास कर तब जब वह इसे प्राप्त करके अपनी मौलिक आज़ादी गिरवी रख दे. पुरस्कार प्राप्त करने वाला गन्दी राजनीती में फंसकर उस तत्कालीन सत्ता का पिट्ठू कहलाता है. जिसके शासन काल में उसने पुरस्कार प्राप्त किया हो. बदले में उसे उम्र भर सरकार का गुणगान करना होगा। ऐसे में पुरस्कारों की क्या मर्यादा रह गयी. बुद्धिजीविओं को इस पर विचार करना होगा। जय हिन्द . !