बिहार में आगे बढ़ती आधी आबादी: महिला सशक्तीकरण से जुड़ी सुखद खबरों के आने का सिलसिला जारी
राज्य सरकार अपनी नीतियों से महिलाओं के भीतर आर्थिक गतिविधियों में शामिल होने की इच्छा को प्रोत्साहित कर रही है। वर्ष 2005 में सत्ता परिवर्तन के बाद महिला शिक्षा के दृष्टिकोण से कई महत्वपूर्ण बदलाव आए हैं। मसलन आवागमन सुलभ होने से स्कूल आना-जाना आसान हुआ है।
तब्बसुम खातून। आर्थिक एवं नीतिगत मामलों में महिलाओं की भागीदारी के मोर्चे पर पिछड़े माने जाने वाले बिहार से अब महिला सशक्तीकरण से जुड़ी सुखद खबरों के आने का सिलसिला जारी है। कुछ दिन पहले पुलिस में महिलाओं की बड़ी संख्या और उनके कमांडो दस्ते बनाने की खबरों को लेकर बिहार चर्चा में रहा। वहीं अब पंचायत चुनाव में महिलाओं की बड़ी हिस्सेदारी पर बात हो रही है। वैसे तो यहां त्रिस्तरीय पंचायत के सभी पदों पर महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है, लेकिन अनारक्षित पदों पर भी पुरुषों की तुलना में महिलाएं ज्यादा नामांकन दाखिल करा रही हैं।
बिहार की यह सफलता इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि सामाजिक परिवर्तन का महिला सशक्तीकरण और लैंगिक न्याय से सीधा संबंध होता है। बिहार में एक तरफ पंचायत चुनाव द्वारा नीतिगत मामलों में भूमिका तलाशती और दूसरी तरफ पुलिस की वर्दी में परेड कर रही आधी आबादी पिछले डेढ़ दशकों में महिला सशक्तीकरण के प्रयासों की सफलता का प्रतीक है।
दरअसल, वर्ष 2005 में सत्ता परिवर्तन के बाद महिला शिक्षा के दृष्टिकोण से कई महत्वपूर्ण बदलाव आए हैं। मसलन आवागमन सुलभ होने से स्कूल आना-जाना आसान हुआ है। सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की बहाली और लड़कियों को स्कूल जाने के लिए प्रेरित करने के लिए यूनिफार्म और मुफ्त साइकिल जैसी योजनाएं बहुत प्रभावी सिद्ध हुई हैं। वहीं बदहाल कानून व्यवस्था में भारी सुधार ने अभिभावकों के मन से डर को निकाला है। ऐसे तमाम कारणों से महिलाएं शिक्षा ग्रहण करने की राह पर आगे बढ़ीं। बड़ी संख्या में लड़कियों ने न सिर्फ प्राथमिक कक्षाओं में नामांकन कराया, बल्कि उच्च शिक्षा तक गईं और सरकारी तथा निजी दोनों ही क्षेत्रों में रोजगार के लिए आगे भी आ रही हैं।
ऐसे में बिहार इस नीतिगत प्रयास और उसके सकारात्मक प्रभाव का एक उत्कृष्ट उदाहरण बना है, जो नीतियों के जरिये सामाजिक परिवर्तन और महिलाओं के भीतर आर्थिक गतिविधियों में शामिल होने की प्रबल इच्छा की एक नजीर पेश कर रहा है। हालांकि, इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि लैंगिक समानता की कोशिश बंद कर दी जाए। हमारे देश के लिए यह गर्व का विषय है कि यहां महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी स्वतंत्रता के समय से ही सुनिश्चित की गई। हालांकि, अधिकारों का मिलना और उनका वास्तविक अर्थों में प्रयोग दो अलग-अलग मसले हैं।
यह बिंदु तब और प्रासंगिक हो जाता है, जब ऐसा प्रश्न आर्थिक गतिविधियों या रोजगार से संबंधित हो। यह सच है कि बिहार सरकार के लगातार प्रयासों ने यह साबित कर दिया है कि सामान्य रूप से पितृसत्ता के प्रभाव वाले क्षेत्र के पिछड़े राज्य में भी सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ा जाना असंभव नहीं है, लेकिन इस दिशा में अभी भी एक लंबा सफर तय करना शेष है।
(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)