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खेल से खिलवाड़, स्कूलों में नहीं बजती आठवीं घंटी

वह भी एक जमाना था। जब सरकारी विद्यालयों में खेल के लिए एक विशेष आठवीं घंटीबजती थी। इस घंटी की आवाज कानों तक पहुंचने भर की देर रहती विद्यार्थी विद्यालय के मैदान में खेलने को दौड़ पड़ते। परंतु आज तो उसकी कल्पना भी बेमानी है।

By JagranEdited By: Published: Fri, 13 Mar 2020 12:05 AM (IST)Updated: Fri, 13 Mar 2020 06:16 AM (IST)
खेल से खिलवाड़, स्कूलों में नहीं बजती आठवीं घंटी
खेल से खिलवाड़, स्कूलों में नहीं बजती आठवीं घंटी

समस्तीपुर । वह भी एक जमाना था। जब सरकारी विद्यालयों में खेल के लिए एक विशेष 'आठवीं घंटी'बजती थी। इस घंटी की आवाज कानों तक पहुंचने भर की देर रहती, विद्यार्थी विद्यालय के मैदान में खेलने को दौड़ पड़ते। परंतु, आज तो उसकी कल्पना भी बेमानी है। सरकारी स्कूलों में अब खेल की घंटी नहीं बजती। न ही खेल को लेकर अब शिक्षक सजग हैं। जिले में कुल 2545 प्राथमिक, मध्य व हाई स्कूल हैं। इन स्कूलों में बच्चों की संख्या भी गिनी-चुनी ही होती। इसलिए, उनको भी खेलने-कूदने से ज्यादा मतलब नहीं रह जाता। जबकि, स्कूल जानेवाले बच्चों के लिए खेलना-कूदना बहुत जरूरी है। इससे न सिर्फ शारीरिक, बल्कि मानसिक विकास भी होता है। पर, अब माहौल ऐसा नहीं रहा। हालांकि, प्राथमिक विद्यालयों में इंडोर गेम जरूर खेला जाता।

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स्कूलों में बड़ा मैदान तो है, पर खेल नहीं होता

शहर के अधिकतर सरकारी स्कूलों में खेलकूद की कोई नियमित गतिविधि नहीं होती। कई प्राथमिक विद्यालयों के पास अपनी भूमि या भवन नहीं है। लेकिन, जिन स्कूलों के पास अपना बड़ा मैदान है, वहां भी कुछ नहीं हो रहा। शहर के आरएसबी इंटर विद्यालय, मॉडल इंटर स्कूल, तिरहुत एकेडमी के पास अपना बड़ा मैदान है। लेकिन, वहां प्रत्येक दिन खेल की घंटी नहीं बजती। गोल्फ फील्ड उच्च विद्यालय के प्राचार्य शाह जफर इमाम ने बताया कि फिजिकल एजुकेशन के शिक्षक हैं। ऐसे में विद्यालय में मैदान ही छोटा है। उसमें खेलकूद की गतिविधि कराई जाती है।

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बदल रहा नजरिया

अब स्कूलों का नजरिया बदल रहा। ज्यादातर स्कूलों में शिक्षा से अलग गतिविधियों को बहुत कम महत्व दिया जा रहा। अब शिक्षा का मतलब केवल अकादमिक पढ़ाई ही रह गई है। शिक्षा का मतलब विद्यार्थी के संपूर्ण व्यक्तित्व को निखारना बहुत कम लोग समझते हैं। शांति भूषण पेशे से सरकारी विभाग में कर्मचारी हैं। 47 बसंत पार कर चुके शांतिभूषण के मन में स्कूलों से खेल गायब होने को लेकर बड़ी नाराजगी है। कहते हैं, अब कहां लगता है खेल का पीरियड। शिक्षा का व्यवसायीकरण हो गया है। बेटे के कंधे पर स्कूली बैग का बोझ देखकर टेंशन होता है। भोजपुरी की कहावत 'भोदा विद्यार्थी के बस्ता भारी'चरितार्थ हो रही है। खेल खत्म हो गया है।

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वर्जन

सभी स्कूलों में छात्र-छात्राओं को खेल का अवसर मिले, इसके लिए हमेशा से मेरा प्रयास रहा है। स्कूलों को आदेश भी दिया गया है कि वो अपने यहां खेल के लिए आठवीं घंटी की व्यवस्था नियमित रूप से करें।

बीरेंद्र नारायण

जिला शिक्षा पदाधिकारी, समस्तीपुर


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