सुनतै दशहरा के ढ़ोल, कोसी माय जाइत गेल
सहरसा। कटाव और धसान की आशंका से भरे बाढ़ पीड़ितों के आंखों में एक ही सवाल तैर रह
सहरसा। कटाव और धसान की आशंका से भरे बाढ़ पीड़ितों के आंखों में एक ही सवाल तैर रहा है कि उन फसलों का क्या जो कल लहलहाते हुए सुख देते थे। उस सुख को बाढ़ के बाद जैसे ग्रहण लग गया है। कटाव और डूब ने सबकुछ मटियामेट कर दिया है। बीमारी का तांडव अलग परेशान किये हुए है। छोटे बच्चे वायरल फीवर से त्रस्त होकर डॉक्टर व दवाओं का बाट जोह रहे हैं। शुक्र है अभी तक डायरिया ने अपना पांव नहीं पसारा है। रोंगटे खड़े कर देने वाली ²श्य को देखकर सरकार के मुखिया अफसरानों को भले ही पीड़ितों की सहायता का दिशा-निर्देश दे रहे हों पर सच ये है कि ऐसे हालात को देखकर भी प्रशासन के अधिकारियों की कुभकर्णी ¨नद्रा नहीं टूट रही है। हैरानी तो इस बात की है कि डूब के इस इलाके में बिहार सरकार के मंत्री और एक विधायक का भी अपना आशियाना है।
बाढ़ के इस बदरंग कोलाज में केवल मातम, हताशा और अपना घर-बार खो देने की पीड़ा का धूसर रंग दिखता है। तटबंध से दूर बस कुछ ही दूरी पर हहाती और खलबलाती कोसी की वेग मची धारा और उससे कटाव व धसान की आशंका भरे बाढ़ पीड़ितों की चेष्टाएं बहुत कुछ बोलती है। घर से बेघर हुए लोगों झुंड के झ़ुंड शरणार्थियों का अस्थायी घरौंदा, उस घरौंदे पर फूस, पालिथीन की छौनी, बांस के चार खूंटों पर बस छत डालकर बारिश और धूप से बचने की जुगत कर लोग इस पर न चूल्हे में जलावन और राशन-पानी का तो कोई ठिकाना ही नहीं। ऊपर से तेज धूप व उमस भरी गरमी के कारण इंद्र देव से प्रार्थना करते पीड़ितों की रात गुजर रही है। रात में मच्छर, सांप व कनखजूरे के भय के कारण आंख लगने नहीं देती। यहां पीड़ितों का दिन-रात बराबर हो गया है। सबसे अधिक मार महिलओं व बच्चों पर पड़ी है। महिलाएं पोलिथीन ओढ़े बच्चों को सीने से लगाए बस सुबह होने का इंतजार करती रहती है। सुबह की धुंध फटने से पहले उनके सामने नित्यक्रिया से निपटना भी बड़ी चुनौती साबित हो रही है।
डूृब वाले इलाके के नाव से उतरी रंजू कुमारी दौड़े-दौड़े गंडौल चौक की ओर जा रही थी। गंडौल चौक पर गंवई चिकित्सक आरके यादव से उसे अपनी मां के लिए दवा लेनी है। उसकी मां मारे बुखार के हांफ रही थी। बुखार की वजह से शरीर में इतना भी दम नहीं रह गया था कि वो खुद से चलकर डाक्टर के पास पहुंच जाय। यह किस्सा सिर्फ रंजू की मां का नहीं बाढ़ प्रभावित इलाके में वायरल बुखार, इंफ्लूजा महामारी की तरह फैला हुआ है। खासकर छोटे बच्चे वायरल तेज बुखार की वजह से उचित दवा व पथ्य ना कर सकने की वजह से मां की गोद में ही दम तोड़ देते हैं। लेकिन यह बात डूब वाले क्षेत्र से निकलकर बाहर नहीं आ पाती है और वह अभागी मां कलेजा पीट कर संतोष कर लेती है। इस इलाके में बाढ़ पीड़ितों के कई आशियाने दिखे जिसे देखकर आंखें स्वयं भर आती है। यहां हर घड़ी जान के लाले पड़े हैं। एक ही साड़ी, धोती, कमीज पहने हफ्ता गुजर रहा है। राशन पानी के इंतजाम की तो कोई व्यवस्था ही नहीं दिखती। दिखती है तो बस इनकी फिक्र और अजीब लाचारी। बाढ़ग्रस्त इलाकों में राहत का आसरा देखते-देखते आंखें पथरा जाती है। अमाही गांव के भुनेश्वर राय बताते हैं कि सरकारी गाड़ियों पर सवार बाबू सिर्फ तटबंध पर पड़ी सड़कों पर सरपट गाड़ी दौड़ा कर लौट जाते हैं। उनके कानों तक बच्चों की रूदन नहीं पहुंच पाता। महिलाओं की लाचारी से उन्हें क्या लेना-देना। अभिशाप का यह कोलाज हर बरस बाढ़ के दिनों में तो ऐसी तस्वीरें उकेरती ही रहती है कि फीवर, बारिश, धूप, बीमारी, भूख व हताशा इस कोलाज को आकर्षक बनाते हैं। यह सबकुछ उदार मना प्रशासनिक अधिकारियों व सरकार के कोरे आश्वासनों का नतीजा ही तो है। आगे बढ़ने पर तरही के रामसेवक मल्लिक मिलते हैं वे बताते हैं कि इस बार का बाढ़ सन 1984 की बाढ़ से भी ज्यादा भयावह है। उनके लिए यह बाढ़ कोई नई नहीं है। वे कोसी में एक प्रचलित मुहावरे सुनतै दशहरा के ढ़ोल, कोसी माय जाइत गेल के जरिये यह समझाने की कोशिश में लगे हैं कि बाढ़ तो तटबंध के भीतर बसे लोगों की नियति में ही लिखा है। वो आगे बताते हैं कि उम्र बीतने को है हर सरकार ने तटबंध के भीतर बसे लोगों को दशकों से बेहतर करने का आश्वासन देती रही है। पर उनका आसरा सिर्फ मां दुर्गा पर है। दुर्गा पूजा के दौरान पहली पूजा को ढोल बजते ही तटबंध के अंदर बसे लोगों का दुख दूर होने लगता है। यानी बाढ़ की स्थिति खत्म हो जाती है। फिर खेत-खलिहान लहलहाने लगते हैं।
--------आंकड़ों की नजर में बाढ़
--------1. प्रभावित गांव की संख्या : 85
2. प्रभावित पंचायतों की संख्या : 21
3. प्रभावित आबादी : 80 हजार