..और बहनें तुड़वाती हैं भाई के हाथों खिलौने
सुपौल। खिलौने बच्चों को सबसे प्यारे होते हैं, बच्चे इसे जतन से सहेजते हैं लेकिन मिथिलांचल में भाई-बहन के प्यार के पर्व सामा-चकेवा में खिलौने तोड़ने की अनोखी परंपरा है।
सुपौल। खिलौने बच्चों को सबसे प्यारे होते हैं, बच्चे इसे जतन से सहेजते हैं लेकिन मिथिलांचल में भाई-बहन के प्यार के पर्व सामा-चकेवा में खिलौने तोड़ने की अनोखी परंपरा है। बहनें अपने भाई से खिलौने तुड़वाती हैं। है तो यह पर्व लेकिन सामा-चकेवा के अलावा विभिन्न तरह के खिलौने बनाए जाने के कारण इसे सामा खेलना कहा जाता है। इसमें बच्चे ही शामिल नहीं होते बल्कि शादीशुदा महिलाएं भी मायके सामा खेलने के लिए आती हैं। मान्यता है कि इससे भाई के घर सुख-समृद्धि में बढ़ोतरी होती है। छठ पर्व की समाप्ति बाद सामा-चकेवा की शुरुआत होती है। छठ घाट से लौटते समय बहनें वहां से मिट्टी लेकर आती है और उसी मिट्टी से सामा-चकेवा बनाती है। सामा-चकेवा के साथ अन्य कई खिलौने भी बनाए जाते हैं जिसमें तितिर, भंवरा, सतभैया, ढोलबज्जा पौती सहित दर्जनों तरह के खिलौने शामिल हैं। इसके बनते ही महिलाएं रात के समय इन्हें ओस चटाने के लिए ले जाती हैं। इस दौरान गीत गाई जाती है। यह सिलसिला कार्तिक पूर्णिमा की रात विसर्जन तक जारी रहता है। विसर्जन के दिन विशेष तैयारी की जाती है। सामा को ले जाने के लिए डाला सजाया जाता है। इसमें सामा सहित अन्य खिलौने लेकर बहनें गीत गाती हुई किसी जोते हुए खेत या पोखर पर ले जाती हैं जहां इसका विसर्जन किया जाता है। इसमें वे अपने द्वारा तैयार खिलौने भाई को देती है और भाई उसे तोड़-तोड़कर फेंकता जाता है। इसके बाद पाट से तैयार चुगला और कास से तैयार वृंदावन में आग लगाई जाती है और बहनें भाई की मंगलकामना की गीत गाते हुए इसे जलाती हैं। कार्तिक पूर्णिमा की रात शनिवार को सामा विसर्जन का सिलसिला देर रात तक जारी रहा। कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने अपने पुत्री से नाराज होकर पक्षी बन जाने का श्राप दे दिया। सामा पक्षी बन गई लेकिन चकेबा कठिन तप से उसे फिर से उसी रूप में ले आया। इसलिए भाई-बहन के प्यार में यह पर्व मनाए जाने की परंपरा है।