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उगाते उजला सोना, फिर भी किस्मत का रोना

-कोसी के इलाके में मखाना उत्पादन की अपार संभावनाओं पर मंडराता रहता संसाधनों की कमी क

By JagranEdited By: Published: Thu, 21 Feb 2019 12:47 AM (IST)Updated: Thu, 21 Feb 2019 12:47 AM (IST)
उगाते उजला सोना, फिर भी किस्मत का रोना
उगाते उजला सोना, फिर भी किस्मत का रोना

-कोसी के इलाके में मखाना उत्पादन की अपार संभावनाओं पर मंडराता रहता संसाधनों की कमी का बादल

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-जलकुंभी, प्रसंस्करण, भंडारण और उन्नत बीज की कमी का रोना रोते रहते किसान

-गुर्री से लावा बनाने की लंबी और जटिल है प्रक्रिया, इससे बचना चाहते हैं किसान

-परेशानियों के कारण कम कीमत में मखाना की गुर्री बेचना किसानों की हो जाती है मजबूरी

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जागरण संवाददाता, सुपौल : कोसी के इलाके में मखाना के रूप में किसान उजला सोना तो उगाते हैं लेकिन किस्मत का रोना रोते रहते हैं। मखाना उत्पादन की अपार संभावनाओं पर संसाधनों की कमी के बादल मंडराते रहते हैं जो किसानों को किस्मत के भरोसे छोड़ देते हैं। मखाना उत्पादकों के लिए जलकुंभी, प्रसंस्करण, भंडारण और उन्नत बीज सबसे बड़ी समस्या है।

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परंपरागत मखाना की इन इलाकों में होती है खेती

कोसी तटबंध के किनारे सीपेज के पानी का जमाव रहता है। इससे पानी वाली जमीन बेकार रहती है या फिर इसमें परंपरागत मखाना की खेती होती है। इसकी पैदावार अधिक नहीं है। एक हेक्टेयर में 12-13 ¨क्वटल मखाना के गुर्री का उत्पादन होता है।

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जलकुंभी से किसान परेशान

सीपेज वाले इलाके में जलकुंभी का साम्राज्य स्थापित हो गया है। पानी में जलकुंभी रहने के कारण एक तो मखाना के पौधे ठीक से नहीं निकलते और अगर निकलते भी हैं तो पैदावार ढंग की नहीं होती। जलकुंभी के कारण मखाना के पौधों का पोषण नहीं हो पाता है। दूसरी ओर जलकुंभी के कारण मखाना की गुर्री निकालने में भी परेशानी होती है।

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भंडारण है किसानों की समस्या

मखाना की गुर्री निकाले जाने के बाद इसकी प्रसंस्करण की बारी आती है लेकिन इसकी समुचित व्यवस्था यहां नहीं है। मखाना की गुर्री निकालने से लेकर लावा बनाने तक का काम बाहरी मजदूरों के सहारे होता है। गुर्री से लावा निकालने तक प्रक्रिया लंबी और जटिल है जो मजदूरों के सहारे होता है। ऐसे में किसान इस परेशानी से बचने के लिए गुर्री ही बेच लेते हैं जो किसानों के लिए फायदेमंद नहीं होता। इसकी कीमत भी किसानों को मनमाफिक नहीं मिल पाती है। दूसरी ओर अगर किसान इसका लावा तैयार कर लेते हैं तो इसके भंडारण की समस्या उत्पन्न होती है। लावा जगह अधिक छेकता है और उत्पादन के मुताबिक लावा तैयार कर रखना किसानों के बूते की बात नहीं होती लिहाजा किसान गुर्री बेचना ही मुनासिब समझते हैं।


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