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अखबार में खबर छपी की फलाने जगह फलाने के घर में बहु को लगी स्टोव से आग हमने खबर पढ़ी और ऐसे नजरअंदाज किया कि जैसे कुछ हुआ ही न हो।
ना हमारे माथे पर शिकन आई ना ही हमें कोई दुख हुआ।
हम होते होते इतने पाषाण हो चुके हैं कि अब हमें फर्क पड़ना बंद हो गया
ऐसा नहीं है कि हम सब जानते न हो कि क्या चल रहा है
हम जानते हैं कि स्टोव से आग कैसे लगी थी
हम यह भी जानते हैं कि “बाथरूम मैं फिसल गई थी”
फिसलन क्रिया कितनी सच है
फोन के उस ओर रोती हुई आवाज जब कहती है कि “मैं ठीक हूँ बस आँख में जरा सा कचरा चला गया”
हम उस कचरे के तिनके से भी रूबरू हैं
हमें सिसकियों में छुपी चीखों का अंदाज़ा है
हमें झाड़ू-पोंछा में झुलसे सपनों का भी भान है
सब तो पता है हमें
फिर भी न जाने क्यूं हम गुमसुम चुप हैं
क्यूं चुप हैं पता नहीं पर
कैसे चुप हैं
यह बात खटकती है मुझे !!
और यही बात आपको भी खटकनी शुरू होनी चाहिए और अगर नहीं भी खटकती है तो कोई बात नहीं पर यह बात जहन में रहनी चाहिए कि आज ख़बरें किसी और कि हैं कल हमारी भी हो सकती हैं
हमें फिर से भावों से भरा होने कि जरुरत है
जो झरने भीतर बहने बंद हो गए हैं उनमे फिर से रसधार बहाने कि जरुरत है