संकट में नवपाषाणकालीन तेलारीगढ़ का वजूद
एक तरफ जहां राज्य सरकार पुरातात्विक स्थलों के संरक्षण को लेकर अन्वेषण करा रही है वहीं जिले के कई पुरास्थलों का वजूद मिटने के कगार पर है।
प्रवीण दूबे, सासाराम : एक तरफ जहां राज्य सरकार पुरातात्विक स्थलों के संरक्षण को लेकर अन्वेषण करा रही है, वहीं जिले के कई पुरास्थलों का वजूद मिटने के कगार पर है। इनमें से कुदरा-चेनार पथ पर जिला मुख्यालय से 25 किलोमीटर दूर स्थिति तेलारी गढ़ पर मिले नवपाषाणकालीन परंपरा के अवशेष लगातार मिटते जा रहे हैं। जबकि राज्य सरकार द्वारा इस स्थल का लगभग पांच वर्ष पूर्व केपी जायसवाल शोध संस्थान पटना द्वारा सूचीकरण भी कराया जा चुका है। गढ़ पर एक प्राचीन यक्ष की मूर्ति भी मिली है, जिस पर संस्कृत में शिलालेख उत्कीर्ण है। झाड़ियों में पड़ी हुई इस खंडित प्रतिमा को शोधकर्ताओं ने निकालकर साफ किया था और ग्रामीणों को इसका महत्त्व बताकर सौंप दिया था। इसके ऊपर ब्राह्मी लिपि और प्राकृत भाषा में छोटा लेख अंकित है। शोध अन्वेषक डॉ. श्यामसुंदर तिवारी ने इसे पढ़ा था, जिस पर लिखा है - जस पुत्रस यखकेन। हाल के दिनों में इस प्रतिमा को ग्रामीणों ने सीमेंट के चबूतरे पर स्थापित कर दिया है तथा विचित्र ढंग से रंग रोगन कर इसका स्वरुप बिगाड़ दिया है। अब अंकित लेख भी दब चुका है। महाजनपद काल के मिले हैं मृदभांड :
शोध के दौरान वहां उत्तरी काली चमकीली मृद्भांड परंपरा के बर्तन, महाजनपद काल युग के प्रमाण मिल चुके हैं। शोधकर्ता मानते हैं कि दुर्गावती नदी के किनारे स्थित तेलारी गढ़ में कभी एक समृद्धशाली सभ्यता विकसित थी।
इतिहासकारों के अनुसार तेलारी गढ़ पुरातत्व विभाग के लिए बड़ा खोज का केंद्र है। इस गढ़ के सर्वेक्षण के दौरान नियोलिथिक युग या नवपाषाणकालीन परंपरा के संकेत मिले हैं। 2019 में यहां पहुंचे देश के जाने माने पुरातत्ववेता सह वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. देवी प्रसाद तिवारी ने भी सर्वेक्षण के दौरान इस बात को माना है। यहां काले मृदभांडों में थाली व स्टैंड के ऊपर कटोरे के अवशेष मिल रहे हैं। लाल और काले मृदभांडों की संख्या अधिक है। स्थानीय लोगों के अनुसार एक तरफ लाल और दूसरी तरफ काला मृदभांड मिलता है। गढ़ के अंदर दफन हैं इतिहास के राज:
तेलारी गढ़ में इतिहास के कई राज दफन हैं। गढ़ पर एनबीपीडब्ल्यू परंपरा की खूबसूरत थाली, कटोरा, पानी के बर्तन, घरों में प्रयोग किए जाने वाले पत्थर के उपकरण पूजा-पाठ के कार्य में लाए जाने वाले बर्तन सहित अन्य सामग्रियां जहां-तहां बिखरी पड़ी हैं। जो बताती हैं कि यहां पर निवास करने वाले लोग काफी संपन्न थे। इसके अलावा मिट्टी की प्ले डिस्क, खूबसूरत मटकी सहित अन्य बर्तनों के अवशेष मिले हैं। इसमें से कुछ मध्यकाल युग की वस्तुएं भी हैं। प्राप्त वस्तुओं से जाहिर होता है कि यहां बसी परंपरा करीब 600 ईसा पूर्व से अधिक है। यहां से जो बर्तन मिले हैं, उसमें अधिकांश चाक व हाथ के बने हैं, लेकिन उसमें जो चमक, सुंदरता व नक्काशी है, वह आज के बर्तनों पर भी नहीं मिलती है। कहते हैं जानकार :
ऐतिहासिक मामलों के जानकार डॉ. श्याम सुंदर तिवारी ने कहा कि 600 ईसा पूर्व तक केवल मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग होता था। उस समय के लोग नदी या तालाब के किनारे बसते थे। तेलारीगढ़ के आस पास की भौगोलिक पृष्ठभूमि से प्रतीत होता है कि यह प्राचीनतम स्थल है। इससे पूर्व काशी प्रसाद जायसवाल शोध संस्थान द्वारा कराए गए डाक्यूमेंटेशन में भी इस गढ़ पर नव पाषाणकालीन परंपरा के संकेत मिले थे। संरक्षण के अभाव में तेलारी गढ़ का हर दिन क्षरण हो रहा है। किसानों द्वारा खेती का क्षेत्र बढ़ाने के लिए गढ़ का तेजी से कटाव किया जा रहा है। यदि पुरातत्व विभाग द्वारा उसकी समय रहते खोदाई नहीं कराई गई, तो जिले के लोग एक प्राचीन सभ्यता से परिचित होने से वंचित रह जाएंगे।