शहादत की स्मृतियां: देश के लिए पति ने दिया बलिदान, दादा को भी मिला था अशोक चक्र
शहीद विजय कुमार राय की पत्नी पुष्पा राय कहती हैं कि उनके परिवार में शहरदत की परंपरा रही है। देश सेवा का जुनून तो खून में है। आइए जानते हैं उनकी बात।
पटना [जितेन्द्र कुमार]। शहादत तो मेरी किस्मत में है। मेरे दादा 1971 में बंगलादेश मुक्ति युद्ध में गोली खाए। वे अशोक चक्र लेकर घर लौटे। मैं अपने बेटे को भी फौज में अधिकारी बनाउंगी। मेरे पिता, ससुर, जेठ सेना में थे। मेरे देवर सेना में हैं और जेठ का बेटा भर्ती के लिए कोशिश कर रहा है। कश्मीर के पुंछ सेक्टर में 6 अगस्त 2013 को शहीद हुए विजय कुमार राय की पत्नी पुष्पा राय कुछ इसी अंदाज में देश सेवा के जज्बे के साथ बच्चों को भविष्य के लिए तैयार कर रही हैं। उन्हीं के शब्दों में जानिए उनकी बात...
शहादत की रात करीब 9-10 बजे मेरे रिश्तेदार ने दुखद खबर के लिए मोबाइल पर कॉल किया। तब दानापुर के सुलतानपुर में किराये के मकान में रहती थी। मुझे तो कहा कि अपने भाई से बात कराइए। भाई को ही फोन पर सूचना दी। भाई ने मुझसे बात छुपाई, लेकिन मुझे कुछ संदेह होने लगा। मुझे जानकारी नहीं हो, इसलिए टीवी का केबल काटने भाई बाहर निकला। तब तक खबर में पुंछ सेक्टर में पांच शहीदों के नाम आने लगे। उनका नाम और नंबर देखते ही संदेह हकीकत में बदल गया। फिर मुझे क्या हुआ याद नहीं।
शहीद के गांव में अबतक नहीं बना रोड
सरकार भले उनकी शहादत को भूल गई, लेकिन अपने बेटे को देश सेवा के लिए सैन्य अधिकारी बनाने की तमन्ना दिल में है। शहीद के गांव बिहटा और मनेर प्रखंड के सीमा सोन नद के किनारे ठेकहा में आज भी प्राथमिक स्कूल नहीं है। रोड बनाने का वादा किया गया, लेकिन निर्माण नहीं हुआ। साउथ बिहार पावर डिस्ट्रिब्यूशन कंपनी ने शहीद के नाम पर बिजली पहुंचाई है। सिर्फ यही निशानी है। शहादत की याद में स्कूल, सामुदायिक भवन और अस्पताल के लिए जमीन भी दी गई, लेकिन निर्माण नहीं किया गया। बरसात में गांव पहुंचना मुश्किल है।
एक देवर बिहार रेजिमेंट में दे रहा सेवा
मेरे ससुर नेतलाल राय सेना में थे। तीन बेटों को फौजी बनाया। बड़े बेटे की मौत बीमारी से हो गई। मेरे पति शहीद हो गए। एक देवर बिहार रेजिमेंट में तैनात हैं। सबसे छोटा बेटे ही फौज में नहीं जा पाए थे। वे दुर्घटना का शिकार हो गए।
बेटा-बेटी को आर्मी स्कूल में मिल रही शिक्षा
स्नातक तक पढ़ाई कर चुकी हूं, लेकिन शहीद की पत्नी को नौकरी या रोजगार में प्राथमिकता का लाभ नहीं है। सिर्फ पेंशन का पैसा मिलता है जिससे बेटा-बेटी को आर्मी स्कूल में पढ़ा रही हूं। शहादत के वक्त सेना ने रहने के लिए क्वार्टर दिया था, लेकिन दो साल बाद खाली करना पड़ा। किराये के मकान में रहने की नौबत को देखकर सरकार से जो पैसे मिले थे, वह जमीन और घर बनाने में लगा दिया। बच्चों की पढ़ाई के लिए आवेदन दिया है। सरकार बच्चों की पढ़ाई और मुझे रोजगार या नौकरी का प्रबंध कर देती तो जिंदगी आसान हो सकती थी।
शहादत दिवस में शरीक होते हैं गांव वाले
दो वर्षों तक शहादत दिवस 6 अगस्त को गांव में सरकारी सेवक और क्षेत्रीय नेता भी आते थे। अब सिर्फ गांव वाले रहते हैं। उनके नाम पर हवन और माल्यार्पण में सिर्फ गांव और परिवार के लोग शामिल होते हैं।
सरकार के भुला देने का दुख
शहीद के बड़े भाई के बेटे रंजन कुमार कहते हैं कि सेना की वर्दी मिलना गौरव की बात है। देश के लिए शहीद होने से डर नहीं लगता। बेटा तो रणभूमि में लडऩे के लिए पैदा होता ही है। दुख तब होती है, जब शहीद को सरकार भुला देती है। गांव में सड़क, बिजली, स्कूल, अस्पताल के वादे किए गए थे, लेकिन सिर्फ बिजली आई। खुद को सेना में भर्ती होने के लिए तैयारी कर हूं।