कब होगी इस अंधेरी रात की सुबह..
------------------------------------------------------- मनोज कुमार मरौना (सुपौल) सिकरहट्ट
-------------------------------------------------------
मनोज कुमार, मरौना (सुपौल) : सिकरहट्टा-मंझारी निम्न बांध पर पूस-माघ की रात में पछुआ हवा सितम ढा रही है और कुहासा रात को और खौफनाक बना देता है। लोग सुबह होने के इंतजार में रहते हैं कि धूप निकलेगी तो ठंड से राहत मिलेगी। लोग यही कहते मिलते हैं कि इस अंधेरी रात की कब सुबह होगी। ये तटबंध के अंदर के विभिन्न गांवों के लोग हैं जो बाढ़ से विस्थापित होकर यहां शरण लिए हुए हैं। इनकी यहां पर बस्ती बसी हुई है। बाढ़ के समय ये यहां आकर बसते हैं। कोसी के कोप से जिनके घर की जमीन कट जाती है, वे यहां के स्थायी वाशिदे बन गए हैं। जिनकी जमीन नहीं कटती वे बाढ़ के बाद फिर अपने गांव लौट जाते हैं। हालांकि, कुछ लोगों को पुनर्वास के तहत जमीन भी मिली है।
सिकरहट्टा-मंझारी निम्न बांध पर विस्थापितों की जिदगी परेशानी में है। प्रखंड क्षेत्र के सिसोनी छिट, जोबहा खास, घोघररिया पंचायत के अमीन टोला, खुखनाहा, माना टोला, लक्ष्मीनिया गांव से हजारों की संख्या में कोसी की बाढ़ से विस्थापित हुए परिवारों का यहां आशियाना है। बाढ़ प्रभावित वैसे लोग जिनके पास पैसा है तो उनलोगों ने जमीन खरीद कर घर बसा लिया लेकिन जिसके पास पैसा नहीं है वे कई सालों से सुरक्षा बांधों पर और उसके किनारे झोपड़ी लटका कर जीवन यापन कर रहे हैं। बाढ़ के कारण साल दर साल यहां की आबादी बढ़ती जाती है। खुखनहा, अमीन टोला, माना टोला लक्षमीनियां आदि गांव के मु. इजहार, मु. ताहिर, मु. गफार, मु. मनिफ, गजाधर यादव, मुरली यादव, रोहित यादव, सोहन मुखिया, डोमी मुखिया, राजधर यादव, सीता देवी समेत सैकड़ों लोगों का कहना है कि बाढ़ में उनके घर कोसी में विलीन हो गए। दो वर्षों से हमलोग इधर-उधर बाल-बच्चे व माल-मवेशी लेकर भटक रहे हैं। जमीन कोसी काट ले गई। बैंक से कृषि ऋण लिए थे नहीं चुका सके हैं अब बार-बार नोटिस मिल रही है। यही हाल सिसौनी पंचायत के सिसौनी छिट, जोबहा खास के सात, आठ, नौ और दस वार्ड के लोगों का है। विस्थापित रामू यादव, राम देव सदा, दुर्गानंद यादव, गंगाराम राम, चनन देवी, अमेरिका देवी, इंजुला देवी, सोना देवी आदि का कहना है कि जमीन और घर कोसी नदी की तेज धारा में बह गया कुछ बचा नहीं। ऊपर वाले के रहमोकरम पर जी रहे हैं। कोई देखने वाला नहीं है। गर्मी-बरसात तो जैसे-तैसे काट लिए लेकिन अब पूस की रात काटनी मुश्किल हो रही है। घर में साड़ी टांगकर रहते हैं लेकिन पछिया साड़ी को कहां माननेवाली है। साड़ी को भेदकर जब हवा अंदर आती है तो शरीर में सुई सी चुभती है। दिनभर बच्चे इधर-उधर से खर-पतवार चुनकर लाते हैं और रातभर उसे जलाकर सुबह होने का इंतजार करते हैं। अब तो सुबह होने के बाद भी धूप नहीं निकलती है। ऐसा लगता है कि हमलोगों के लिए अब सुबह होगी ही नहीं।