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रोजी-रोटी के लिए लोगों की दिशा बदली, दशा जस की तस

कल शारदा सिन्हा के गाने सुन रहा था। गाना था पनिया के जहाज से पलटनिया बन के आइयो पिया..। गाने के साथ उन्होंने गिरमिटिया मजदूरों का जिक्र किया जो 100-125 वर्ष पहले मारीशस-फिजी गए थे। दूसरा गाना था कोठवा पे चढि़ के ताकिले पिया के राह..। दोनों गाने आज से 100 वर्ष पहले बिहार के मजदूरों का दूसरे प्रदेशों को रोजी-रोटी के लिए पलायन की स्थिति के ऊपर है।

By JagranEdited By: Published: Thu, 07 Nov 2019 11:26 PM (IST)Updated: Thu, 07 Nov 2019 11:26 PM (IST)
रोजी-रोटी के लिए लोगों की दिशा बदली, दशा जस की तस
रोजी-रोटी के लिए लोगों की दिशा बदली, दशा जस की तस

समस्तीपुर । कल शारदा सिन्हा के गाने सुन रहा था। गाना था 'पनिया के जहाज से पलटनिया बन के आइयो पिया..'। गाने के साथ उन्होंने गिरमिटिया मजदूरों का जिक्र किया, जो 100-125 वर्ष पहले मारीशस-फिजी गए थे। दूसरा गाना था 'कोठवा पे चढि़ के ताकिले पिया के राह..'। दोनों गाने आज से 100 वर्ष पहले बिहार के मजदूरों का दूसरे प्रदेशों को रोजी-रोटी के लिए पलायन की स्थिति के ऊपर है।

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सोचने लगा कि 50-100 वर्ष के पहले की इन स्थितियों में क्या बदलाव आया है। आज भी बिहार का नौजवान रोजी-रोटी की तलाश में ट्रेन पकड़ता है। अंतर ट्रेन की दिशा में आया है। पहले कोलकाता की ट्रेन पकड़ता था, अब दिल्ली की। सवाल उठता है कि इस हालत का जिम्मेदार कौन है? किसी से पूछिए जवाब मिलेगा, सरकार। सरकार मतलब कौन, सरकारी अफसर एवं नेतागण। पर, एक सवाल का जवाब आज तक नहीं मिला। ये सरकारी अमले में विभिन्न स्तरों पर बैठने वाले लोग मंगल ग्रह से तो नहीं आए हैं। हमारे समाज के लोग हैं। हमारे मित्रों या रिश्तेदारों में से हैं, जिनके बारे में गर्व से बताते हैं कि फलां बड़ा अधिकारी हमारा रिश्तेदार है। अगर वो बिहार की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार हैं तो क्या हमें इस पर कभी शर्म आई कि हमारा एक मित्र-रिश्तेदार भ्रष्ट एवं निकम्मा है।

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अर्थदंड से कूड़ा मुक्त हुआ विवि परिसर

पटना में आए जलजमाव को ही लीजिए। पटना शहर की एक बड़ी जनसंख्या को अमानवीय अवस्था से गुजरना पड़ा। पर, क्या हम जिम्मेदारी तय करना चाहते हैं? क्या पहली जिम्मेदारी उन सभी नागरिकों की नहीं, जो अपने घर का कूड़ा सामने की डस्टबिन की जगह नाली में फेंकते हैं। उन नालियों का हाल देखा। पंप भी काम नहीं कर पा रहा था। क्योंकि, पानी के साथ कूड़ा आ रहा था। यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है। विश्वविद्यालय परिसर में बाढ़ के समय गंदे पानी को निकालने में पंप हर एक-दो घंटे बाद जाम हो जाता था। क्योंकि, उसमें कूड़ा फंस जाता था। गोताखोरों को बुलाकर पंप की सफाई कराई जाती थी। समय व श्रम दोनों का नुकसान। जब इस वर्ष पूरे परिसर के सभी निवासियों को चेतावनी दी गई कि नाले में कूड़ा पाया गया तो उसके परिक्षेत्र में रहनेवाले सभी से 500 रुपये का अर्थदंड वसूला जाएगा। असर यह हुआ कि पूसा परिसर में जलजमाव नहीं हुआ। अब उन नागरिकों के गैरजिम्मेदाराना व्यवहार के लिए कौन जिम्मेदार माना जाए। कुछ लोगों का तर्क होगा कि नगर निगम के वे कर्मचारी-अधिकारी जिम्मेदार हैं, जिन्होंने हमारे गैर जिम्मेदाराना काम से इकट्ठा कूड़े को नहीं उठाया।

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बॉक्स : 02

बिहार में मृतप्राय हो गईं चीनी मिलें

एक समय था, जब उत्तर बिहार में चीनी मिलों की संख्या गिनी नहीं जा सकती थी। आज उंगलियों पर गिनी जा रही। मैंने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों के बीच कार्य किया है। उनकी समृद्धि को नजदीक से देखा है। आखिर वही गन्ना जिसके चलते वे राजनीतिक तौर पर शक्तिशाली व समृद्ध हैं, बिहार में मृतप्राय हो गया। क्या हमने कभी चितन-मनन किया। बरौनी का क्षेत्र एक समय विभिन्न कल-कारखानों के लिए प्रसिद्ध था। एक-एक कर सभी बंद हो गए। मजदूर नेताओं ने अपनी रोटियां सेंकी और मजदूर बेकार हो गए।

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बॉक्स : 03

कृषि प्रसंस्करण में अपार संभावनाएं

सवाल उठता है कि बिहार में निवेश क्यों नहीं हो रहा। कृषि प्रसंस्करण में अपार संभावनाएं हैं। मक्का हमारी एक मुख्य फसल है। देश में हम चौथे स्थान पर हैं। पर, हमारी उपज का सिर्फ सात फीसद ही यहां प्रसंस्करण होता है। जबकि, उसी मक्के का पशुखाद्य बनकर पुन: हमारे यहां लौट आता है। हम पुन: सरकार को दोष देंगे, पर क्या हमारे प्रबुद्ध नागरिकों ने कभी इस पर ध्यान दिया है कि कोई छोटा उद्योग भी लगता है तो उस पर लोग गिद्ध की निगाह डालने लगते हैं। बिहार के वे मजदूर जो बाहर के प्रदेशों में अपनी कुशलता तथा परिश्रम के लिए जाने जाते हैं वे अपने घर के आस-पास के उद्योग में सबसे अक्षम क्यों साबित होते हैं। हमें प्रगति करने में कोई तकनीकी, प्रशासनिक बाधा नहीं है। बाधा यदि है तो हमारी सोच। हमें अपनी सोच बदलनी होगी। वरना हम कभी भी एक ऐसा विश्वविद्यालय नहीं बना पाएंगे, जहां पढ़ने के लिए अन्य राज्यों के विद्यार्थियों की भीड़ लगे।

(डॉ. राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्याल, पूसा के कुलपति डॉ. रमेश चंद्र श्रीवास्तव से बातचीत पर आधारित)


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