PM मोदी की आंधी को देख बिहार में 'एकला चलो' पर मंथन कर सकती है कांग्रेस
बिहार में नरेंद्र मोदी की आंधी को देख विरोधी सदमे में हैं। हालांकि कांग्रेस ने एक सीट जीतकर थोड़ी सी ताकत दिखाई है। अब कहा जा रहा है कि कांग्रेस एकला चलो पर मंथन कर सकती बिहार में।
पटना [सुनील राज]। बिहार में चली मोदी की आंधी में जब बड़े-बड़े धुरंधरों के पांव उखड़ गए, वैसे समय में कांग्रेस ने सही मायने में एक सीट जीतकर यह बता दिया है कि उसमें अभी भी थोड़ी ही सही ताकत तो बची हुई है। किशनगंज से कांग्रेस की जीत ने उसे राजद की बैसाखी से मुक्ति का मार्ग दिखा दिया है।
भले ही वोट प्रतिशत के मामले में तमाम दलों के बीच कांग्रेस बिहार में सबसे अंतिम पायदान पर खड़ी हो, लेकिन हकीकत यही है कि राजद के मुकाबले उसका स्ट्राइक रेट काफी बेहतर हुआ है। 2019 का लोकसभा चुनाव 19 सीटों पर लडऩे वाली राजद को बिहार से कुल 15.38 प्रतिशत वोट मिले। राजद ने काफी हील-हुज्जत के बाद कांग्रेस को नौ सीटों पर लडऩे का मौका दिया, जिसमें से कांग्रेस ने एक सीट ही नहीं जीती, बल्कि वोट प्रतिशत में भी राजद के आधे पर आकर खड़ी हो गई है। कांग्रेस को इस चुनाव बिहार में 7.70 फीसद वोट मिले हैं।
चुनाव परिणाम आने के बाद कांग्रेस के प्रवक्ता हरखू झा ने बयान देकर हार का ठीकरा राजद पर फोड़ा। कांग्रेस ने आरोप लगाया कि राजद के स्तर पर चुनाव को लेकर बड़ी असावधानी तो बरती ही गई, चुनाव में समन्वय का अभाव भी हार की बड़ी वजह बना। कांग्रेस के इस बयान के बाद पार्टी के अंदर राजद का विरोध करने वाले नेता भी मुखर होकर राजद की बैसाखी से अलग होने का दबाव बनाने की रणनीति बनाने में जुट गए हैं।
राजद के साथ को लेकर नाराज नेताओं का मानना है कि कांग्रेस यदि अपने अकेले दम पर चुनाव लड़ती है तो उसे बिहार में सीटों का ज्यादा फायदा तो मिल ही सकता है, साथ ही वैसे वोटर जो राजद-कांग्रेस को एक ही सिक्के के दो पहलू मानते हैं, उन्हें भी कांग्रेस के बारे में नए सिरे से विचार करने का मौका मिलेगा।
बैसाखी का विरोध करने वाले नेताओं के तर्क भले ही जो हों, लेकिन पिछले तीन दशक से अपनी जमीन से उखड़ी कांग्रेस को इस प्रकार के प्रयोग से कोई परहेज भी नहीं। कांग्रेस के एक नेता मानते हैं कि एकला चलो के लिए पार्टी में एक अलग ही गुट है और यह गुट लंबे समय से इस बात की वकालत करता रहा है। हो सकता है पार्टी का शीर्ष नेतृत्व बिहार में यह प्रयोग करे कि जब साथ चलकर भी हाथ खाली हैं, तो बगैर साथ के हाथ खाली रहते हैं तो प्रयोग से गुरेज कैसा।
बहरहाल एक हकीकत यह भी है कि कांग्रेस के लिए ऐसा प्रयोग करना कहीं आफत का मसला न बन जाए। दरअसल 1989 के भागलपुर दंगे और इसके बाद मंडल की राजनीति के दौर के बाद कांग्रेस का पारंपरिक वोट भी उसके खिलाफ जाकर खड़ा हो गया। बिहार में पहले मुस्लिम समुदाय ने उससे मुंह मोड़ा, बाद के दिनों में हिंदुओं में भी कांग्रेस की नीतियों को लेकर नाराजगी नजर आने लगी। राजनीति के धुरंधर खिलाड़ी लालू यादव ने कांग्रेस के वोट बैंक को पूरी तरह अपने कब्जे में कर लिया। इसके बाद बिहार में कांग्रेस की जीत के लिए राजद का सहारा आवश्यक हो गया।
ऐसे में यदि कांग्रेस तमाम पुरानी बातों को भूल 'एकला चलो' पर मंथन करती है, तो उसे बिहार में बड़ी मेहनत करनी होगी। पहले तो उसे अपना खुद का वोट बैंक खड़ा करना होगा, क्योंकि कांग्रेस के कोर वोटर समय के साथ उससे दूर होते गए हैं। देखना यह होगा कि कांग्रेस अपने दम पर अकेले चुनाव लडऩे का जोखिम उठाने का दांव खेलती है या फिर बैशाखी के सहारे ही बिहार में अपनी राजनीति करती रहती है।
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