अपने अंदर के भय को दूर कर पितृ और राजसत्ता को चुनौती दे सकती हैं स्त्रियां
हम सभी को भय से मुक्त होने की जरूरत है। वह भय कहीं न कहीं हमारे अंदर छिपा हो सकता है
पटना। हम सभी को भय से मुक्त होने की जरूरत है। वह भय कहीं न कहीं हमारे अंदर छिपा होता है। इसपर विजय प्राप्त करना होता है, जो इतना आसान नहीं होता। भगवान श्रीकृष्ण ने भी कुरुक्षेत्र में भय से मुक्त होकर नि:स्वार्थ भाव से कर्म करने की बात कहते हैं। गीता में लिखी गई बातें आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी पहले। भय से मुक्त होने के लिए लोग बाहर का रास्ता ढूंढते हैं जबकि इसका समाधान इंसान के अंदर ही है। मध्य प्रदेश युवा कांग्रेस की राज्य अध्यक्ष, नेहरू युवा केंद्र संगठन की उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की सचिव व लेखिका मीनाक्षी नटराजन की पुस्तक 'अपने-अपने कुरुक्षेत्र' कुछ ऐसी बातें करती हैं। मीनाक्षी नटराजन शनिवार को पटना में पाठकों से रूबरू थीं। प्रभा खेतान फाउंडेशन एवं नवरस स्कूल ऑफ परफार्मिग आर्ट्स की ओर से आयोजित 'कलम' कार्यक्रम के दौरान नटराजन ने महाभारत के गांधारी, कुंती, द्रौपदी, भीष्म एवं स्त्री के भीतर के कुरुक्षेत्र विषय पर प्रकाश डालते हुए दर्शकों को जानकारी देते हुए प्रश्नों का जबाव दिए। कार्यक्रम का प्रस्तुतिकर्ता श्री सीमेंट था। दैनिक जागरण कार्यक्रम का मीडिया पार्टनर रहा। कार्यक्रम के दौरान मीनाक्षी नटराजन से उनकी पुस्तक पर बातचीत शहर के संस्कृतिकर्मी जय प्रकाश ने की। मंच का संचालन आराधना प्रसाद ने किया।
आज के संदर्भ में महाभारत के पात्रों की जरूरत क्यों पड़ी?
समय बदलता है और उसके परिप्रेक्ष्य भी बदलते हैं। दूसरी ओर समय के साथ कहने और सुनने के ढंग भी बदलते हैं। समय के साथ परिस्थिति भी बदलती है और कई बार उन परिस्थिति में स्वयं को फंसा हुआ पाते हैं। महाकाव्य पर लेखन का कार्य होता रहा है और आगे भी होता रहेगा। कोई भी कृति अपने समय की रचना होती है। महाभारत के पात्र आज भी हमारे अंदर और समाज में है, जो भयग्रस्त हैं। उनके अंदर भी सत्ता से दूर होने का भय तो अपने राज्य खोने का डर बना है। कोई अपने नियमों में भय के कारण बंधा है तो समाज के बंधनों के कारण। भय, भूख, कामना, वासना आदि सभी चीजें इंसान के अदंर आज भी व्याप्त हैं, जो पहले थीं। पुस्तक 'अपने-अपने कुरुक्षेत्र' सिर्फ 18 दिनों का होने वाला संग्राम नहीं बल्कि ये हमारे अंदर के हर दिन का संग्राम है, जिसमें हम सभी हर दिन लड़ते हैं। कभी विजय मिलती है तो कभी हार का मुंह भी देखना पड़ता है।
पुस्तक कहीं न कहीं पितृसत्ता पर भी सवाल खड़ी करती है, क्यों?
पितृ-सत्ता की सोच हर किसी के लिए है। चाहे वो पुरुष हो या स्त्री। वही समाज में स्त्री के लिए कई प्रकार के बंधन हैं तो पुरुषों के लिए भी एक नियम है। हर कोई नियमों से बंधा है। समाज अपने अनुसार बंधन बनाते हैं और लोग उसके अनुसार बंधे चले जाते हैं। कई बार इस बंधन से मुक्त होने की लालसा होती है, लेकिन कहीं न कहीं हम भय के कारण मुक्त नहीं हो पाते। जैसे पुरुष स्त्रियों की अपेक्षा अधिक कठोर होते हैं। भय और बंधन से मुक्ति हमारे अंदर है। जिसकी शुरुआत अपने अंदर से ही करने की जरूरत है। सत्ता के केंद्र में बैठे परिवार जिसमें स्त्रियां और पुरुष दोनों हैं। अगर स्त्री अपने अंदर के भय को दूर करें तो पित्तृ-सत्ता और राजसत्ता को भी चुनौती दे सकती हैं।
भय को पैदा कौन कर रहा, यह अंदर कैसे प्रवेश करता है?
हम सभी कहीं न कहीं किसी भय से ग्रस्त हैं। अभी हाल में ही पूरा देश कोरोना के भय से सहमा है। इस भय से राजसत्ता और पितृ-सत्ता भी प्रभावित है। इनसे लड़ने के लिए साहस की जरूरत है। भय से मुक्त होने के लिए किसी और से मुक्त होने की जरूरत नहीं। भय के कई रूप हैं जिसे पहचानने की जरूरत है। श्रीकृष्ण ने भी अंत समय तक कौरवों को धर्म की बात समझाते रहे, लेकिन राजसत्ता खोने दूसरे को पूर्ण अधिकार न देने की बात बनी रही, जिसका नतीजा युद्ध के रूप में दुनिया के सामने आया। कार्यक्रम के दौरान महाभारत से जुड़ी कई प्रश्नों को श्रोताओं ने नटराजन से किया। आयोजन के दौरान आइएएस त्रिपुरारी शरण, अनीश अंकुर, उषा झा, रत्ना पुरकायस्था, अर्चना त्रिपाठी, आनंद माधव, डॉ. प्रियेंदु सुमन, विनीत, सत्यम आदि मौजूद थे।