गरीब-गुरबों की सबसे बड़ी आवाज थे जननायक
सूबे में 24 जनवरी की अहमियत राजनीतिक रूप से बहुत ज्यादा रहती है। इस दिन पूर्व मुख्यमंत्री जननायक कर्पूरी ठाकुर की जयंती के बहाने राज्य के राजनीतिक दलों में उनकी विरासत पर दावा जताने की होड़ मची रहती। कांग्रेस और वामपंथी दलों को छोड़ लगभग सारे दल उनकी जयंती मनाते हैं।
समस्तीपुर । सूबे में 24 जनवरी की अहमियत राजनीतिक रूप से बहुत ज्यादा रहती है। इस दिन पूर्व मुख्यमंत्री जननायक कर्पूरी ठाकुर की जयंती के बहाने राज्य के राजनीतिक दलों में उनकी विरासत पर दावा जताने की होड़ मची रहती। कांग्रेस और वामपंथी दलों को छोड़ लगभग सारे दल उनकी जयंती मनाते हैं। अतिपिछड़ा समाज के सबसे बड़े नेता को अपना आदर्श बताते हैं। सभी समाजवादी दल उन्हें अपना आदर्श मानते हुए उनके पदचिन्हों पर चलने की बात करते हैं। सामाजिक न्याय का अगुआ बताकर उनके सपनों को पूरा करने का संकल्प लेते। इस बार भी उनकी जयंती पर ऐसा ही होगा। लेकिन, कर्पूरी जी के विचारों को वास्तव में कितना अपने जीवन में उतारते हैं, यह देखने की जरूरत है। दरअसल, मंडल कमीशन लागू होने से पहले कर्पूरी ठाकुर बिहार की राजनीति में उस ऊंचाई तक पहुंचे जहां उनके जैसी पृष्ठभूमि से आने वाले व्यक्ति के लिए पहुंचना लगभग असंभव है। वे बिहार की राजनीति में गरीब-गुरबों की सबसे बड़ी आवाज बन कर उभरे थे। समस्तीपुर प्रखंड के पितौंझिया (अब कर्पूरीग्राम) में 24 जनवरी, 1924 को जन्मे कर्पूरी ठाकुर बिहार में एक बार उपमुख्यमंत्री, दो बार मुख्यमंत्री और दशकों तक विधायक और विरोधी दल के नेता रहे। 1952 की पहली विधानसभा में चुनाव जीतने के बाद वे लगातार बिहार विधानसभा का सदस्य चुने जाते रहे। वे दो बार बिहार के मुख्यमंत्री रहे। अपने दोनों ही कार्यकाल में उन्होंने ऐसी छाप छोड़ी कि आज भी लोग याद करते हैं।
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बिहार में समाजिक बदलाव की शुरुआत
पूर्व विधायक दुर्गा प्रसाद सिंह कहते हैं कि कर्पूरी जी 1967 में पहली बार उपमुख्यमंत्री बने। उन्होंने अंग्रेजी की अनिवार्यता को खत्म कर दिया। इसके चलते उनकी खूब आलोचना हुई, लेकिन उन्होंने शिक्षा को आम लोगों तक पहुंचाया। ऐसा इसलिए उन्होंने किया कि उस समय अंग्रेजी में सबसे ज्यादा बच्चे फेल होते थे। हालांकि, उनका मजाक भी उड़ाया गया और उस समय मैट्रिक पास करनेवालों को छात्रों को कर्पूरी डिविजन से पास होना कहा जाता था। आर्थिक तौर पर गरीब बच्चों की स्कूल फी को माफ करने का काम भी उन्होंने किया। कर्पूरी जी देश के पहले मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने अपने राज्य में मैट्रिक तक मुफ्त पढ़ाई की घोषणा की थी। उजियारपुर भाजपा के पूर्व मंडल अध्यक्ष एवं बेलामेघ गांव निवासी महादेव साह कहते हैं कि 1971 में मुख्यमंत्री बनने के बाद किसानों को बड़ी राहत देते हुए उन्होंने गैर लाभकारी जमीन पर मालगुजारी टैक्स को बंद कर दिया। यह किसानों के लिए राहत देने वाला फैसला था। वे कहते हैं कि 1977 में मुख्यमंत्री बनने के बाद राज्य की नौकरियों में उन्होंने गरीब एवं पिछड़ों के लिए आरक्षण लागू कर दिया। हालांकि, इस फैसले का उस समय जबरदस्त विरोध भी हुआ, परंतु उन्होंने बगैर झुके समाज के पिछड़े लोगों को आगे बढ़ने का मौका दिया। कर्पूरीजी के करीबी रहे उजियारपुर निवासी रामसागर महतो कहते हैं कि युवाओं को रोजगार देने के प्रति उनकी प्रतिबद्धता इतनी थी कि शिविर लगाकर उन्होंने नौ हजार से ज्यादा इंजीनियरों और डॉक्टरों को एक साथ नौकरी दी। इतने बड़े पैमाने पर एक साथ राज्य में इसके बाद आज तक इंजीनियर और डॉक्टर बहाल नहीं हुए।
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सादगी और ईमानदारी के प्रतिमूर्ति थे जननायक
पूर्व विधायक दुर्गा प्रसाद सिंह कहते हैं कि कर्पूरी जी लंबे समय तक राजनीति में रहे। वे मुख्यमंत्री एवं विधायक भी रहे। लेकिन, अपने जीवन में एक इंच न तो जमीन खरीद सके और न ही अपना घर ही बना सके। लोग इसकी कल्पना तक नहीं कर सकते। लेकिन, यह सच है। झोपड़ी के लाल कर्पूरी जी जीवन भर अपनी झोपड़ी में ही रहे। ऐसा करनेवाला देश में शायद ही कोई नेता होगा। उन्होंने यह भी कहा कि वे परिवारवाद के विरोधी थी। कर्पूरी जी का देहांत 64 साल की उम्र में 17 फरवरी, 1988 को दिल का दौरा पड़ने से हो गया था। वे भले ही आज हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनके विचार, उनकी निष्ठा, सादगी, ईमानदारी आज भी लोगों के जेहन में है।